श्याम बेनेगल

01-01-2025

श्याम बेनेगल

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 268, जनवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)



श्याम बेनेगल की फ़िल्में मनुष्यता को अपने मूल स्वरूप में तलाशती हैं

 

श्याम बेनेगल (जन्म: 14 दिसंबर, 1934, मृत्यु: 23 दिसंबर 2024, त्रिमुलघेरी, सिकंदराबाद, हैदराबाद, तेलंगाना) ग़ैर-मुख्यधारा हिंदी सिनेमा के एक प्रमुख भारतीय निर्देशक और इसके सबसे सफल फ़िल्म निर्माताओं में से एक हैं। उन्हें यथार्थवादी और मुद्दा-आधारित फ़िल्म निर्माण के आंदोलन का संस्थापक माना जाता है जिसे न्यू इंडियन सिनेमा, न्यू वेव इंडियन सिनेमा या न्यू इंडियन सिनेमा के नाम से जाना जाता है। 

बेनेगल के पिता एक पेशेवर फोटोग्राफर थे जो मूल रूप से कर्नाटक से थे, और, परिणामस्वरूप, बेनेगल ज़्यादातर कोंकणी और अंग्रेज़ी बोलने और दृश्य कला की सराहना के साथ बड़े हुए। वह फ़िल्म निर्माता गुरु दत्त के चचेरे भाई और बंगाली फ़िल्म निर्माता सत्यजीत रे के शुरूआती प्रशंसक थे। बेनेगल ने निज़ाम कॉलेज से अर्थशास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त की—हैदराबाद, आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना), भारत में उस्मानिया विश्वविद्यालय का एक घटक कॉलेज—जहाँ उन्होंने एक फ़िल्म सोसायटी शुरू की। उन्होंने अपना पेशेवर जीवन बॉम्बे (अब मुंबई) में एक विज्ञापन एजेंसी में काम करके शुरू किया; उन्होंने एक कॉपीराइटर के रूप में शुरूआत की और जल्द ही फ़िल्म निर्माता बन गए। उस पद पर उन्होंने 900 से अधिक वाणिज्यिक और विज्ञापन फ़िल्में और 11 कॉर्पोरेट फ़िल्में और साथ ही कई वृत्तचित्र बनाए। 

बेनेगल की पहली फ़ीचर फ़िल्म की व्यावसायिक सफलता, अंकुर (1974; “द सीडलिंग”), ग्रामीण आंध्र प्रदेश में जाति संघर्ष के बारे में एक यथार्थवादी नाटक, समानांतर सिनेमा आंदोलन के युग का प्रतीक है। रे द्वारा शुरू किए गए इस आंदोलन को भारतीय फ़िल्म निर्माता मृणाल सेन के रूप में एक प्रमुख समर्थक मिला, जिनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म, भुवन शोम (1969), समानांतर सिनेमा के शुरूआती उदाहरणों में से एक है। अंकुर की तरह, जिसने अभिनेत्री शबाना आज़मी (कवि और गीतकार कैफ़ी आज़मी की बेटी) को पेश किया, बेनेगल की अन्य शुरूआती फ़िल्मों—जिनमें निशांत (1975; “नाइट्स एंड“), मंथन (1976; “द मंथन“), और भूमिका (1977; “द रोल“) शामिल हैं—ने भारतीय सिनेमा को इसके कुछ सबसे कुशल अभिनेता दिए, उनमें नसीरुद्दीन शाह और स्मिता पाटिल शामिल हैं। 

ग्रामीण परिवेश से आगे बढ़ते हुए, बेनेगल ने फ़िल्मों में नाटकीय शहरी विषयों की खोज की: कलयुग (1981; “द मशीन एज“) जो महाभारत की एक आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष व्याख्या है; जुनून (1979; “द ऑब्सेशन“) जो ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ भारतीय विद्रोह की शुरूआत में 1857 में सेट है; मंडी (1983; “द मार्केटप्लेस“) जो एक वेश्यालय, उसके आगंतुकों और उसके निवासियों के बारे में है; और त्रिकाल (1985; “अतीत, वर्तमान और भविष्य”) जो 1960 के दशक के पुर्तगाली शासित गोवा में सेट है। 1980 के दशक में, रे (1982) और स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू (1983) पर प्रशंसित वृत्तचित्र बनाने के अलावा, बेनेगल ने दूरदर्शन के लिए, जो भारत सरकार का एक टेलीविज़न मीडिया आउटलेट है, कई टेलीविज़न धारावाहिक बनाए, जिनमें यात्रा (1986; “जर्नी”), कथा सागर (1986; “सी ऑफ़ स्टोरीज़”) और 53-भागों वाला भारत एक खोज (1988; “डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया”) शामिल हैं। वह अंतरनाद (1991; “इनर वॉयस”) के साथ बड़े पर्दे पर लौटे। 

इस विलक्षण फ़िल्मकार की अद्वितीय रचनाशैली का चमत्कार था कि उनके आलोचक भी उनकी प्रतिभा के क़ायल हुए बिना नहीं रह पाए। 

स्वर्गीय इंदिरा गाँधी ने श्याम बेनेगल के बारे में कहा था कि उनकी फ़िल्में मनुष्य की मनुष्यता को अपने मूल स्वरूप में तलाशती हैं। इस प्रतिक्रिया का आधार था एक वृत्तचित्र—नेहरू। इसके निर्देशक थे श्याम बेनेगल। मज़े की बात है कि इन्हीं बेनेगल ने आपातकाल के दौरान श्रीमती गाँधी की नीतियों की तीखी आलोचना की थी। 

श्याम बेनेगल की फ़िल्में अपने राजनीतिक-सामाजिक वक्तव्य के लिए जानी जाती हैं। श्याम के शब्दों में “राजनीतिक सिनेमा तभी पनप सकता है, जब समाज इसके लिए माँग करे। मैं नहीं मानता कि फ़िल्में सामाजिक-स्तर पर कोई बहुत बड़ा बदलाव ला सकती हैं, मगर उनमें गंभीर रूप से सामाजिक चेतना जगाने की क्षमता ज़रूर मौजूद है।”

श्याम अपनी फ़िल्मों से यही करते आए हैं। अंकुर/ मंथन/ निशांत/ आरोहण/ सुस्मन/ हरी-भरी/ समर जैसी फ़िल्मों से वे निरंतर समाज की सोई चेतना को जगाने की कोशिश करते रहे। भारत में वे समानांतर सिनेमा के प्रवर्तकों में से एक हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें नई धारा के सिनेमा का ध्वजवाहक माना जाता है। 

सत्यजीत राय के अवसान के पश्चात श्याम ने उनकी विरासत को सँभाला और इसे समकालीन संदर्भ प्रदान किए। वे कहते हैं, “समूचा हिंदुस्तानी सिनेमा दो हिस्सों में किया जा सकता है। एक: सत्यजीत राय से पूर्व और दो: राय के पश्चात।” यदि ऐसा है तो राय के बाद भारतीय सार्थक सिनेमा की धुरी पूरी तरह बेनेगल के इर्द-गिर्द घूमती है। 

आज़ादी के बाद भारत में सिनेमा का विकास एकीकृत रूप से सामूहिक स्तर पर हुआ, मगर सत्तर और अस्सी के दशक में दो सिनेमाधाराएँ देखने को मिलीं। व्यावसायिक सिनेमा के समानांतर एक ऐसे सिने आंदोलन ने जन्म लिया, जिसमें मनोरंजन के चिर-परिचित फ़ॉरमूले नहीं थे। इस नई धारा के फ़िल्मकारों ने सिनेमा को जनचेतना का माध्यम मानते हुए  फ़िल्मों का निर्माण किया। श्याम बेनेगल उन फ़िल्मकारों के पथ-प्रदर्शक बनकर उभरे, जो फ़िल्मों को महज़ मनोरंजन का माध्यम नहीं मानते थे। 

1974 में उन्होंने ‘अंकुर’ जैसी युग प्रवर्तक फ़िल्म बनाकर एक प्रकार से सिनेकर्म को नई शक्ल दी। महान फ़िल्मकार सत्यजीत राय से प्रभावित होने के बावजूद श्याम ने अपनी फ़िल्म को महज़ कलाकृति तक सीमित नहीं रखा, वरन्‌ उसे एक राजनीतिक-सामाजिक वक्तव्य की शक्ल देने की कोशिश की। ‘अंकुर’ सिनेकर्म की दृष्टि से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचना थी। बर्लिन फ़िल्मोत्सव में पुरस्कृत और ऑस्कर के लिए प्रविष्टि के बतौर चुनी गई इस फ़िल्म के बारे में समीक्षकों ने खुलकर चर्चा की। 

ख्यात फ़िल्म विश्लेषिका अरुणा वासुदेव के अनुसार, “फ़िल्म निर्माताओं और दर्शकों में तकनीक और सिनेमाई समझ दोनों ही स्तर पर अनगढ़ता का माहौल था। ‘अंकुर’ ने इन्हें सुस्पष्ट कर नूतन आकार सौंपा।” प्रयोगधर्मिता की धुरी पर ‘अंकुर’ सही अर्थ में नई धारा की सूत्रवाहक सिद्ध हुई। इसके साथ ही श्याम बेनेगल के रूप में भारतीय सिनेमा के एक नए अध्याय का भी सूत्रपात हुआ। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सिनेमा और साहित्य
कविता
साहित्यिक आलेख
सामाजिक आलेख
पुस्तक चर्चा
पुस्तक समीक्षा
ऐतिहासिक
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
आप-बीती
यात्रा-संस्मरण
स्मृति लेख
कहानी
काम की बात
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें