मोह के धागे

15-01-2020

मोह के धागे

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 148, जनवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

शानी का मन आज किसी भी करवट चैन नहीं पा रहा था। अम्भुज एक हफ़्ते के लिए विदेश चले गए थे और राजू भी आज रात दोस्तों के पास रहने चला गया था। समस्या घिर आई कि घर में पसरे सन्नाटे को वो किस युक्ति से झेले? तो उसे याद आया कि वह कई बार सोचती थी कि कितने ही काम पड़े हैं करने को, कभी ख़ाली समय मिले तो निबटाए। यह ख़्याल आते ही उसने टीवी का स्विच ऑफ़ किया तो लगा उसके नीचे की अलमारी जो काफ़ी सालों से बंद पड़ी थी, उसके भीतर से जैसे खटखटाने की आवाज़ उसे सुनाई दी। मानो इल्तिजा कर रही हो, ”आज मुझे खुली हवा में साँस लेने का मौक़ा दे दो।” शानी ने झट उसके पलड़े खोल दिए। भीतर ढेरों सर्टिफ़िकेट्स, स्कूल-कॉलेज के ज़माने के एलबम्स, सखी-सहेलियों के पत्रों के पुलिन्दे रिबन से बँधे धूल-धूसरित हुए रखे थे। इस धारणा से कि फ़ुर्सत पाते ही कभी-कभी इन मोह के धागों को अपने इर्द-गिर्द फिर से बाँध लिया करेगी। क्या मालूम था कि वक़्त, परिस्थितियाँ और प्रत्याशाएँ इन मोह के धागों का अस्तित्व ही नकार देंगी। सो बरसों से जीवन की आपाधापी में यह वक़्त कभी आया ही नहीं और आज इतने वर्षों पश्चात् उसका मन मचल उठा है कि अब इसे सँवार ही ले। जो लोग अविशिष्ट हो चुके हैं, जिनके सम्बन्धों के तार न जाने कहाँ गुम हो चुके हैं– उनके पत्र अन्तिम बार पढ़ कर उनके मोह के धागे जो कभी उसके मन को बाँधे रखते थे, उनसे सदा के लिए निवृत्ति पा ली जाए। वह देख रही थी कि कुछ के तो परिचय भी यादों की परतों तले दब चुके थे। चेहरे अजनबी और संदर्भ तक विस्मृत थे। स्मृति का धरातल ही मानो बदल चुका था! तब का वक़्त गया सो गया। इस अब के जीवन ने उस वक़्त पर कोहरे का आवरण डाल दिया था। इतना घनत्व था कि कुछ धुँधला भी नहीं दिखाई पड़ रहा था। सो, सुरक्षित रखने जैसा उसमें कुछ बचा ही कहाँ था। उस विशिष्ट काल के सभी अपने प्रिय लोग वक़्त की पगडंडियों से गुज़र कर न जाने कहाँ-कहाँ समाए हुए थे अब!

ख़ैर, शानी ने सारी फ़ाइलें, एलबम्स और पेपरों के ढेर- कुछ बँधे हुए तो कुछ क्लिप में फँसे हुए —सब निकाल कर बाहर अपने पलंग की चादर पर रखे। कुछ रसीदें और नाटक की स्क्रिप्ट्स (जो, मैं स्टेज, रेडियो व टीवी पर करती थी) भी थीं। उन्हें सामने पा अनुभवों के आवेग कुछ पाने को अधीर हो उठे। कहीं कुछ उमड़ता-घुमड़ता अतीत के द्वार पर दस्तक देने लगा। कई कलाकार थे साथ में, न जाने सब कहाँ-कहाँ खो गए थे। सबके मध्य आत्मीयता थी, एक स्वच्छन्द अपनापन। असल में कलाकार सरसता के धरातल पर जीते हैं। इन्हीं भावनाओं में डूबती-उतराती उसके हाथ अपनी शादी से पूर्व की ज़िप वाली डायरी आ गई। सबसे पहले वो उसी को खोल कर बैठ गई। मानो कारू का ख़ज़ाना हाथ लग गया हो। उसमें कॉलेज के ज़माने में पुरस्कार पाती तस्वीरें, एक छोटी सी ऑटोग्राफ बुकलेट और कुछ पत्र सहेज कर रखे हुए थे। उन्हें उठाते ही एक पाँच बाई सात (5″×7″) की फोटो अप्रत्याशित नीचे गिरी, उसकी दुखती रग से उपजती! जिसे देखते ही उसके चेहरे पर अजीब सी चमक ने आधिपत्य जमा लिया। उसे ग़ौर से देख वह सोच के सागर में गोते लगाने लगी कि जब इसे सात पहरों में क़ैद किया था सबकी नज़रों से बचाकर ज़िप में, तब आहों का सर्द मौसम था।

अपराध-बोध तो कभी था ही नहीं। थी तो केवल भाग्य की चपल-चाल! वैभव का होना या न होना जीवन के इस मोड़ पर कोई महत्व नहीं रखता, फिर भी उसने सबसे छिपा कर उसकी तस्वीर अभी तक क्यों सहेज कर रखी है? क्या उसे डर है कि अम्भुज इसे देख लेगा… तो क्या सोचेगा! क्या अभी भी अपने दाम्पत्य जीवन में दरार पड़ जाने का उसे अंदेशा है? यह भी तो हो सकता है कि तब तक उसके मोह के धागों से अभी वो विच्छिन्न नहीं हो पाई थी। सो, कमज़ोर पड़ कर घर के इक कोने में जगह दे दी होगी! वह स्वयं ही इसे कभी देख नहीं पाई तो कोई और कैसे देखता? और आज जब दिख ही गई है तो कितना कुछ तालाब की तलहटी से उठ कर ऊपरी सतह पर दिखाई देने लग गया है। वह स्वयं से साक्षात्कार करने लगी…

अम्भुज के विदेश जाते ही उसने अपने अतीत को कुरेदने का क़दम उठाया! क्या इसीलिए कि वह अपने वर्तमान को चिंदी-चिंदी होता नहीं देखना चाहती थी? मानो इस गोपनीयता को छूने और इसके सान्निध्य में बैठकर इसे दुलारने और मनुहारने के लिए उसे एकान्त की आवश्यकता थी! अब कुछ रातें उसकी अपनी हैं, उन पर कोई जवाबदेही नहीं है। विहान के ख़्याल का आना है कि रैन का बोझिलपन, क्या फ़र्क पड़ता है। उसके अन्तस् में उफनता आवेग सीमाएँ तय नहीं कर पाया तो वह निश्चिंतता से भावों के आवेग में बहेगी-उतरायेगी। किसी खलल का डर नहीं है, न ही विचारों के प्रवाह पर बांध बँधने का या उघड़ जाने का डर। यह प्रक्रिया है उन स्मृतियों से बाहर आने की जो क़ब्र में दफ़्न हो चुकी थीं और जिनका रिसना एक भावुकता मात्र था।

तस्वीर को उठाते ही शानी का हाथ काँप सा गया। मानो इसके उद्घाटन से उस पर लांछनों की बौछार होने लगेगी। जब कि अम्भुज स्वभाव से ही मस्त है। उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि वो क्या-क्या सहेजती है। पूर्णरूपेण विश्वास से भरा हुआ। फिर – उसका हाथ क्यों काँपा? उसका अपना अन्तरतल ही कमतरी के भाव से क्षीण हो चला है। स्पष्ट है कि इस कार्य में औचित्य नहीं है, यह अनैतिक है। नहीं तो यदि ये इतना ही निरीह-निरापद होता तो अम्भुज के सम्मुख भी किया जा सकता था। वो बात अलग है कि अम्भुज बहुत डिमांडिंग है। घर में उसके रहते समय ही कहाँ होता है कि वह कुछ स्वयं से बँधा भी खोलकर उसमें झाँक सके। यूँ भी कितना विशिष्ट है, यह ख़्याल कि अपनी सत्ता को तो आगत की अन्तिम ऊँचाइयों तक तान के रखना है लेकिन पिछले पहर की धूप के छींटे भी दिखाई न दें। मानो का उद्भव यही वर्तमान है। वैसे ही बैठी वह विचारों के उलझे धागे सुलझाने लगी —

किसी एक के विच्छिन्न हो जाने से जीवन तो नहीं समाप्त हो जाता। वैभव से संबंध बना, वो क्यों टूटा- यह कथानक तो उसके जीवन से जुड़ा है। मँझदार में डोलती नैया को साहिल पर लगाने तब उसका खेवनहार बन अम्भुज ही आगे आया था। अपने निश्छल प्रेम से उसने शानी को अपनी अंतरंगता के सूत्र में बाँध लिया था। जिस में किसी तरह के छल या असत्य का अस्तित्व नहीं रहता। तो फिर उसने वैभव की तस्वीर क्यों सहेज कर, छिपाकर रखी है? आख़िर क्यों. . .? अपने ख़्यालों के अंधड़ को वह आज रोक नहीं पा रही है। असमर्थता के आलम में वह उद्विग्न हो उठी। व्यतीत से एक दृश्य उसके समक्ष उभरा —

उसका दुपट्टा गुलाब की झाड़ी में फँसने पर वैभव कह उठा था, “तुम काँटों से ही उलझने चली हो, सँभल सको तो सँभलो।”

उसके इश्क़ में दीवानी कहाँ भाँप सकी थी वो उसके इरादे, बल्कि उसके नैनों के मोहपाश में बँधी झट बोल पड़ी थी, “काँटों में उलझकर ही तो फूल पा सकूँगी ना।”

प्रेम का तन्तुजाल बेहद नाज़ुक और कोमल होता है। विश्वासघात का एक ही झोंका उसे छिन्न-भिन्न कर देता है। वह दो नावों पर सवार होकर दरिया पर चलना चाहता था झूठ, छल और फ़रेब से लिप्त आश्वासन देकर और वह सत्य, निष्ठा और सादगी से उसे रुमानी उपन्यास की पंक्ति जैसा उत्तर दे आह्लादित हो बिन समझे काँटों की उलझन को स्वीकार कर बैठी थी। कहाँ मिला उसे उन काँटों के मध्य खिला हुआ गुलाब? हाँ, अलबत्ता अति कष्टदायी थी काँटों की खरोंचें; जिनसे लहू-लुहान होने पर अम्भुज ने उसके ज़ख़्मों को अपने प्यार के उजास से सींचा और ता उम्र के लिए अपने बाहुपाश में गुलाब की कलियों जैसे सहेजकर प्यार की भीनी-भीनी सुगन्ध से सराबोर कर दिया था।
अलमारी से निकला सारा सामान उसके सम्मुख पलंग पर बिखरा पड़ा था और वह मध्य में बैठी थी तस्वीर लेकर। अचानक उसने तस्वीर को बीच से दो टुकड़ों में फाड़ दिया|

एक टुकड़ा उसने अपने दाईँ ओर तो दूसरा बाईँ ओर रख लिया। फटे टुकड़ों में एक-एक आँख भी बँट गई थी, जो उसे दोनों ओर से अपने घेरे में बाँध रही थीं– और वह शांत, निर्विकार सी अपनी प्रतिशोधात्मक प्रक्रिया से अन्तरतर में उग आए काँटों की चुभन को महसूस कर पा रही थी। इस हरक़त ने उसके होठों पर विजयी मुस्कान ला दी। वह वहीं तकिए पर सिर टिकाकर मुँदी आँखों से अतीत के जंग लगे बंद किवाड़ों को धकेलती भीतर घुसे जा रही थी। कितने ही सोपानों को लाँघता, भटकता एक रुआँसा तत्कालीन विशिष्ट उभरने लगा था। जो हृदय के अतल गह्वर में अपनी सत्ता जमाए अभी भी था। अतीत का ऐतिह्य उद्विगनता का संचार कर पाता कि इससे पूर्व आँधियों का दौर चल पड़ा, जो सभी मूर्त-अमूर्त भावनाओं को संग ले उड़ चला इक अनजाने सफ़र पर -जहाँ चेतना की दीवारें किरकिरा उठीं - अपूर्ण! संवेदनाएँ आहत हो उठीं।

अपने पार्थिव शरीर को वहीं छोड़ वायु वेग सी अविरल धार बन बहती हुई बरसों से लम्बे अंतराल पश्चात वह एक तिलस्मी यात्रा पर अग्रसर थी। जहाँ नवीन आवृत्त बने थे- जिन्हें उसकी सोच ने बिसरा दिया समझा था। लेकिन यह क्या- यहाँ पार्श्व में दर्द भरा संगीत सुनाई दे रहा था। उसने वैभव को आवाज़ दी। क्षीण स्वर की गूँज वहाँ व्याप्त रुदन में गुम गई। उन हवाओं में चीखें थीं। सम्मुख काल का प्रतिरूप वैभव सफ़ेद चादर में लिपटा धरती पर निश्चल पड़ा था। यह देख वह आर्त्तनाद कर उठी थी। सदियों की छाती में चुभती पीड़ाओं का एहसास लिए वह चेतना में लौटी। उठ कर उसने देखा कि उसका तकिया आँसुओं से भीगा हुआ था। मानो आज उसने वैभव को अन्तिम विदाई दी हो। उस अध्याय की समाप्ति की हो। रात का अन्तिम पहर था और उसका कमरा बिजली की रोशनी से भरा था। यादों के घेरे से बाहर निकल उसने वैभव की तस्वीर के दोनों टुकड़े दोनों ओर से उठाए। पहले उन आँखों में काले मार्कर से काला रंग भरा फिर उनको चिंदी-चिंदी कर डाला। शायद उन नज़रों को सदा के लिए दफ़्न करने के लिए- जिन्होंने उसे कभी प्यार से भरमाया था, फिर जी भरकर रुलाया था। अपनी छाती की जलती हुई आग की परछाईं उसे कभी नहीं दिखी थी, पर आज उसकी बुझती राख पर वो संतुष्ट थी।

यथार्थ के धरातल पर लौटती वह अपने भीतर घटे हादसे पर चकित हो उठी। अपने विपन्न, अविच्छन्न होते मन को तसल्ली दे- वैभव के व्यक्त अनुष्ठान से अब वह सदा के लिए बाहर आ गई थी। और उसके अन्तर्लिप्त मोह के धागों ने अपना स्वरूप बदल लिया था।

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