क्रिकेट का क्रेज़

15-01-2024

क्रिकेट का क्रेज़

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 245, जनवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

हर गली कूचे, सड़क और पार्क में
छुट्‍टी के दिन दिख जाएँगे बच्चे खेलते हुए क्रिकेट
हो गया है यह हमारा राष्ट्रीय खेल
भूल गये हैं अब हॉकी
मेजर ध्यानचंद के बाद कौन, पता नहीं
एथलेटिक्स, कुश्ती, कबड्डी, खो-खो
गिल्ली डंडा, गेंद-गड्ढा, लट्टू, कंचे, अष्टा-चंगा, सातोलिया
घुलमिल गया है क्रिकेट हमारे जीन्स में
हो जैसे पारंपिक और सांस्कृतिक कर्म
 
लाख कोसिए, कहते रहिए औपनिवेशिक मानसिकता
पूँजीवादी और वित्तपोषित उपक्रम
उन्माद, मीडिया का व्यापार
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा इसके आकर्षण पर
 
बड़े शहरों की पॉश कॉलोनियों को छोड़
उपनगरों, क़स्बों, गाँवों में दिखेंगे बच्चे खेलते क्रिकेट
पत्थरों से ईंटों से, लकड़ियों से बनाकर स्टंप
 
और कुछ नहीं तो पेड़ या खंभे या किसी ओट को मानकर
खड़े हो जाते आगे मुस्तैद
फेंकी हुई बॉल से मुठभेड़ करते
देखते बनता उत्साह
बच्चे हैं तो खेलना तो रुचेगा ही
मज़ा आता है बहुत
तुलना करता हूँ अपने बचपन से
 
नहीं होता था टीवी
रेडियो से प्रसारित होती कमेंट्री
पान की दुकानों, छोटी गुमटियों, 
चौराहों पर कमेंट्री सुनने को आतुर खड़े होते लोग
स्कोर जानने को उत्सुक
पाँच दिनों का टेस्ट मैच
टुक-टुक करते बल्लेबाज़
बनी रहती उत्सुकता हर पल
 
दफ़्तरों में होता फ़ुरसत का माहौल
पाँचों दिन
नहीं होता था वन डे, टी-20 या आईपीएल
काउंटी मैच होते थे ब्रिटेन में
उसी तर्ज़ पर विकसित हुआ आईपीएल
पटौदी, वाडेकर, गावस्कर, विश्वनाथ, चंद्रशेखर, 
बेदी, प्रसन्ना, सोलकर ज़बान पर होते थे लोगों के
बदल गई हैं अब तक कई पीढ़ियाँ
 
स्कूलों में खेलों के नामपर दौड़, कूद, कुश्ती, एथलेटिक्स
वॉलीबॉल, फ़ुट्बाल, हॉकी, बैडमिंटन, टेबल टेनिस
जैसा जो कुछ उपलब्ध होता सुविधानुसार
क्रिकेट भी होती थी किसी किसी स्कूल में
ख़रीद ली गई होती थी जहाँ किट
 
तब भी सड़कों, गलियों, पार्कों, 
ख़ाली मैदानों में हम खेल लेते थे क्रिकेट
लकड़ी या ईंटों से स्टंप बनाकर
अपनी जैसी दूसरी टीमों से होते थे मैच
खेलना कूदना माना जाता था स्वास्थ्य के लिए आवश्यक
 
बेशक पढ़ाकू बच्चे नहीं आते थे खेलने
रोकते थे उनके माँ-बाप
अब भी काम्पटीशन की ख़्वाहिश वाले नहीं खेलते हैं खेल
बहुत से बच्चे मैदान पर न जाकर खेल लेते हैं इंटरनेट पर
धनिकों के पास बढ़ा है धन
उपलब्ध हैं उनके लिए वीडियो, थ्री डी गेम्स
अधिकांश जन आज भी हैं विपन्न
 
बीता है समय गुज़र गई आधी शती
बदली है महज़ टेक्नॉलोजी
नहीं बदले हैं बच्चों के मन
उनका उत्साह और रुचि

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
साहित्यिक आलेख
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
आप-बीती
यात्रा-संस्मरण
स्मृति लेख
ऐतिहासिक
सामाजिक आलेख
कहानी
काम की बात
पुस्तक समीक्षा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें