तुरपाई
वीणा विज ’उदित’सर्द झोंकों से बचने के लिए बदन पर चीड़ के पेड़ों की छाल लपेटे ‘पाइन लॉज’ पहलगाम से चंदनवाड़ी जाते हुए जो पहला पुल लिदर दरिया पर आता है, उसके दाईं ओर स्थित है। चारों ओर बिखरी हरियाली के विभिन्न शेड्स से भी चटकीला हर रंग है उसकी छतों का। डबल-स्टोरी बिल्डिंग -जिसके पाँच कमरे नीचे एक ही कतार में, और पाँच ही ऊपर हैं। लॉज के दूर तक फैले घास के मैदान उत्तर की ओर जा तिकोन हो जाते हैं। पूर्व की ओर सीधे खड़े पहाड़ की तराई से होते हुए उत्तर में ये ढेरों अखरोट के पेड़ दामन में समेटे, ऊबड़-खाबड़ धरातल बनाते हुए शेषनाग झील से आती बर्फ़ीली वेगवती धारा जो अबशार बनी पर्वतों से धरा पर उतर रही है, उस तक जाकर समाप्त हो जाती है —एक स्वर्गिक आभा और अनुपम सौन्दर्य का एहसास जगाते हुए। मध्य में लॉज से तक़रीबन बीस क़दमों की दूरी पर सेब के बड़े-बड़े पेड़; जो कि सेबों से लदे हुए हैं। उन पर झूले डले हुए हैं। बरबस ही राह चलतों का ध्यान उस ओर खिंचता है। सैलानीगण सेबों के साथ फोटो खिंचवाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं। अंततः चौकीदार से पूछकर कई लोग भीतर आ फोटो खिंचवाते, सेबों का स्वाद चखते व उन पर पड़े झूलों पर झूल भी जाते हैं। उनके खिले चेहरे इस बात की गवाही देते हैं कि उनका कश्मीर आना अब सार्थक हो गया है। यही मेन रोड का आख़िरी बड़ा गेट और साथ ही लगता छोटा गेट है।(—जिससे वो आती -जाती थी, चौकीदार से बिन पूछे)।
इन्हीं सेब के पेड़ों से छनती आती धूप के नीचे पलंग डलवाकर कोई न कोई पुस्तक पढ़ना मेरी दिनचर्या में मौसम के अनुकूल शामिल है। हल्की सी मीठी थपकी देती बयार कभी-कभी मुझे नींद की आग़ोश में भी ले जाती है। कभी कोई पक्षी चोंच मारकर सेब गिराता है मुझ पर, तो चौंक कर उठकर बैठ जाती हूँ। तो कभी तेज़ हवा के झोंकों से पत्तों की सरसराहट, उनका नृत्य करना मुझे मुग्ध किए रहता है। कभी पहाड़ों की गोद में अठखेलियाँ करते बादल। लेकिन इधर कुछ दिनों से एक बकरवाल (गुज्जर) लड़की, गोद में नन्हा बच्चा उठाए चुपचाप चौकीदार से पूछे बिना छोटे गेट से भीतर आ उत्तर की ओर नदी की ढाल बने पत्थरों पर आकर बैठ जाती है। मैं पढ़ती या कुछ लिखती उसे कनखियों से देख लेती हूँ। कभी वो बच्चे को घुटनों पर बैठाकर खेलती, कभी अपनी छाती से लगा उसकी भूख मिटाती तो कभी दोनों वहीं घास पर लिपटकर कुछ घड़ी की झपकी ले लेते। मैं देखकर भी अनदेखा कर देती हूँ। लगता, वह चैन से कुछ घड़ियाँ अपने बच्चे के साथ जी रही है –यह उसका अधिकार है। शायद -एक नारी का दूसरी नारी के प्रति यह सहज भाव है!
उस दिन मैं Paulo Coelho की “The Alchemist” बड़ी तल्लीनता से पढ़ रही थी, कि लगा मेरे क़रीब कोई है। नज़रें ऊपर उठाईं तो वही बकरवाल लड़की बच्चा उठाए कह रही थीः “बीबी! अज मैं खान नूँ कुज नईं लयाई, कुज खान नूँ दे दे। बड़ी पुक्ख लग्गी ए“(आज मैं खाने को कुछ नहीं लाई, कुछ खाने को दे दे, बड़ी भूख लगी है)। देखती हूँ- एक पीला ज़र्द चेहरा मेरे सम्मुख है, जैसे उस चेहरे पर सदा से कोई पीड़ा अपना आधिपत्य जमाए हुए हो। उसे बैठने को कह मैंने नौकर से खाना मँगवाया। खाना लेकर वो वहीं पत्थरों पर चली गई। खाना खाकर वहीं पास बहते दरिया से बर्तन धोकर, मेरे पास पड़े मेज पर रखकर; वहीं मेरे पायताने ज़मीन पर बैठकर मुझे निहारने लग गई।
लगा, उसमें मुझसे बात करने की ललक उठी थी क्योंकि हमारे बीच प्रतिदिन न बात करते हुए भी शायद भीतर ही भीतर एक निस्पंद संवाद चल रहा था। जिससे एक अपनत्व बन गया था, हम दो अजनबियों के बीच। सब समझते हुए भी मैंने उसे अनदेखा करते हुए पढ़ने का उपक्रम किया।
“बीबी! ऐ जगह तेरी ए?”–मैंने ‘हाँ’ में सिर हिला दिया उसे बिन देखे ही। पुनः बोलीः “बच्चे नईं ने?” (बच्चे नहीं हैं क्या?) इस पर मैंने किताब से नज़रें हटा ही लीं, और जवाब दिया कि वे ब्याहे गए हैं। अपने-अपने घर हैं। यहाँ हम दोनों और ये सब नौकर हैं। और पूछा, ”तूँ कहाँ से आई है?”
उसने हमारे पूर्व की ओर की पहाड़ी की ओर इशारा कर बताया कि वहाँ ऊपर उनका डेरा है। वे खाना-बदोश हैं, जो भेड़-बकरियों को नई-ताज़ी घास खिलाने के लिए पहाड़ों पर घूमते रहते हैं। पीछे ‘अख़नूर’ से आए हैं। तभी मैंने ग़ौर से पूर्व की झाड़ियों में पहाड़ के दामन में ढेर सारी काली-सफेद भेड़- बकरियाँ घास व नए पत्ते चरते देखीं।
इस पर वह झट बोली, “इन्दी ही राखी कर रईयाँ। परों कोई इक बकरी ही खा गया। पता कि -कोई जनावर सी कि मनुख? हाँ, बकरी दी टँगा दरया ते कुत्ते खाँदे सी,ओई दिखया।” (इनकी ही रखवाली कर रही हूँ। परसों कोई एक बकरी ही खा गया। मालूम नहीं कोई जानवर था कि मनुष्य? हाँ, बकरी की टाँगें नदी किनारे कुत्ते खा रहे थे – यही दिखा।) उसकी बात सुन मैं हैरान कि इस पहाड़न की धारणाएँ कितनी सचेत हैं। इसे भी जानवर और मनुष्य में एक जैसे गुण दिखे, तभी तो दोनों को एक ही तराजू के पलड़ों में तौल रही है। मैंने अफ़सोस जताया जो शायद उसे तसल्लीबख़्श लगा। इसपर वो एकदम से उठी, पीठ पर चुन्नी बाँध कर बच्चे को उसमें डालकर सामने की सीधी पहाड़ी पर टेढ़ी चढ़कर भेड़-बकरियों को ऊपर की ओर हाँककर, वापिस आ छोटे–गेट से बाहर चली गई। मुझे अपने ख़्यालों में उलझाकर—
अगले दिन खाना खाकर किताब हाथ में ले मैं साथ लगते दरिया के बर्फ़ीले पानी में पैर डालकर वहीं पड़े बड़े से पत्थर पर ओशो की पुस्तक को पढ़ने बैठी, तो कुछ देर में ही मेरे पैर ठंड से सुन्न हो गए। पैर पानी से बाहर निकाल मैं किताब बंद कर चट्टानों से टकरा कर चाँदी का रूप धरती जल की धाराओं को निहार रही थी कि लगा कोई मुझे देख रहा है। वही थी, कौतुहलता से भरी दृष्टि मुझ पर गड़ाए हुए। उसे देख मुस्कुराते हुए पत्थरों पर चढ़कर मैं इस पार आ, पत्थर पर बैठ गई। वह वहीं नीचे के पत्थर पर मेरे पास आ बैठी थी। सहज भाव से मैंने पूछा, ”नाम क्या है तेरा?”
बोली, “शबनम”। (नाम मुझे अच्छा लगा)
”मर्द का क्या नाम है? वो कहाँ है? वो क्यों नहीं आता?”
बोली, “नूरा! नूरा आसी न! हुणे ताँ दोए कोड़े लै के ड़ेढ़ मीने लई अमरनाथ गया ए। देहाड़ी दे दो हजार कमाई करसी। परों तो इस वरे ढेर यात्री आया ए। चंगी कमाई हो जासी।” (नूरा! नूरा भी आएगा। अभी तो दोनों घोड़े लेकर डेढ महीने के लिए अमरनाथ गया है। एक दिन के दो हज़ार कमाई करेगा। पिछले वर्ष से इस बार अधिक यात्री आया है। अच्छी कमाई हो जाएगी।)
“फिर घर में कौन-कौन हैं?” -मैने पूछा।
“इत्थे कर विच सौरा ए। देर-दराणी अख़नूर ने। ओत्थे डंगरां नूं ते, नाल मक्की होर जमीन वेखदे ने।” (यहाँ घर में ससुर है। देवर-देवरानी अख़नूर में हैं। वहाँ गाय-भैंस, फसल और ज़मीन की रखवाली करते हैं।)
जो भी था, पर इस लड़की के पास से बाक़ी बकरवालों की तरह भेड़-बकरियों की बदबू नहीं आ रही थी, वह साफ़-सुथरी थी। सो बात हो पा रही थी। लगा, पति की अनुपस्थिति में इसका वक़्त यहाँ गुज़र रहा है- अच्छा ही है। मैं उठकर लॉन की ओर आ गई। वो भी सदा की तरह छोटे-गेट से बाहर ये गई कि वो गई।
एक दिन दोपहर के खाने में राजमा चावल बने तो उसका ख़्याल आ गया। राजू को बोला कि उसके लिए भी रख देगा। आती ही होगी, खा लेगी। अब तो हर दिन मुझे उसका इंतज़ार रहता था। वो आई। उसने चाव से खाना खाया और बर्तन धोकर रख दिए। फिर मेरे पैरों के पास आकर वहीं ज़मीन पर बैठ गई।
“टँगाँ कुहट दयां बीबी?”(टाँगें दबा दूँ बीबी?) बोली।
मैंने ‘ना’ कहते हुए झट से पैर ऊपर पलंग पर कर लिए।
खाने के बदले में शायद वो कुछ करना चाह रही थी। जो मुझे गवारा नहीं था। प्रत्युत्तर में उसके होंठ खुले फिर बंद हो गए। शायद शब्द हलक तक आकर अटके जा रहे थे। उसके चेहरे पे आते-जाते भावों को पढ़कर लगा जैसे उसके भीतर कोई अन्तर्द्वन्द्व चल रहा हो। मैंने पूछ ही लिया, ”कुछ कहना है क्या?”
सारे जिस्म का दर्द अपने चेहरे पे समेट वो आँखों की पोरों से झरने लगी। साथ ही सुबकियाँ लेते हुए मेरे घुटने कस कर पकड़ के वह फट पड़ी लगी, ”मेरा पल्ला ताँ फट के तार-तार हो गया ए बीबी! हुण कौण करसी तुरपाई?”
मैं हैरान-परेशान हो उसका मुँह ताक रही थी। उसके कंधे पकड़ उसे ठीक से बैठाया व पूछा, ”क्यों? क्या हो गया है ऐसा कि तेरा आँचल फट कर तार-तार हो गया है, और तुझे तुरपाई की चिन्ता हो रही है ” साथ ही सोच रही थी कि कैसे मानूँ यह अनपढ़, गँवार है। कितनी सुन्दर व कटु अभिव्यक्ति है इसकी! “बोल न शबनम. . .!” मैंने फिर कहा।
मेरे स्नेहपूर्ण आग्रह से अभिभूत हो वह पिघल उठी। मानो पैर की बवाई फूट रही हो और वह असह्य पीड़ा से छटपटा रही हो। बोली, ”मेरा मर्द घर नई ए, बीबी! तैनूँ दसया सी न! ओदे पिच्छों मेरे सौरे ने मैंनूं जबरदस्ती इस्तेमाल करना शुरू कर दित्ता ए। कैंदा–ओ कित्थे जावे? कर दी ही गल्ल ए तैनूँ कि फ़रक पैसी? तेरे नाल ते मरद ही होसी न, तूँ अक्खाँ नूटी रक्खीं। नूरे दे वापस आण ते मैं कदे तेरे कोल नई आवाँगा। तूँ जुबान बंद रक्खीं। बस चल्लड़ दे।. . . मैं की कराँ बीबी? मेरा पल्ला ते फट गया ए न! छोटी सी ताँ माँ करदी सी तुरपाई, हुण ऐदी तुरपाई कौण करसी? दस्स न बीबी!!!” (बोली, मेरा मर्द घर पर नहीं है, मैंने तुझे बताया था न! उसकी अनुपस्थिति में मेरे ससुर ने मुझे इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। कहता है वो कहाँ जाए ? तुझे क्या फर्क पड़ता है? तेरे साथ तो मर्द ही होगा न! तूँ आँखें बंद रखना। नूरे के वापिस आ जाने पर मैं कभी तेरे नज़दीक नहीं आऊँगा। तूँ अपनी जुबान बंद रखना। तबतक ऐसे ही चलने दे —अब मैं क्या करूँ बीबी ? मेरा आँचल तो फट गया न! छोटी थी तो कपड़े फटने पर माँ सी देती थी, अब किसके पास जाऊँ? बता न कभी हो सकती है इसकी सिलाई? बीबी!!) -इतना कह वह छाती पर मुक्के मारकर विफरने लगी। उस की पीड़ा से तड़प मेरी भी आँखें सजल हो उठी। मेरी आलोड़ित होती संवेदना उसके दर्द की संवेदना से संपृक्त होने को आतुर हो उठी। उसे स्नेह से पकड़कर मैंने अपने पास बैठाया। मैंने हथियार डाल दिए। क्या कहूँ. . .? क्या करूँ. . .? कैसी सलाह दूँ. . .? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। एक ब्याहता अपना सर्वस्व अपने पति को ही मानती है, उसमें किसी और की गुँजाइश ही कहाँ होती है? फिर जो रिश्ते से आदर योग्य, भरोसे योग्य, रक्षक हो वही खेत की बाड़ बनकर खेत को ही खा गया हो तो किससे गिला कीजे? किसका भरोसा कीजे? मुझे लगा जैसे सम्पूर्ण नारी-वर्ग एक संवेदनशील प्राणी न होते हुए एक निर्जीव-वस्तु है, जिसे ज़रूरत पड़ने पर कोई भी इस्तेमाल करे और फिर– छोड़ दे। ऐसे क्रूर सामाजिक यथार्थ के समक्ष हम हार जाते हैं। हमारे हाथ बँध जाते हैं। हम नकारे हो जाते हैं। पुरुष-जाति के प्रति मेरा मन वितृष्णा से भर उठा। कई दम्भी पुरुष सारे नारी-वर्ग के लिए असहिष्णु बने रहते हैं। अपनी बेबसी भरी रातों का दर्द सँभाल वह अपने फटेहाल आँचल को मेरे पास लाकर ‘तुरपाई’ की गुहार लगा रही थी।
मैं उसका पीड़ा से मथित चेहरा पढ़ रही थी। औरत ना होकर जैसे वो एक उतरन बन गई थी। सोच रही थी- इंसान भूखा भेड़िया बन गया है, तभी तो अपनी भूख और हवस मिटाने को वो इतना नीचे गिर पाता है। मैं केवल शबनम का दर्द साँझा कर सकती थी क्योंकि वे अनजान लोग थे। मेरी असमर्थता वो भी समझ रही थी, तभी तो वो अचानक उठ खड़ी हुई, रोज़ की तरह। बच्चे को पीठ पर बाँध, अपनी भेड़-बकरियाँ हाँक फटाफट छोटे-गेट से बाहर चली गई। मानो कुछ हुआ ही ना हो। बस, दिल हल्का कर लिया था उसने, एक नारी की पीड़ा को दूसरी नारी से साँझा करके। मेरी दृष्टि दूर तक उसका पीछा करती रही पर, वो फिर कभी वापिस नहीं आई। मैं हर दिन छोटे-गेट पर नज़र टिकाए उसकी राह तकती थी।
हाँ, कुछ दिनों बाद एक सजीला, गठीला गबरू बकरवाल उन्हीं भेड़-बकरियों को हाँकने छोटे-गेट से भीतर आया। मैं समझ गई यही मेरी शबनम (अपनी लगने लगी थी) का नूरा है। तभी मेरा उद्वेलित मन शान्त हो गया। लगा अब वक़्त के साथ-साथ नूरा कर देगा उसकी ‘तुरपाई’।
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नारी की विवशता को उजागर करती एक बेहतरीन कथा; हृदयस्पर्शी और मार्मिक। लेखिका को हार्दिक बधाई !
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