चोर पर मोर
वीणा विज ’उदित’
लोह पर मक्की की मोटी-मोटी रोटियाँ थापती वीरो के दिमाग़ में विचारों के अंधड़ चल रहे थे। नीचे से लोह को तपाता हुआ आग के बवंडर का सेंक उसके गालों को लाल करने की अपेक्षा कत्थई कर रहा था जो उसकी आबनूसी रंगत से भिड़ गया था। महंतों के डेरे पर जितने कामे (काम करने वाले) घर और खेतों में काम करते हैं उन सब की दोपहर की रोटी का काम उसके हाथों में चूड़े के साथ ही बँध गया था। वीरो की सास भी उनके घर में यही काम करती थी। नई ब्याही को डेरे के महंत की आशीष दिलाने जब उसकी सास उसे लंबे से घूँघट में लपेट लाई थी, तो महंत जी ने उसके मज़बूत चूड़े वाले हाथों को देखते ही कहा था, “इसे भी इसी काम पर लगा दे अमरो।, यह सब सँभाल लेगी।”
तब से आज तक क्या कुछ नहीं गुज़र गया उसके साथ! उसने आज तक तीन चलीहे (बच्चा होने पर चालीस दिनों की छुट्टी) और छोटी-मोटी बच्चों की बीमारी के अलावा कभी काम में नागा नहीं डाला था। सारी ज़िम्मेवारी अपने ऊपर ले ली थी।
उसकी हर सुबह महंतों के चूल्हे से शुरू होकर दिन भर वहीं खटती थी और साँझ ढले जब सूरज पश्चिम में गेरुआ रंग बिखेरता धीरे-धीरे अपने को धरती के पीछे खिसकाता तब वह अपने घर के मोड़ तक पहुँचती, जहाँ उसका इंतज़ार करते उसके बच्चे उससे लिपट जाते थे। चाँद भी अपनी चाँदनी उसके दरवाज़े पर पहुँचते ही उस पर बिखेर देता था, जिससे उसके सारे दिन के काम की तपिश कुछ ठंडी पड़ जाए। वह घर-भर का खाना साथ डब्बे में ले आती थी। सबको खिलाने के बाद उसकी सारी थकावट सबकी संतुष्टि से उतर जाती थी।
दिन चढ़े आज जब उसने चूल्हे पर सरसों का साग बड़ी सी हाँड़ी में हर दिन की भाँति रखा तो मौसम सुहाना था। नसीमे सहर (सुबह की ताज़ी हवा) उसके बालों की लटों से खेल उसके मुख पर लटें इधर-उधर बिखेर कुछ छेड़खानी सी कर रही थीं; तो वह ख़्यालों में अपने घरवाले की रात की ठिठोली की याद करके स्वयं ही लाज से उन्हें बार-बार हटा रही थी और बड़बड़ा रही थी, “जाओ, परे हटो, तंग ना किया करो मुझ बेचारी को, जब देखो छेड़ती रहती हो तुम भी उनकी तरह!”
और सिर झटक कर हाथ से उन लटों को पीछे की ओर मुस्कुराते हुए बार-बार धकेल रही थी। उधर साथ के चूल्हे में उसके हाथ चूल्हे की लकड़ियों पर भी सधे हुए थे।
ढेरों डंगर, जानवर बँधे थे महंतों के बाड़े में। खेती के बैल अलग ज़मीन पर, दुधारू डंगर यानी गाय, भैंस आदि दूसरे हिस्से में थे। इसी तरह रखवाली करने वाले ख़ूँख़ार कुत्ते जो न जाने कौन-कौन से देशों से मँगवाए हुए थे, उनको बढ़िया लोहे की सलाखों से बने कमरों में क़ैद करके रखा गया था और रात के समय पहरेदारी के लिए उनको खुला छोड़ा जाता था। इसी कारण महंतों की कोठी पर कभी कोई चोर-उचक्का भूले-भटके भी नहीं आता था। कुत्तों की देखभाल और नहलाने-धुलाने वाले करिंदे अलहदा थे।
कुछ कामे बाल्टियों में दूध भर कर लाते थे जो बड़ी रसोई में उबालने के लिए रखना होता था। वीरो तो बाहर वेहड़े (आंगन) में बैठती थी। दूध की मलाई की बाटी (कटोरा नुमा बर्तन) भर कर वीरो मालिकों के नाश्ते के लिए अलग से रख देती थी। उसका सारा ध्यान दूध-दही और मक्खन की तरफ़ होता लेकिन एक टंकार खेतों में रहती कि कलुआ जल्दी सरसों का साग, बाथू, पालक लेकर आए तो उसने दातरी से साग काट कर बड़ी बटोही में चढ़ाना होता था। बीच में ढेर सारा अदरक और हरी मिर्च भी ख़ूब डालती थी। करारी ठंड के दिनों में ठिप्पर (शलगम) डालकर उसका ज़ायका बदल देती थी। इसके अलावा एक बड़ी बटोही में एक गुछी मेथी भी कहाँ पता चलती थी! हाँ, साग में करारापन आ जाता था, तो वह भी डाल देती थी। तभी वीरो के हाथ के साग का स्वाद लोगों के मुँह से उतरता ही नहीं था। उसे भी अपनी रेसिपी पर बहुत गुमान था।
अपनी असिस्टेंट “रत्ती” को आवाज़ें मार-मार के वीरो को बुलाना पड़ता था। रत्ती को अपने आप कभी ख़्याल नहीं आता था कि उसने रात का जमाया दूध आधा वहीं रहने देना है और बाक़ी आधे दही का मक्खन और छाछ निकाल कर जल्दी ऊपर लेकर जाना है। जहाँ, मालिकों ने नाश्ता करना है। वीरो की पुकार सुनते ही रत्ती में बिजली का करंट चालू हो जाता था। फिर वह दौड़ती इधर गई कि उधर गई। साथ ही सारा समय अपने दुपट्टे से सर का पल्लू भी सँभालती जाती थी। वीरो के कान में रत्ती की आवाज़ पड़ी तो वह चूल्हे के सामने बैठी मंद-मंद मुस्कुरा उठी।
“ओ राजया, तू जाकर गुड़ की भेलियाँ (टुकड़े) तो छब्बी (टोकरी) में भरकर नीचे गन्ने के खेत से ले आ। कल सारा दिन गन्नों का रस कड़ाह में डालकर गुड़ ही तो बना रहे थे वह सारे। वही ताजी-ताजी नरम पेसियाँ ही लेकर जल्दी आईं।”
सारी पलटन एक दूसरे के काम को सिरे चढ़ाने के लिए ऐसे जुट जाती थी मानो लाम की तैयारी हो रही हो बॉर्डर पर। मालिक और मालिकिन तो अभी निपट के कमरे से बाहर भी आते नहीं दिख रहे थे और वीरो के राज में सब काम सिरे चढ़ा होता था। तीसरी मंज़िल के बन्ने (बाउंड्री) पर अचार के मर्तबान और अचार के चीनी मिट्टी के मटके आम के अचार से भरे होते थे जो सारा दिन वहाँ धूप में सिंकते रहते थे। जिनमें से बाटी भर के अचार भी रोज़ निकलता था। वीरो के राज में लोह पर पकी चार मक्की की रोटियाँ उस पर अचार की फाँक और सरसों का गर्म-गर्म साग उसके ऊपर मक्खन का गोल पेड़ा पिघलता हुआ हर कामे को मिलता था।
लोह के पास पड़े चूल्हे पर चाय की हाँड़ी चढ़ी रहती थी। कोई चाय तो कोई छाछ पीता था। वीरो में ग़ज़ब की फ़ुर्ती थी। कामे जब खाने बैठते तो ज़्यादातर छह या आठ रोटियाँ तक स्वाद-स्वाद में खा जाते थे। मजाल है वीरों के माथे पर कोई शिकन पड़े। वह तो अन्नपूर्णा बनी रोटियाँ बना-बनाकर ढेर लगाती जाती थी। यह भी कमाल था कि वह अपने मुँह में कभी एक कौर भी नहीं डालती थी। मालिकों को भी अपनी तसल्ली से खिलाकर फिर अपने विषय में सोचती थी। सूरज सर पर चढ़ आता था तो इसके अंदर की भूख भी तब फटती थी। फिर यह एक रोटी हाथ में पकड़ अचार की डली उस पर रखकर मुँह जूठा करती थी। तब तक एक के बाद एक कामे खाकर गुड़ की पेसी हाज़मे के लिए लेकर चले जाते और उसके बाद यदि साग बच जाता तो वह बचा हुआ साग यह चूल्हे के पीछे बाटी में डालकर बच्चों के लिए छुपा देती पर स्वयं यूँ ही खा लेती थी और जो उससे भी अधिक होता तो बच्चों के बापू के लिए भी डब्बी में डालकर रख लेती थी। वैसे रात का खाना उसने बनाकर और लेकर ही जाना होता था। शाम को काले माह की दाल, राजमा या छोले ही ज़्यादातर बनते थे। वह तो उसने घर लेकर जाना ही होता था, जिसके लिए वह टिफ़िन कैरियर लेकर आती थी। ढेर सारी रोटियाँ भी बनी होती थीं। यहाँ सुबह से शाम ढले तक मर-खपने के बाद कोई उसमें हिम्मत थोड़े ना बची होती थी कि घर पहुँच कर फिर चूल्हे में खपे।
आज उसके विचारों के अंधड़ उसे शादी के बाद महंत जी की आशीष लेने आने पर चल रहे थे। असल में महंतों के डेरे पर सब श्रद्धालु अपनी नई ब्याही बीवी या बहू को लाकर पहले उनकी सेवा में दिन भर रखते फिर रात गए घर वापस लेकर जाते थे तभी दुलहन के नेग करते थे। नवी नवेली दुलहन वीरो को भी माथा टिकाने पहले यहीं महंत जी के पास लाया गया था और घर के बाक़ी लोग दिन भर बाहर बैठे रहे थे। महंत जी के सेवक बाहर उनकी चाय पानी आदि से आव भगत करते रहे थे। भीतर आशीष रूप में महंत जी ने शरबत पिलाकर उसे प्रसाद दिया। और उसके पश्चात कहने लगे, “तुम्हें ठोक बजा कर देखना है कि तुम गगन पाल के लायक़ हो भी कि नहीं?”
वीरो के काटो तो ख़ून नहीं। उसका मुँह बंद कर दिया गया। उसे ठोक बजा कर देख लिया गया। उसके बाद साँझ ढले उसे दोबारा से दुलहन के कपड़े पहना कर घूँघट में उसका मुँह छुपा कर, बाहर उसके परिजनों को सौंप दिया गया।
रात को गगन पाल की बाँहों में सिमट वह रो पड़ी। मगर उसने अपने होंठ सीए रखे। धीरे-धीरे गगन पाल ने अपने प्यार के फाहे से उसका वह ज़ख़्म भर दिया, जिसका उसे अंदेशा भी नहीं था। पूरे नौ महीने होने पर उसके घर लक्ष्मी रूपा कन्या “राधा” ने जन्म लिया! वह बहुत सुंदर थी। गगन पाल पर तो बिल्कुल भी नहीं थी। उधर वीरों को संशय हो गया कि हो ना हो यह महंत का परसाद है! लेकिन वह चुप्पी साध गई थी। कुछ ऐसी स्मृतियाँ होती हैं जो धुँधली तो पड़ती हैं पर मिटती नहीं हैं। कुछ तो टीस की तरह—जो जान तो नहीं ले सकती हैं लेकिन जीने के एहसास को हर पल चुनौती देती सी लगती हैं।
छह साल की राधा बड़े रोआब वाली थी। छोटे दोनों भाइयों को अपनी किसी चीज़ को हाथ भी नहीं लगाने देती और अपने को कोई चीज़ पसंद आ जाए तो वह लेकर ही रहती थी। वह स्कूल जाने लग गई थी। उसकी सहेली नीलू के पास सुंदर सी पेंसिल थी, जो उसका बापू विलैत (विदेश) से लाया था। यह उससे वह पेंसिल छीन कर ले आई थी। इस पर नीलू अपनी माँ के साथ रात को रोती हुई अपनी पेंसिल लेने आई थी। राधा किसी क़ीमत पर वह पेंसिल लौटाने को राज़ी नहीं हो रही थी। यह देखकर वीरो को महंत की आदत का असर उसमें दिखा; जिससे वह सारी रात सो नहीं पाई और अब विचारों के अंधड़ उसका दिमाग़ खा रहे थे कि ऐसे कैसे चलेगा . . . ?
दोपहर को मालिकिन के पास जाकर वीरो ने अपनी बेटी की कथा सुना दी। इस पर मालिकिन ने कहा, “घबरा नहीं! ठहर मैं एक मिनट में आई।”
भीतर जाकर मालिकिन ने दराज़ में से एक विलायती (इंपोर्टेड) पेंसिल लाकर उसके हाथ में थमा दी। और कहा, “चल कोई बात नहीं। एक पेंसिल की ही तो ज़िद की है ना उसने। यह ले और उसे दे देना तू ख्वामखाह ही परेशान हो रही है। यह बाहर से लाते ही रहते हैं ऐसी चीज़ें बच्चों के लिए।”
लेकिन मालिकिन क्या जाने कि वीरो का दिमाग़ कहाँ पहुँचा हुआ है? वीरो के भीतर तो प्रश्न था कैसे बुझाएगी नीलाकाश की प्यासी, तीव्र अंतहीन उदीषा को? ख़िरामाँ-ख़िरामाँ अभी तो शुरूआत है! तभी उसने देखा कि कोई गबरू जवान ऊँचा, लंबा मालिकिन से मिलने आया है। उसमें कोई ख़ास ही बात थी लेकिन वीरो ने मुँह छुपाते हुए पल्ला मुँह में ले लिया और वापस चूल्हे के पास आ बैठी थी। पेंसिल को सँभाल कर उसने पल्लू में बाँध लिया था। अब तो उसे घर जाने की बहुत जल्दी थी। सब काम निपट गए तो उसे ध्यान आया कि वह सुंदर-सलोना नौजवान अभी भी भीतर ही था। सो वह मालिकिन को गुहार लगाए बग़ैर ही घर को चली गई। घर जाकर उसने विलायती पेंसिल राधा को पकड़ाई तभी वह नीलू की पेंसिल वापस करने उसके घर गई और वीरो को चैन मिला।
इंसानी वुजूद में न जाने कितने रंग के रंग-बिरंगे अनगिनत धागे हैं जो भीतर ही भीतर आपस में उलझ-सुलझ कर इंसान के बाहरी किरदार पर असर डालते रहते हैं। कहाँ मिल पाता है कोई जानकार जुलाहा जो उन धागों को बुनकर कोई विशेष रूप में ढाल दे!
वीरो को पता चला कि वह नौजवान महंत जी की कार के ड्राइवर का भतीजा है जो बाहर से आया है कुछ दिनों के लिए। मालिकिन उससे अंग्रेज़ी सीख रही है। महंत की दो बेटियाँ अंग्रेज़ी कान्वेंट के बोर्डिंग में रहती हैं। छुट्टियों में घर आने पर वह उनका होमवर्क कराना चाहती थी, इसी के लिए बढ़िया अंग्रेज़ी सीख रही थी। रत्ती बता रही थी उसका नाम “जोगिंदर” है। जोगिंदर का भीतर मालिकिन के पास आना और फिर शाम तक बाहर न निकलना—वीरों को अब यह चिंता खाए जा रही थी कि ना जाने कैसे दोनों में इतना प्रगाढ़ आया? उस एक दीवार के पिछली तरफ़ दोनों में क्या चल रहा था उसे मालूम ही नहीं था। एक-दो बार आते देखा उसे तो वह संयत और संश्लिष्ट ही दिखा था। वीरो के दिमाग़ का अंधड़ फिर छिड़ गया था। महंत जैसा चोर-डाकू और कौन होगा? अच्छा है “चोर के घर मोर” पड़ गया है! पंजाबी में यह कहावत भी है! उसे लगा, क़ुदरत ख़ुद बदला लेती है!
मालिक विलायत (लंदन) गए हुए थे इन दिनों तो जवान मर्द का अंदर क्या काम? लेकिन बड़े लोगों के तन पर ढेरों छेद होते हैं जिनसे बहुत कुछ निकल कर नालियों में बह जाता है, किसी की नज़र ही नहीं पड़ती। महंत की दोनों बेटियाँ क्रमशः आठ-दस वर्ष की शिमला बोर्डिंग में पढ़ती हैं। उनके बाद तीन बार मालिकिन का गर्भपात हो चुका है क्योंकि वह बीवी की कोख में बेटी ही दे पाता है इतना तो वीर को पता चल गया है। लंदन में अच्छी तरह स्थापित होने के कारण किसी तगड़े खाते-पीते ज़मींदार भक्त ने गाँव की अपनी सारी ज़मीन मरने से पहले महंत को दान करनी थी, इसी कारण इस बार महंत वहाँ एक महीना ठहरने का प्रोग्राम बना कर गए थे। तभी उसकी किरणों रानी उस ड्राइवर के भतीजे के साथ मौज मना रही थी। सरदारनी किरणों के दिन पलाश के रंग से थे अब, तो दिन के साए में रातें चाँद की शीतल चाँदनी सी थीं।
एक दिन अचानक दोनों कमरे के दरवाज़े पर टकरा गईं तो वह वीरो की सवालों भरी नज़र को देखकर बोली, “जिंदगी के बही खाते में अब कुछ लम्हे सहेज रही हूँ वीरो! चाँदनी रातों में मैंने कुछ सपने बुने थे आँखों में! अब मैं उन्हीं सपनों की बुनाई करती रहती हूँ और अपनी झोली में मुस्कुराहटें भरती रहती हूँ।”
कहाँ वीरो सोचती थी कि अच्छा है चोरों के घर मोर पड़ गए हैं क्योंकि वह हर दुलहन की इज़्ज़त लूटते थे और यहाँ उनके घर की इज़्ज़त लुट रही थी। लेकिन एक नारी की संवेदना ने दूसरी नारी की अंतर्तम गहराइयों को छू लिया था और अब वह उनकी ख़ैर के लिए पीर मना रही थी, “हे बाबयो, इस नौजवान की रक्षा करना। यदि मालिक को इसके जनानखाने में आने की भनक भी लगी तो वह इन्हें अपने विलायती कुत्तों से नुचवा डालेगा। आप इन पर अपनी मेहर करना।”
अपना काम करते हुए वह पीर से मन ही मन प्रार्थना करती रहती थी। यूँ ही एक दिन काम जल्दी ख़त्म हो गया तो वह नीचे गन्ने के खेत में चली गई तो देखा कि ड्राइवर अपने भतीजे को कह रहा था, “सबसे सत श्री अकाल कह दे पुत्तर!”
वीरो ने पूछा, “क्यों क्या हो गया है ड्राइवर पाई? (भाई)
“यह वापस अपने घर जा रहा है इसकी छुट्टियाँ मुक गई (समाप्त हो गई) हैं।”
इस पर वीरो चहक कर बोली, “जा पुत्त ठीक से जाइयो। पढ़ो-लिखो! यहाँ आकर क्या करना है?”
(हालांकि वह समझती थी कि इस उम्र में औरत का चस्का लग जाए, तो जवान मर्द की नींदें हराम हो जाती हैं। पर शुक्र था कि वह महंत के आने से पहले जा रहा था)
उसे लगा जैसे बाबा जी ने उसकी बात मान ली और उसके सर से मनो बोझ उतर गया। आज की बिल्लोरी साँझ में वह चहकती हुई घर गई। अभी दो-चार दिन ही बीते थे कि महंत जी वापस आ गए। मालिकिन का रूप कुछ ज़्यादा ही निखरा हुआ था। वे बार-बार उसे निहार रहे थे। पास खड़ी वीरो से पूछ बैठे, “तेरी सरदारनी ख़ुशी से मस्त मलंग हो रही है। इसका तो रूप ठाठें मार रहा है। ऐसी क्या बात हो गई है?
“आपको आया देखकर ख़ुशी से मस्त हो रही है महंत जी,” वीरो मुस्कुरा कर बोली।
यह सुनकर महंत बेहद रँगीले हो गए थे और सारा दिन भीतर घुसे रहे। साँझ ढले जब वीरो घर जा रही थी, तब वे बाहर निकले थे। तब तक सूरज की किरणें टेढ़ी हो गई थीं और पलाश के फूलों सा रंग डूबते सूरज के आसपास छा गया था।
ज़मीनों में बढ़ोतरी होने से इधर महंत का रुत्बा और बढ़ गया था। दूर-दूर तक अब सिर्फ़ महंत की ज़मीनें ही दिखाई देती थीं। वे ज़मीन की ओर घंटों ताकते रहते थे; जैसे उनका मन ही ना भरता हो। क्या मालूम सोचते हों कि उनका वंश चलाने वाला बेटा तो कोई है नहीं। और फिर मन बुझ जाता हो।
इसी तरह गहरी सोचों में दिन बीते जा रहे थे कि मालिकिन ने उन्हें बताया कि वे उम्मीद से हैं। क्योंकि महंत को पता था कि वह केवल लड़की का बीज ही अपनी सरदारनी को दे सकता है इसलिए उसका मूड ख़राब हो गया कि अब एक और नन्ही जान को वह मरवा डालेगा। लेकिन फिर भी सरदारनी को उसी प्राइवेट डॉक्टरनी के पास ले जाकर लिंग टेस्ट करवाया गया हमेशा की तरह। जब रिपोर्ट आई तो महंत नाचने लगे और सरदारनी को गोद में उठा लिया। इस बार लिंग बदल गया था। वे हर्षोल्लास से नाचने लग गए थे।
वापस डेरे पहुँच कर, शोर गुल मच गया।
आसमान में बंदूक से धड़ाधड़ फ़ायर किए गए। लोग दौड़ते चले आए कि ना मालूम डेरे पर क्या हो गया है! ढोलिया आ गया था और उसकी ताल पर लोग नाचने लग गए थे। वीरो तो बिना बोले ही समझ गई थी। उसे भी नया सूट, शॉल और मिठाई मिली थी। उसने डब्बे से मिठाई का एक टुकड़ा निकाल कर सरदारनी के मुँह में डाला और उसके समक्ष लाल कनेर बनी मौन आ खड़ी हुई थी—जैसी एक बार उसके कमरे से जोगिंदर के बाहर आने के बाद उसका सामना होने पर खड़ी हो गई थी! वह राज़दार बन गई थीं। दोनों मौन खड़ी आँखों से बतिया रही थीं। वाक़ई चोर के घर मोर पड़ गए थे . . .!
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