यायावर मैं–005: धड़कन

15-07-2022

यायावर मैं–005: धड़कन

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 209, जुलाई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मेरी कभी बहुत बड़े, प्रभावशाली, अमीर नामवर व्यक्तियों से निकटता नहीं रही। बहुत बड़े तो छोड़िए किसी तथाकथित बड़े व्यक्ति से भी सम्बन्ध नहीं रहे। मुझे संकोच भी होता था और यह भी लगता था कि मेरी इनके साथ सम्बन्ध निर्वाह की न क्षमता है, न दक्षता। और मानसिकता तो क़तई नहीं। राजनीति, व्यवसाय, नौकरी में भी कभी किसी क्षेत्र में मैंने अपनी तरफ़ से ऐसी कोशिश नहीं की। यद्यपि रुचि मेरी साहित्यिक रही लेकिन किसी बड़ी पत्रिका, अख़बार, प्रकाशन, मीडिया के मुख्य लोगों से भी परिचय नहीं रहा। 

मैंने जब लिखना शुरू किया तब प्रिंट मीडिया ही प्रभावशाली था और बड़े अख़बार और पत्रिकाएँ दिल्‍ली, बंबई जैसे महानगरों से निकलते थे। कुछ प्रांतीय राजधानियों से। अतः उनके संपादकों और सहायकों से भी संपर्क में नहीं रहा। यदा-कदा कुछ छपने भेजता था, स्वीकृत हुआ तो ठीक अन्यथा सखेद रचना वापस लौट आती थी। मैं उस समय की बड़ी और प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में विरले ही छपा। कुछ व्यक्तिगत प्रयासों से निकलने वाली अल्प संसाधनों वाली पत्रिकाओं से परिचय हुआ। उनमें रचनाएँ भेजीं। फिर ख़ुद भी ‘धरती’ नाम से ऐसी एक पत्रिका निकाली। इसके बाद परिचय का दायरा थोड़ा बढ़ा। कुछ सभा-सम्मेलनों में जाना भी हुआ। यहाँ भी बड़ों से मित्रता कम ही हुई बस परिचय हुआ। 

मेरी शुरूआत विदिशा से हुई। वहाँ हिंदी में डॉ. विजय बहादुर सिंह एक बड़ा नाम थे। मुझे उनसे मिलने में संकोच होता था। यद्यपि डॉ. विजय बहादुर सिंह बहुत खुले और व्‍यवहारकुशल व्यक्ति हैं लेकिन तब मुझे अपने अज्ञान की काफ़ी चिंता रहती थी और उनके ज्ञान से लाभ लेने में अपने को अक्षम पाता था सो उस दौर में उनके संपर्क में भी अधिक नहीं रहा। अलबत्ता बाबा नागार्जुन को उनके मारफ़त देखा-सुना। 

हिंदी साहित्य का मैं औपचारिक विद्यार्थी नहीं था। मेरा पठन-पाठन पत्रिकाओं और पुस्तकालय वाला था वह भी पूरी तरह रुचि के हिसाब से। आपातकाल के बाद एक बार अलीगढ़ में जनवादी कहानी शिविर का आयोजन हुआ। उसमें नए-पुराने लेखकों से भेंट हुई। असल में मेरा झुकाव वामपंथी साहित्य की ओर था अतः यह एक प्रस्थान बिंदु जैसा ही था। यहाँ डॉ. कुंअरपाल सिंह, नमिता सिंह, सव्यसाची, प्रदीप सक्सेना आदि वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ अनेक युवा एवं समवयस्क रचनाकारों से भेंट हुई। उनमें से कुछ से मित्रता भी हुई। तब मैं इंजीनियरिंग के फ़ायनल ईयर में रहा होऊँगा। मैंने इंजीनियरिंग पास करके वहीं पॉलिटेक्निक में शिक्षक की नौकरी कर ली उन्हीं दिनों कॉलेज की बैंक वाली ब्रांच में नरेन्द्र जैन से भेंट हुई। लब्बोलुबाब यह कि न कभी अंधी दौड़ में मैंने शामिल होने का सोचा न केरियरिज़्म को उद्देश्य माना। जीवन बस ऐसी ही ऊँचे-नीचे ऊबड़खाबड़ पगडंडियों पर भटकता रहा। 

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