चिंगारी

15-05-2024

चिंगारी

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

सुनाने को नहीं बचीं कहानियाँ
अक्सर तो सुनता ही रहा
मौन को अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया
 
क्या जिया कैसे जिया
वो सब क्या सोचना
न कुछ गर्व करने लायक़ न पछतावे की बात
पढ़ लिख लिए
मिला रोज़गार
कोल्हू के बैल की तरह जुते रहे
 
विवाह, बच्चे, परिवार
ओढ़ ली ज़िम्मेदारी
कुछ समय निकाल पढ़ना-लिखना, सभा-सम्मेलन
और दुनिया बदलने की चिंता
बेहतर समाज
समृद्‍ध संस्कृति
 
लोग अपनी अपनी बेहतरी में मशग़ूल
वैश्वीकरण के संजाल में
धुँधलका बढ़ता रहा
धीरे-धीरे खोता गया वो सब
जो सँजोया था बरसों-बरस
 
मन में उड़ती रही पतंगें
आसमान धुँध से भरा था
फूल खिले थे
दृष्टि धुँधली थी
कैटरेक्ट बढ़ आया था आँखों में
 
हो रहा था बहुत कुछ देश दुनिया में
सूचनाएँ ही सूचनाएँ
भूख, सूखा, युद्ध, भूकंप, तूफ़ान
और सुविधाओं का बड़ा ज़ख़ीरा
आनंद, मनोरंजन, भाँति-भाँति के पकवान
 
भ्रम और झूठ
टीवी, अख़बार, वाट्सएप और यूट्यूब
माईकल जैक्सन की तर्ज़ पर नाचता गोएबल्स
कानों में जमता रहा मैल
बचा था मुँह बोलता कड़वा
 
याद रखने को है क्या
मस्तिष्क में ख़ून और हवा पहुँचती
ऐलोपैथिक टेबलेट की शक्ल
 
कभी-कभी कौंधती है एक चिंगारी
युवावस्था में पनपी थी जो मन में
थोड़ी देर के लिए
लौट आता है यौवन

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
स्मृति लेख
यात्रा-संस्मरण
सिनेमा और साहित्य
कविता
सामाजिक आलेख
पुस्तक चर्चा
पुस्तक समीक्षा
ऐतिहासिक
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
आप-बीती
कहानी
काम की बात
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें