हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता और प्रतिरोध 

15-05-2025

हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता और प्रतिरोध 

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

जैसाकि विदित है हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में भारतेंदु युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेंदु की “हरिश्चंद्र मैगजीन” थी और दूसरी ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त “सरस्वती।” 

उन्नीसवीं शताब्दी के इन 27 वर्षों का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी। “कविवचनसुधा” (1867), “हरिश्चंद्र मैगजीन” (1874), “श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका” (1874), “बालाबोधिनी” (स्त्रीजन की पत्रिका, 1874) के रूप में भारतेंदु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीका-टिप्पणियों से अधिकारी तक घबराते थे और “कविवचनसुधा” के “पंच” पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेंदु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। “हिंदी प्रदीप”, “भारतजीवन” आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे। 

भारतेंदु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्मा, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी “प्रेमधन” (आनंद कादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेंदु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं। रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891), और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894)। 1895 ई. में “नागरीप्रचारिणी पत्रिका” का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्य समीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में “सरस्वती” और “सुदर्शन” के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है। 

इन 27 वर्षों में हमारी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेंदु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही “बालाबोधिनी” (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं, “भारतभगिनी” (हरदेवी, 1888), “सुगृहिणी” (हेमंतकुमारी, 1889)। 

आज वही पत्र हमारी इतिहास-चेतना में विशेष महत्त्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से “हिंदी प्रदीप” (1877), ब्राह्मण (1883), क्षत्रिय पत्रिका (1880), आनंद कादंबिनी (1881), भारतेंदु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894), और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्त्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फ़ाइलों से उद्धार नहीं कर सके। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानंद मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की क़लम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही। 

बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेज़ी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाज सुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलतः अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित “सरस्वती” (1903-1918) का नेतृत्व रहा। वस्तुतः इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए: जैसे उपन्यास 1901, हिंदी नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 19012। केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में “समालोचक” (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित “इतिहास” (1905) का प्रकाशन भी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं। परन्तु सरस्वती ने “मिस्लेनी” के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे “भारतेंदु” (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बाँकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिला मिहिर (1910) और इंदु (1909)।”सरस्वती” और “इंदु” दोनों हमारी साहित्य-चेतना के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं। ”सरस्वती” के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और “इंदु” के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हमारी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ। 

आधुनिक युग (1921) के बाद हिंदी पत्रकारिता का काल आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक सामने आए जो अंग्रेज़ी की पत्रकारिता से पूर्णतः परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेज़ी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे। फलतः साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्त्व पाने लगे। 1921 के बाद गाँधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुँच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्त्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए नए क़ानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परन्तु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हमारे पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी। 
1921 के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा, चाँद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशालभारत (1928), त्यागभूमि (1928), हंस (1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश (1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवनसाहित्य (1940), विश्वभारती (1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945), हिमालय (1946) आदि। वास्तव में हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आई और अनेक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। हमारे मासिक पत्र जीवन और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते रहे हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी ध्यान जाने लगा है। साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। वहाँ हमें साहित्य का सक्रिय, सप्राण, गतिशील रूप प्राप्त होता है। 

राजनीतिक क्षेत्र में इस युग में जिन पत्र-पत्रिकाओं की धूम रही वे हैं: कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925), हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929), सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932), विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत (1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति (1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943), लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942), और सन्मार्ग (1943), जनवार्ता (1972) इनमें से अधिकांश साप्ताहिक हैं, परन्तु जनमन के निर्माण में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का सम्बन्ध है वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चौथे युग के पत्रों में धरती और आकाश का अंतर है। एक समय तक पत्र-संपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला रही। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में “आज” (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि “आज” ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान् संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्रसंपादक और पत्रकार दिए हैं। 

आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हमारी पत्रकारिता भी नई कोटि की है और उसमें भी मुख्यतः हमारे मध्यवित्त वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिंब भास्वर है। वास्तव में पिछले 140 वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्र-पत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बँगला के “कलेर कथा” ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है। हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। द्विवेदी युग के साहित्य को हम “सरस्वती” और “इंदु” में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं, वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ पत्रपत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परन्तु फिर भी विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्रपत्रिकाएँ हैं ही। 

हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का लंबा और समृद्घ इतिहास रहा है। दरअसल हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरूआत छठे दशक में व्यावसायिक पत्रिका के जवाब के रूप में की गई। इस आंदोलन का श्रेय हम हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णुचंद्र शर्मा को दे सकते हैं। उन्होंने 1957 में बनारस से कवि का संपादन-प्रकाशन शुरू किया था। कालांतर में और भी कई लघु पत्रिकाएँ व्यक्तिगत प्रयासों और प्रकाशन संस्थानों से निकली, जिसने हिंदी साहित्य की तमाम विधाओं को न केवल समृद्ध किया, बल्कि उसका विकास भी किया। 

बेनेट कोलमैन एंड कम्पनी तथा हिन्दुस्तान टाइम्स लिमिटेड की पत्रिकाओं: धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बनी, दिनमान, और माधुरी जैसी बड़ी पूँजी से निकलने वाली पत्रिकाओं के मुक़ाबले अणिमा, कहानी, नई कहानियाँ, कल्पना, लहर, वातायन, बिन्दु, क्यों, तटस्थ, वाम, उत्तरार्ध, आरम्भ, ध्वज भंग, सिर्फ़, हाथ, कथा, आलोचना, कृति, क ख ग, माध्यम, ऐसी पत्रिकाएँ, बड़े प्रतिष्ठानों से नहीं, बल्कि लेखकों के व्यक्तिगत, निजी प्रयत्नों से छोटे पैमाने पर निकलीं। उस वक़्त ऐसी पत्रिकाओं की जैसे झड़ी ही लग गई: समझ, आवेग, सनीचर, अकविता, आकंठ, इबारत, जारी, ज़मीन, आईना, कंक, अब, आमुख, तेवर, धरातल, आवेश, आवेग, धरती, वयं, संबोधन, ओर, संप्रेषण जैसी पत्रिकायें निकलीं जो सीमित संसाधनों, व्यक्तिगत प्रयासों या लेखक संगठनों की देन थीं। इन पत्रिकाओं का मुख्य स्वर साम्राज्यवाद विरोध था और ये शोषण, धार्मिक कठमुल्लापन, लैंगिक असमानता, जैसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध खड़ी दिखायी देती थीं। एक समय तो ऐसा भी आया जब मुख्य धारा के बहुत से लेखकों ने पारिश्रमिक का मोह छोड़कर बड़ी पत्रिकाओं के लिये लिखना बन्द कर दिया और वे केवल इन लघुपत्रिकाओं के लिये ही लिखते रहे। 

लघु पत्रिका (लिटिल मैग्ज़ीन) आन्दोलन मुख्य रूप से पश्चिम में प्रतिरोध (प्रोटेस्ट) के औज़ार के रूप में शुरू हुआ था। यह प्रतिरोध राज्य सत्ता, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद या धार्मिक वर्चस्ववाद—किसी के भी विरुद्ध हो सकता था। लिटिल मैग्ज़ीन आन्दोलन की विशेषता उससे जुड़े लोगों की प्रतिबद्धता तथा सीमित आर्थिक संसाधनों में तलाशी जा सकती थी। अक्सर बिना किसी बड़े औद्योगिक घराने की मदद लिये बिना, किसी व्यक्तिगत अथवा छोटे सामूहिक प्रयासों के परिणाम स्वरूप निकलने वाली ये पत्रिकायें अपने समय के महत्त्वपूर्ण लेखकों को छापतीं रही हैं। भारत में भी सामाजिक चेतना के बढ़ने के साथ-साथ बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लघु पत्रिकायें प्रारम्भ हुयीं। 1950 से लेकर 1980 तक का दौर हिन्दी की लघु पत्रिकाओं के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा। यह वह दौर था जब नई-नई मिली आज़ादी से मोह भंग शुरू हुआ था और बहुत बड़ी संख्या में लोग विश्वास करने लगे थे कि बेहतर समाज बनाने में साहित्य की निर्णायक भूमिका हो सकती है। 

एक दौर ऐसा भी आया जब बड़े घरानों की पत्रिकाओं में छपना शर्म की बात समझा जाता था और लघुपत्रिकाओं में छपने का मतलब साहित्यिक समाज की स्वीकृति की गारंटी होता था। इन्होंने रचनाशीलता का एक अलग ही माहौल बनाया। इनमें से ज़्यादातर में दृष्टि थी, रचना-विवेक था और इन्हें लेखकों का अकुण्ठित सहयोग प्राप्त था। लघुपत्रिकाएँ घटनाओं की जड़ तक पहुँचकर सच्चाई को उजागर करने का काम कर रही थीं। इनसे एक ओर जहाँ नवलेखन पल्लवित होता है, वहीं सामान्यजन की आशा-आकांक्षओं को अभिव्यक्ति मिलती है। लोग पारिश्रमिक देने वाली और लेखक को स्टार बनाने वाली पत्रिकाओं में छपने की जगह इनमें छपना गौरव की बात समझते थे। 

सारी बड़ी बहसें इन्हें छोटी पत्रिकाओं में चली हैं। आज जो भी लिखा जा रहा है उसके प्रकाशन का मंच यही पत्रिकाएँ हैं। 

21वीं सदी में मुख्यधारा की पत्रिकाएँ व अख़बार, कॉर्पोरेट जगत व सम्राज्यवादी ताक़तों के प्रभाव में समाहित हो चुके हैं। इस वजह से देश के चौथे स्तंभ के प्रति पाठकों में संशय उत्पन्न होता जा रहा है। कुछ लोगों ने हर काल में पत्रकारिता को अपने अनुसार परिभाषित करने या संचालित करने की कोशिश की है लेकिन कुछ पत्रकारों ने अपनी साख बचाने के लिए सत्ता-शीर्ष से कभी समझौता नहीं किया। पत्रकारिता पर सत्ता का दबाव कल भी था और आज भी है। 

पत्रकारिता यदि जनसरोकार से जुड़ी हो तो उसे कोई चाह कर भी दबा नहीं सकता लेकिन आज स्थिति चिंताजनक है। पत्रकारिता को तहस-नहस करने की सुनियोजित कोशिश चल रही है। बहुत हद तक यह हुआ है। मुख्यधारा की पत्रकारिता अनर्गल प्रलाप बन चुकी है। ऐसे में वैकल्पिक उपाय खोजने होंगे। आज सोशल मीडिया का बड़ा नेटवर्क है लेकिन वह जनसरोकारों से पूरी तरह लैस नहीं है। 

ऐसी स्थिति में लघु पत्रिकाओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। लघुपत्रिकाएँ पिछलग्गू विमर्श का मंच नहीं हैं। लघु पत्रिका का चरित्र सत्ता के चरित्र से भिन्न होता है, ये पत्रिकाएँ मौलिक सृजन का मंच हैं। आज नैतिक पतन के दौर में लघु पत्रिकाओं की भूमिकाएँ और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। रचनाकार वैचारिक लेखन से दूर होते जा रहे हैं, जो समाज के लिए चिंता का विषय है। साम्प्रदायिकता का सवाल हो या धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न हो अथवा ग्लोबलाईज़ेशन का प्रश्न हो हमारी व्यावसायिक पत्रिकाएँ सत्ता विमर्श को ही परोसती रही हैं। सत्ता विमर्श व उसके पिछलग्गूपन से इतर लघु पत्रिकाएँ अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता, संघर्षशीलता व सकारात्मक सृजनशीलता की पक्षधर हैं। यह समय है जब लघु पत्रिकाओं में भी बदलाव दिखता है। वाम-जनवादी दिशा और तेवर की जगह अस्मिता विमर्श, सांप्रदायिकता का सवाल, उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद आदि लेता है। विचार की जगह बाज़ार प्रधानता ग्रहण करता है। पद, प्रतिष्ठा, सम्मान, पुरस्कारों आदि की ऐसी नक़ली होड़ शुरू हुई जिसने मध्यवर्गीय महत्वाकांक्षा, व्यक्तिवाद, अवसरवाद जैसी पराई प्रवृत्तियों को बढ़ाने का काम किया। वस्तुपरकता का पहलू कमज़ोर हुआ। रचनाकारों में आत्मपरकता, आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा, आत्मप्रचार बढ़ा। इस दौर की अधिकांश पत्रिकाएँ व्यक्तिगत प्रयासों से निकली हैं/निकल रही हैं। सामूहिकता की भावना यानी जनवाद का पक्ष कमज़ोर हुआ है। 

अधिकांश लोग लघुपत्रिका प्रकाशन की कठिनाइयों को नहीं समझते हैं। उनकी समझ स्टीरियो टाइप होती है। उनके सामने एक उत्पाद भर होता है यह सब, जैसे कि कोई व्यवसायिक उत्पाद होता है। दोनों में अंतर करने की दृष्टि और क्षमता वहाँ नहीं दिखती। संवेदनशीलता की कमी भी झलकती है। हिंदी में ऐसे पाठकों की कमी है जो पत्रिका ख़रीदने को नैतिक दायित्व समझते हों। बड़े-बड़े साहित्यकार और हिंदी के अधिकांश प्राध्यापक पत्रिका ख़रीदना अपनी तौहीन मानते हैं। 

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