कलयुगी तपस्वी ‘यूनिकॉर्न’

15-04-2023

कलयुगी तपस्वी ‘यूनिकॉर्न’

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 227, अप्रैल द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

“ओए रोशन, ट्यूबवैल का पानी बंद करा कि नहीं? स्कूल जाने से पहले बंद कर देना याद से,” कहते हुए रोशन के बापूजी ने साइकिल आगे बढ़ा दी और अपने ऑफ़िस चले गए। 

रोशन ने नज़र उठाकर बापूजी को जाते देखा और अपना दूध का गिलास ख़त्म करके, गले में स्कूल का बैग डालकर टुयूबवैल की ओर बढ़ गया। उसका स्विच ऑफ़ करके वह जाते हुए पानी को निहार रहा था, साथ ही सोच रहा था कि प्रकृति के करिश्मे तो इंसान को हैरान करते ही हैं लेकिन इंसान के बनाए करिश्मे भी इंसान की नींद उड़ाने के लिए कुछ कम नहीं हैं। जैसे ट्यूबवेल से पानी देना न कि वर्षा के पानी के भरोसे खेती करना। 

बाबू ओमप्रकाश के परिवार में तीन बेटियों के बाद रोशन ने आकर घर में उजाला भर दिया था। बड़ी बहनें भी माँ की तरह उसे लाड़ करती थीं। वो गाँव की पुत्री पाठशाला में पढ़ने जाती थीं लेकिन रोशन को क्रिश्चियन स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजा जाता था। रोशन पढ़ने में तेज था। निमो आठवीं में पढ़ती थी और उसका होमवर्क कराती थी। 

वह पूछता, “यह तार से बिजली कैसे आती है? निमो दीदी मुझे समझ नहीं आती!”

निमो को इतना ज्ञान नहीं था, वह नहीं समझा पाती थी। इस पर उसने अपने स्कूल के टीचर से पूछा तो उन्होंने उसे ज्ञान दिया। अपने रोज़मर्रा के जीवन में उसे कई विचार आते और प्रश्न उठते लेकिन वह उनका समीकरण अपने भीतर नहीं बैठा पाता था तो उसके भीतर एक चिंगारी-सी सुलगने लग गई थी। इसके अलावा स्कूल जाने के रास्ते में वह सरपंच का पक्का घर देखता तो पल भर को वहाँ ठहर कर उसे निहारता और वैसे ही घर की कल्पना अपने लिए भी करता फिर मन में नया उत्साह भर कर पढ़ने चला जाता कि कभी वह भी ऐसा घर अपने लिए बनाएगा। 

शनिवार और इतवार का उसे बेहद उत्सुकता से इंतज़ार रहता था। गाँव में एक ही टेलीविज़न था वह भी सरपंच के घर में। सरपंच शाह जी शनिवार और इतवार को टेलीविज़न घर के बाहर टेबल पर रखवा देते और दरियाँ बिछवा देते थे। गाँव के बड़े-बूढ़े और बच्चे यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी जल्दी जल्दी-जल्दी काम ख़त्म करके टीवी का प्रोग्राम देखने आ पहुँचती थीं। फ़िल्म और चित्रहार दिखाए जाते थे। 

रोशन भी अपने स्कूल का काम कर के और बाबूजी के बैंक से वापस आते ही उनके सारे काम निपटाकर घर से बाहर निकल वहीं जाकर बैठ जाता था। घर में किसी को आदत नहीं थी कि उसे पूछे वह कहाँ जा रहा है या कब आएगा क्योंकि गाँव में सभी अपने लोग थे और सारे घर अपने लोगों के ही थे। 

टीवी देखते हुए उसका मन कल्पना लोक में विचरने लगता—यह सब तार के द्वारा इस बड़े से डब्बे या शोकेस में कैसे आ जाता है? जहाँ बाक़ी लोग मनोरंजन में हँसते या कहानी को समझते थे वहाँ रोशन उसकी तह तक पहुँचना चाहता था। उसकी उत्कंठा और उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। रामायण धारावाहिक जब दूरदर्शन पर आता था तो सारा गाँव ही उमड़ पड़ता था। पूजा-अर्चना करके दीया-बाती-धूप जला कर टीवी को पहले तिलक किया जाता था। जय श्रीराम के नारे लगते थे और सब भक्ति भाव से बैठ जाते थे। धार्मिक संस्कार तो तभी से उसके भीतर भी पनप गए थे। जो जीवन भर साथ रहे। 

महाभारत और रामायण में उल्लेखित चरित्रों ने अपने संकल्पों और उद्देश्यों के साथ देवी-देवताओं को जीता और जीत के बाद संज्ञान रखे गए धर्म ग्रंथों के नियमों का उपयोग करना सीखा। आज के दौर में भारत के कुछ उन्नत स्थापकों ने भी इसी तरह के विचारों का पालन करते हुए दुनिया भर में अपने निश्चयबद्धत्ता, धर्म, विश्वास और नियमितता से बहुमुखी उन्नति की है। उनके उत्साह, दक्षता और धर्म का उदाहरण महाभारत और रामायण की कहानियों से लिया जा सकता है। 

ऋषि-मुनियों की निष्ठा, संकल्प, श्रद्धा और निश्चयपूर्वक तपस्या करना उसे कल्पनालोक की बातें लगती थीं। उसके भीतर उनके प्रति कौतूहल जागृत होता था कि वे कैसे हिमालय पर जाकर तपस्या करते थे और समाधिस्थ होने पर उनके ऊपर घास-फूस तक उग आते थे। चींटियाँ, उन पर अपना घर बना लेती थीं। सैकड़ों वर्षों की तपस्या करने के पश्चात उन्हें ईश्वर दर्शन देते थे और प्रसन्न होकर वरदान माँगने को कहते थे। तब ईश्वर या नारायण को वरदान देना ही होता था। रावण और हिरण्यकशिपु राजाओं में तदोपरांत अभिमान भी आ गया था-ऐसे दृष्टांत भी मिलते हैं। 

भगवान राम और कृष्ण दोनों ने अपनी निष्ठा और अद्भुत शक्ति के द्वारा समस्त लोगों की मदद की और दूसरों के लिए नेतृत्व का उदाहरण प्रस्तुत किया। 

वे अपने अंतरंग संबंधों और उद्देश्यों के साथ अपने व्यवसाय के लिए संघर्ष करते हुए निष्ठा, समर्पण और अद्भुत शक्ति के द्वारा अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ते रहे हैं। कभी उसे लगता “भगवान“एक कोरी कल्पना है। सब कुछ प्रकृति के हाथ में हैं। ईश्वर जैसा इस दुनिया में कुछ नहीं है—जैसे H2O से पानी ही बनता है। ऐसा सोचकर ऋषि चार्वाक के क़दमों पर चलकर साइंस और टेक्नॉलोजी को ही सब कुछ माना जा सकता है। 

वक़्त अपनी रफ़्तार से बीत रहा था और रोशन भी ढेर सारे प्रश्नों को भीतर समोए बड़ा हो रहा था। रात को छत पर सोते समय तारों के झुंड देखते हुए रोशन उनमें ईश्वरीय शक्ति की कल्पना करता रहता था। उसका मन इन बातों को मानने से इनकार करता था। उसे यह सब बातें मनगढ़ंत कथाएँ प्रतीत होती थीं। वह किस-किस को झुठलाए वह समझ नहीं पाता था। कक्षा में गुरु की शिक्षा, घर में माँ-बाबूजी की धर्म की बातें, उच्च कोटि के धर्म ग्रंथ और सबसे ऊपर टीवी पर भी वही चर्चा। वह अपने मन के संशय का किससे निवारण करे? कौन उसे ढंग से समझा सकता है—वह यह नहीं समझ पाता था। गाँव की सरकारी पाठशाला में एक पुस्तकालय भी था। धीरे-धीरे बड़े होते हुए वह वहाँ से किताबें लाने लग गया और स्वामी विवेकानंद, रमण महर्षि, दयानंद, ईश्वर चंद्र विद्यासागर की पुस्तकें रात-दिन जाग-जाग कर पढ़ने लग गया। उसकी प्रश्नावली और बढ़ती जा रही थी। मानव मात्र को जानना, उसका संसार में होना, जीवन की समस्याओं से जूझना और ध्यान में मग्न होकर समाधिस्थ होना यह सब गूढ़ ज्ञान की बातें थीं, जो उसकी बाल बुद्धि में अपनी दार्शनिकता का तालमेल नहीं बिठा पा रही थीं। 

दसवीं पास करते तक उसकी बहनों के विवाह होने आरंभ हो गए थे और उसे घर-गृहस्थी के तौर-तरीक़े भी धीरे-धीरे समझ आ गए थे। स्कूली शिक्षा के साथ-साथ व्यवहारिक समाज का अनुभव भी रोशन के व्यक्तित्व पर अपना प्रभाव छोड़ रहा था। आगे की पढ़ाई के लिए रोशन बाहर जाना चाहता था लेकिन यह सम्भव नहीं हो पा रहा था। बाबूजी के पास खेत तो थे लेकिन खड़े पैर ग्राहक नहीं मिल रहे थे। पढ़ाई में तेज़ होने के कारण उसे लवली इंस्टिट्यूट में दाख़िला मिल गया था जहाँ वह सुबह सवेरे साइकिल पर सवार होकर गाँव से निकल जाता था। मन में पढ़ाई की लगन लगी होने के कारण उसका रिज़ल्ट भी फ़र्स्ट क्लास टॉपर रहा। उसे स्कॉलरशिप लग गई तो उसका हौसला दुगना हो गया। बचपन से ही मेधावी छात्र था। बाबूजी का सीना गर्व से तन गया था। 

वह बी.टैक. कर रहा था। यहाँ हर प्रकार की सुख-सुविधा थी। इस कारण उसने यहाँ पर भी टॉप किया, जिससे उसे केंपस में ही एक मल्टीनेशनल कंपनी ने चुन लिया। जिनका ऑफ़िस मुंबई में था! 

