प्रतिकूल समय में एक ज़रूरी रचनात्मक हस्तक्षेप

01-05-2025

प्रतिकूल समय में एक ज़रूरी रचनात्मक हस्तक्षेप

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

पत्रिका: अन्वेषा
संपादक: कविता कृष्णपल्लवी
संपर्क: दून बास्केट लोअर नेहरू ग्राम, सिद्ध विहार, रायपुर, देहरादून-248001
मूल्य: ₹500/-

अन्वेषा का प्रवेशांक, वार्षिकांक आये हुए कई दिन हो गये। 

यह प्रवेशांक बहुत भारी-भरकम अंक है। 544 पृष्ठ, साईज़ भी पुराने ज़माने की धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसा। कोई पत्रिका इतने बृहत् आकार की हो सकती है मेरे लिए तो यह सोचना भी सहज नहीं था। शुरू में उलट-पुलट कर दो-चार बार देखा। कुछ पढ़ा, ज़्यादा छोड़ा। पहले ही दिन संपादकीय पढ़कर मन बना था कि एक छोटी टिप्पणी लिखूँ लेकिन मामला टलता गया। कुछ अपना दर्द और बाक़ी दुनिया के दर्द। दर्द बयाँ करूँ कि कुछ काम की बात कहूँ। 

मैंने ‘धरती’ जब निकाली थी तो पहला अंक मात्र 48 पृष्ठ का था यानी इसका एक बटा ग्यारह। संकलित सामग्री भी कच्ची पक्की थी। संपादन का अनुभव एवं परिपक्वता नहीं थी। अतः इसकी उससे कोई तुलना नहीं हो सकती। वह साढ़े चार दशक पुरानी बात हुई। यह 2025 का काम है इसीलिए और महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि वह जो समय था वह संघर्ष उत्साह और प्रतिबद्धता का समय था। यूँ तो वह भी बहुत बढ़िया समय नहीं था लेकिन इस तरह का कॉर्पोरेट और आवारा पूँजी का दौर नहीं था। पूँजीवाद का प्रभाव था लेकिन क्रोनी कैपेटलिज़्म नहीं दिख रहा था। सांप्रदायिकता और फासिज़्म का इतना नंगा नाच नहीं था। सत्ताएँ प्रतिरोध को सिर्फ़ दबाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं दिखती थीं। विरोध का आंशिक स्वीकरण भी था। हर विरोध देशद्रोह से नहीं नवाज़ा जाता था। उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र का अंग स्वीकारा जाता था। आज स्थितियाँ प्रतिकूल हैं। आज ऐसा कोई काम करना आसान नहीं है। तब यह काम हुआ है अतः सराहनीय है, स्वागतेय है। 

यह प्रतिकूल समय में एक ज़रूरी रचनात्मक हस्तक्षेप है। 

प्रस्तुत अंक में चौदह खंड हैं। पहला खंड समकालीन फिलीस्तीनी कविताओं पर केंद्रित है। यह बेहद सामयिक, सार्थक और महत्त्वपूर्ण कर्म है। पत्रिका में संपादकीय की पहली ही पंक्ति है—फिलीस्तीन अजेय प्रतिरोध का दूसरा नाम है। इस खंड में चौबीस कवियों की कविताएँ संगृहीत हैं। ज़्यादातर युवा हैं और युद्ध की अमानवीय, भयावह स्थितियों में कविताएँ लिखकर अपनी भावनाओं और प्रतिरोध का इज़हार कर रहे हैं। 
इतना बड़ा काम है। पूरे काम पर बात करना कठिन है। तो समकालीन हिंदी कविता खंड पर की गई संपादकीय टिप्पणी को लेकर कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त करता हूँ। इसमें जो बात सर्वाधिक प्रभावित करती है वह है समकालीन वाम-जनवादी कविताओं के चयन को लेकर जिस साफ़गोई और ईमानदारी से यह स्वीकार किया गया है कि—“सामान्य तौर पर हमने जनवादी, प्रगतिशील और वाम धारा की कविताओं का एक चयन प्रस्तुत करने की कोशिश की है, हालाँकि हम इस तथ्य से वाक़िफ़ हैं कि कुछ कवियों की कुछ कविताओं में समग्रता में जनपक्षधरता के बावजूद 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्स', सबआल्टर्न इतिहास दृष्टि और लोकवाद (पॉपुलिज़्म) जैसे विचारधारात्मक विचलनों की छाप या छाया मौजूद है। इसका मूल कारण यह है कि हिंदी के जनपक्षधर कवियों की प्रतिबद्धता भी ज़्यादातर मामलों में भावनात्मक और अनुभवप्रसूत हुआ करती है। दर्शन, विचारधारा और राजनीति का गहन-गंभीर अध्ययन बहुत कम कवि करते हैं।” यह बेहद महत्त्वपूर्ण पर्यवेक्षण (ऑबज़र्वेशन) है। निष्कर्षात्मक रूप से यह भी बता दिया कि—प्रगतिशील हिंदी कविता के वैचारिक पक्ष की दुर्बलता अपने आप में एक गंभीर समस्या है और यह अक्सर सौंदर्यात्मक-रूपगत दुर्बलता को भी जन्म देती है। 

समकालीन वाम हिंदी कविता का पूरा परिदृश्य यहाँ स्वाभाविक रूप में स्पष्ट हो जाता है। उसकी कमज़ोरी हमारी समझ में आ जाती है। तो अब आवश्यकता इस बात की है कि इन बातों की कसौटी पर, इन कवियों और कविताओं को कसा जाए। प्रत्येक कवि और उसकी कविताओं पर इस दृष्टि से सहज, सकारात्मक, विश्लेषणात्मक और आलोचनात्मक बात की जाए ताकि कवि स्वयं भी यह जान सके कि वह किस खाँचे में फ़िट है, कितने पानी में है। अपने को, अपनी सृजनात्मकता को और अधिक निखारने के लिए वह क्या कर रहा है और उसे क्या करना चाहिए। यह रचनात्मक दृष्टिकोण है। विडंबना यह है कि हिंदी का कवि अपनी आलोचना बिलकुल भी पसंद नहीं करता। आइडेंटिटी पॉलिटिक्स और लोकवाद तथा विचलन (अवसरवाद) उसे बेहद लुभाते हैं। वह अपने आप पर मुग्ध रहता है। अपवाद ज़रूर होंगे। तो ऐसे में क्या इस महत्त्वपूर्ण आयोजन में शरीक होने वाले हर युवा, प्रौढ़, वरिष्ठ कवि का यह दायित्व नहीं बनता कि वह स्वयं अपनी कविताओं और अपने व्यक्तित्व को उक्त संपादकीय कसौटी पर कसे (वरिष्ठों का रोग अधिक संक्रामक होता है)। तभी इस संकलन में शामिल होने की वास्तविक सार्थकता है। बजाय यह बताने के कि मैं इसमें शामिल हूँ और मेरी इतनी कविताएँ शामिल हैं। आत्मलोचना बहुत महत्त्वपूर्ण है। असल परिष्कार इसी तरह घटित होता है। 

इस अंक में भारतीय उपमहाद्वीप की अन्य भाषाओं यथा उर्दू, बाँग्ला, अंग्रेज़ी, मराठी, पंजाबी, असमियाँ के अलावा मियाँ, रोहिंग्या, डोगरी, नेपाली, श्रीलंकाई कविताएँ शामिल की गई हैं। एशिया महाद्वीप के अन्य देशों-चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, म्यांमार तथा इंडोनेशिया के कवियों को भी शामिल किया गया है। तुर्की, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान एवं कुछ अन्य अरब देशों के कवियों की कविताएँ भी शामिल हैं। अमेरिकी और अफ़्रीकी कविताएँ भी हैं। कविताओं के अतिरिक्त वैचारिक आलेख, कहानियाँ, व्‍यंग्‍य और समीक्षाएँ भी ली गई हैं। यह सब संकलित, संयोजित और संपादित करने में जो समय और श्रम लगा होगा वह अवश्य ही इस महाग्रंथ को सार्थकता प्रदान करता है। यह एक व्यक्ति के साथ संगठन का काम है, टीम वर्क भी है। काम बड़ा है, महत्त्वपूर्ण है, सार्थक है। कमियाँं हर काम में होती हैं लेकिन मेरा अभीष्ट उद्देश्य की स्पष्टता और पूर्ति तक ही सीमित है जिसपर यह कार्य निश्चित तौर पर खरा उतरता है। 
फ़िलहाल इतना ही। 

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