छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–017
वीणा विज ’उदित’गीत-संगीत, शेरो-शायरी, ग़ज़ल-नज़्म में अभिरुचि होने से मन का पंछी ऐसे ठौर ढूँढ़ता रहता है, जहाँ उसकी प्यास बुझ सके। फिर चाहे वो “हरवल्लभ संगीत सम्मेलन“ हो, “मदन मोहन नाईट“हो या ”शाम-ए-फ़ाक़िर”हो।
इन अज़ीम हस्तियों का गीत, संगीत या कलाम किसी भी रूप में हो रूह की ख़ुराक़ बन जाता है। पिछले ग्यारह सालों से इन दिनों का इंतज़ार रहता है क्योंकि फ़ाकिर साहब की पुण्यतिथि 18 फरवरी है और इसके आसपास जो शनिवार आता है, उनके बेटे मानव उस शाम को “शाम-ए-फ़ाकिर” कहलाने का सौभाग्य प्रदान कर देते हैं।
इस वर्ष इस शाम का कुछ बेसब्री से इंतज़ार था। वैसे फ़ाकिर की ग़ज़लें और नज़्में तो सुननी ही थीं हमेशा की तरह लेकिन इस बार उनके दीवान ने एक शक़्ल इख़्तियार कर ली थी “कागज़ की कश्ती” नाम से। उसी का लोकार्पण समारोह भी “सुदर्शन फ़ाकिर मैमोरियल सोसायटी” ने करना था। रायपुर से पधारे श्री राजेश केशरी ने फ़ाकिर की ग़ज़लें लगातार दो-ढाई घंटे सुनाईं। फिर पुस्तक विमोचन किया गया। बेहद याद आए फ़ाकिर साहब। आँखें भर-भर आतीं थीं, उनके कलाम सुनकर। फ़ाकिर साहब का कहना था, “दीवान तो मंज़रे-आम पर आएगा ही।” सो, वो अब आ गया है।
जब जालंधर में होते थे तो कई बार सुदेश जी (मेरे पति की छोटी बहन और श्रीमती फ़ाकिर) के साथ वे भी आते थे हमारे घर। उनके साथ बैठना होता था। संकुचित प्रवृत्ति के होते हुए भी बच्चों से हिल-मिल जाते थे वे। एक बार बारिश हो रही थी तो मोहित, रोहित मुझसे कागज़ की कश्तियाँ बनवाकर आँगन में भरे पानी में बहा रहे थे। वे भी मूढ़े पर पास ही बैठे थे। उठकर बच्चों के साथ वे भी अपना बचपन दोहराने लग गए थे। यही नज़्म उनकी सबसे मशहूर नज़्म है। “वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी . . .”
मेरे पहले काव्य-संग्रह “सन्नाटों के पहरेदार” का रफ़ प्रूफ़ सबसे पहले भोपाल में श्री नरेश मेहता जी ने फिर जालंधर में फ़ाकिर साहब ने ही देखा और एडिट किया था। इन दोनों ने साथ में अपनी नेक ख़्वाहिशें भी मेरे नाम लिखीं थीं उसमें।
जब हम मियाँ-बीवी उनके पास जाते तो वे झट कहते, “आओ भाभी हम अलग बैठते हैं, इन दोनों भाई-बहन को अपनी बातें करने दो।” फिर काफ़ी कुछ सुनाते थे . . . ढेर सारे दुनियावी मसले, बहुत सी उलझनें वग़ैरह . . . जिनसे वे परेशान हो जाते थे! ख़ैर . . .
एक बार वे बोले कि एक नज़्म लिखो भाभी।
मिसरा है:
“वक़्त ने मुझको, मैंने वक़्त को बर्बाद किया”
मैंने नज़्म तो लिखी, मगर उनका रिएक्शन नहीं ले पाई। वक़्त हाथ से रेत की मानिंद फिसल चुका था, वे बहुत बीमार हो गए थे। बाक़ी, मेरा दूसरा काव्य-संग्रह 2011में प्रकाशित हुआ यह नज़्म उसमें “वक़्त की बरबादियां” नाम से छपी। जबकि 2008 में फ़ाकिर साहब जिस्मानी तौर पर इस जहान से चलता कर गए थे। आपसे साझा कर रही हूँ यह नज़्म . . .
दिले-ग़मग़ीं का पुरसकूँ मंज़र
तेरी यादों ने आबाद किया
ख़लिश दफ़्न थी सीने में
रुसवाई की तिरी
उन्हीं ज़ख़्मों ने बेवफ़ाई पे
इक शे'अर इरशाद किया।
तन्हाइयाँ नासूर बन चुभती रहीं
वक़्त के इस मंज़र को भी आदाब किया।
यूँ तो तमाम उम्र जद्दो-जहद चलती रही
बिन तिरे ज़िंदगी यह हादसा भी बर्दाश्त किया।
ख़ुशनसीब हैं वो करते हैं बहारों का इस्तकबाल
ख़िज़ा को हमने बाअदब तस्लीमात किया।
तेरी जुस्तजू में आवारगी का थाम दामन
वक़्त की इबारतों का नुक़्ता मालुमात किया।
ज़हर-ए-जहुन्नम था नसीब मेरा
तेरे पाकीज़ा-तसुव्वर ने आबे-हयात किया।
क्यूँकर कहिए किससे कीजे फ़रियाद
चलता करिए जहान से अब क्यूँकि
फ़लसफ़ा समझने में ज़िन्दगी तेरा
वक़्त ने मुझको,
मैंने वक़्त को बर्बाद किया॥
अर्थ:
दिले गमगीं=ग़म से भरा दिल; पुर सकूँ=चैन;इस्तकबाल=स्वागत; जुस्तजू=चाहत; आबे हयात=अमृत; पाकीज़ा=पवित्र; तसुव्वर=ख़्याल
काश! वो पढ़ते इसे। इस ग़ज़लों के मौसम में ग़ज़लों के शहंशाह से जुड़े कुछ अफ़साने बाहर आने को मचलने लगे थे तो साझे कर लिए हैं आपसे।
वीणा विज'उदित'
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