“होनहार बिरवान के होत चीकने पात“!

उसे समझ आ गई थी—एंटरप्रेन्योर्स या उद्यमी व्यक्ति जिसे जोखिम उठाते हुए भय नहीं बल्कि एक आत्मविश्वास संबल देता है वही जीवन में कुछ कर आगे बढ़ता है। हम जो आए दिन समाचार में नए-नए उद्योगपतियों, राजनीतिज्ञों के उदाहरण पढ़ते हैं, वे कोई करिश्मा या लॉटरी नहीं है। यह उनकी तपश्चर्या का नतीजा होता है। जो हमारी दृष्टि से दिखाई नहीं देता है। 

कुछ ऐसा ही आचरण रोशन का होता जा रहा था। उसका उद्देश्य केवल नौकरी पाना नहीं था। उसके मन की प्यास भी बुझ नहीं रही थी। वह ऊँची उड़ान भरना चाहता था। उसकी ज्ञान लिप्सा बढ़ती जा रही थी। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में विश्व में आए दिन नए-नए आविष्कार हो रहे थे। वह उनकी तह तक पहुँचना चाह रहा था। 

कंप्यूटर युग और मोबाइल युग समक्ष था। जहाँ चाह थी वहाँ राह भी थी। विज्ञान के क्षेत्र में मानो कंदराओं में से अजूबे निकल रहे थे। घरों में जलने वाले बल्ब भी एलईडी लाइट में बदले जा रहे थे। घर-घर में टेलीविज़न आ गए थे। टेप रिकॉर्ड्स, वीडियो कैसेट्स पीछे छूट रहे थे। सब तरह के चूल्हे गैस के चूल्हों में बदल गए थे। कोई क्षेत्र भी विज्ञान के नए उपकरणों से अछूता नहीं रहा था। पंखे कूलर से ए.सी. बन गए थे। सुख-सुविधाएँ बढ़ रही थीं। 

रोशन का गाँव में अपना घर बनाने का सपना भी पूरा हो गया था। उसने सब तरह की सुविधाएँ घर में जुटा दी थीं। तभी उसे अपने चिर-प्रतीक्षित सपनों को पूरा करने का मौक़ा मिला। वह कंपनी की ओर से अमेरिका जा रहा था। 

अपनी मेहनत, लगन, इच्छा पर उसे भीतर ही भीतर गर्व था। उसका आत्मविश्वास बढ़ रहा था। उसके गौरवशाली व्यक्तित्व पर सब की दृष्टि थी। कई साथी लड़कियाँ उसे आकर्षित करने का यत्न करतीं लेकिन उसकी अंतर्प्यास अभी तृप्त नहीं हुई थी—इसलिए उसने अपने भावनात्मक स्तर को अपनी कठोर निगरानी में रखा जिससे वह भटक नहीं पाया। वह देख रहा था कि उसके पास ना दोस्तों के लिए समय है और ना ही परिवार के लिए। बस कुछ कर दिखाना है . . .! 

रोशन समझ नहीं पा रहा था या उसको पता ही नहीं चल रहा था कि इन बातों का असर अप्रत्यक्ष रूप से उस पर अनवरत हो रहा था कि उसे भी जीवन में कुछ बनना है और इस युग—कलयुग की महाभारत को जीतना है। अपने पुरुषार्थ से अर्थात्‌ व्यापार और टेक्नॉलोजी के संसार में लक्ष्य भेदकर निशाना साधना है। 

वह एक विशेष कठिनाई अर्थात्‌ प्रॉब्लम का निवारण करना चाहता था। एक ही लगन थी किस तरह ऐसा सॉफ़्टवेयर निर्मित करूँ जो अंतरजाल को पढ़ सके और जन-जन के प्रश्नों का सही निवारण कर सके। यह नहीं समझ पाया वो कि ऐसी सफलता ही उसे यूनिकॉर्न बना देगी! एक बिलियन डॉलर की कंपनी! यह सफलता का एक मापदंड है! 

“यूनिकॉर्न” केवल कथाओं में कल्पित सफ़ेद रंग का घोड़ा जैसा पशु जिसके माथे पर एक सींग होता है। ‘एकशृंगी या इकसिंग’ जो वास्तविकता में होता ही नहीं। सफल उपक्रम की सांख्यिकी दुर्लभता का प्रतिनिधित्व करने के लिए पौराणिक जानवर का चयन किया गया था। वैसे खोजने पर यूनिकॉर्न निजी तौर पर एक स्टार्टअप कंपनी भी है जो एक बिलियन डॉलर की है। लेकिन यूनिकॉर्न सिंबल है प्योरिटी और ग्रेस का। आज “जोमैटो” और “स्विग्गी” भी ऐसी ही कंपनियाँ बन गई हैं। दोनों भारतीय युवाओं ने खोली हैं। 

रोशन भी यूनिकॉर्न की कल्पना को हक़ीक़त में लाना चाह रहा था। अब वह अपने ख़्यालों की दरगाह अमेरिका में था। यहीं उसके ख़्वाबों ने हक़ीक़त का जामा पहनना था। उसने यूनिवर्सिटी भी ज्वाइन कर ली थी। काम और डिग्री दोनों बाज़ुओं से समेट रहा था। कंप्यूटर युग आरंभ हो चुका था। उसने अपनी भी कंपनी खोली अकेला यूनिकॉर्न था। वह जग में कुछ करना चाह रहा था जहाँ चाह हो तो राह भी प्रशस्त हो जाती है यानी कि:

“ज़िंदगी जब तक रहेगी निखर जाएगी
 धूप है दोपहर की उतर जाएगी
 कौन है जो दूर से मुझे आवाज़ देता है
 व्योम में उड़ने को मेरे पंखों को परवाज़ देता है!” 

 अपनी सोच प्रक्रिया में उत्साह भर वह ‘एकला चलो रे’ सोच लेकर एक कंपनी खोल रहा था अर्थात् नवयुग की तपस्या आरंभ हो गई थी इस कलयुग के तपस्वी की। उसे अपनी सफलता पर दृढ़ विश्वास था। सॉफ़्टवेयर कंपनी चल पड़ी थी। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने स्टार्टअप्स को उसकी कंपनी में ट्रेनिंग लेने के लिए भेज रही थीं। ज़मीन ख़रीदकर उसने अपने लिए बहुत शानदार शीशे का ऑफ़िस बनवाया। उसके ख़्वाब हक़ीक़त का रूप धर कर सामने आ रहे थे। वह कलयुग का तपस्वी बन गया था जो कंप्यूटर रूपी तपस्या कर रहा था। जब तक उसके शरीर पर घास नहीं उगेगी उसकी लगन और तपस्या में चींटियाँ अपना ठिकाना नहीं बना लेंगीं—उसकी ब्रह्म ऋषि की समाधि पर प्रभु कैसे अवतरित होंगे? 

‘वरदान माँग बच्चे’ वाला सीक्वेंस कैसे होगा? आधी-आधी रात तक वह अपने ऑफ़िस में बैठा रहता! या सुबह तड़के उठकर पुनः वहीं बैठ जाता था! यही तो कलयुग की तपस्या थी। उसने अपने आप को स्थापित करना आरंभ कर दिया था। मेहनत रंग ला रही थी। राजकीय स्तर पर उसकी पहचान होने लग गई थी। उसने अपना अनोखा संसार रच लिया था। अब काम चल पड़ा था। उसका कांपलेक्स बन गया था। जहाँ कंक्रीट की इमारतें सर उठा कर खड़ी हो रही थीं। एंप्लाइज़ भी बढ़ते जा रहे थे। अब यही परिवार था उसका। 

राजकीय स्तर पर अंडर फ़ोर्टी एंटरप्रेन्योरशिप में उसे सम्मानित किया गया। लेकिन अभी तो मंज़िल बहुत दूर थी। तपश्चर्या चल रही थी, ना उसे समय का पता चलता था और ना ही खाने पीने का। यह कलयुग की तपस्या थी जिसमें शरीर के ऊपर घास-फूस तो नहीं उगनी थी और ना ही चींटियों के घर बनने थे। यहाँ स्थापित होने की लड़ाई थी। सब तरह की विपरीत परिस्थितियों में से अपने को बाहर निकालना था। बहुत कंपटीशन था। हर कोई टाँग खींचने को तैयार बैठा था। खेल का मैदान था जहाँ गोल करने की जद्दोजेहद चल रही थी। 

बाबूजी और माँ उसे देखना चाहते थे उनकी सेहत ठीक नहीं चल रही थी। अचानक उसे ज्ञान हुआ कि परिवार को नगण्य कैसे मान लिया उसने? पहली बार उसे होश आ रहा था। अब वह अपने गाँव जा रहा था कलयुग का तपस्वी ‘यूनिकॉर्न’ बनकर . . . !

1 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
आप-बीती
स्मृति लेख
यात्रा-संस्मरण
लघुकथा
कविता
व्यक्ति चित्र
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें