निदान
डॉ. वीणा विज ’उदित’
एक अजीब तरह की बेचैनी अर्पिता को घेरे हुए थी। आजकल वो उन तमाम औरतों के विषय में सोचती रहती, जो नौकरी नहीं करतीं और जिन्हें जीवन में हर तरह की सुख-सुविधा मिली हुई है। अर्थात् खाता-पीता घर, नौकर-चाकर काम के लिए और बच्चे पढ़ाई में व्यस्त-मस्त या फिर जिनके बच्चे शादी के बाद अपने जीवन में व्यस्त। पचास वर्ष की आयु तो असीम व्यस्तता के बीच बीत जाती है सभी की लेकिन उसके पश्चात . . .? एक ख़ालीपन अचानक घेर लेता है। जिनके पति फ़ैक्ट्रियों के मालिक हैं या टूर पर चले जाते हैं या भगवान को प्यारे हो जाते हैं—कोई उनसे पूछे कि वह पहाड़ से दिन का समय कहाँ बिताएँ? दुकानों वाले या बिज़नेस क्लास भी तो शाम पड़े ही पंछियों की भाँति नीड़ में आते हैं फिर साऽऽरा दिन, पहाड़-सा दिन किट्टी पार्टी, ताश पार्टी, भजन कीर्तन या गप्प-शप्प में भी कहाँ कटता है? तो फिर—अर्पिता भी क्या करे?
वो पढ़ी-लिखी, सुलझे ख़्यालों वाली है। क्या वह सारा दिन बैठकर टीवी के सीरियल देखे . . .! उसकी बुद्धि इसके लिए इजाज़त नहीं देती। तो वह क्या करे? इसी उधेड़बुन में अर्पिता के दिन बीतने लगे। वह गुमसुम-सी रहने लगी। अब तो वह रातों को भी जागने लग गई थी। कोई न कोई सोच उस पर तारी रहती थी। क्या वह कोई बुटीक खोले, या फिर कुछ बेचने की एजेंसी ले ले जैसे “एवोन” के ब्यूटी कॉस्मेटिक्स या “एमवे” के प्रोडक्ट्स? फिर सोच में पड़ जाती कि यह तो ऐसे काम हैं, जिन कामों के लिए उसे घर से बाहर जाना पड़ेगा और आर्यन उसे ऐसे कामों के लिए कभी आज्ञा नहीं देगा। फिर वह क्या करे . . .?
हार कर अर्पिता ने तरह-तरह की किताबें पढ़ने की ठानी। अपने कॉलेज के दिनों को याद कर अर्पिता अंग्रेज़ी के कुछ उपन्यास ले आई। अब मन लग रहा था। एक दिन कपूर फ़ैमिली उनके घर आई। उनकी बेटी ने पलंग के सिरहाने पड़े एक उपन्यास को उठाया और पूछा, “आंटी, ये उपन्यास कौन पढ़ता है?”
अर्पिता ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, “भई तुम्हारी आंटी पढ़ती है और कौन है यहाँ?”
वह टेढ़ा सा मुँह बनाकर, गर्दन टेढ़ी कर तपाक से बोली, “बड़ी रोमांटिक है आप!”
अर्पिता उसका मुँह ताकती रह गई। उसके जाने के बाद तो अर्पिता परेशान और हैरान! क्या वह इतनी बड़ी हो गई है कि अब उसे उपन्यास भी नहीं पढ़ने चाहिए जबकि उनमें उसका मन लगता है। दिमाग़ को एक झटका-सा लगा।
जब शरीर का मानसिक एवं भावनात्मक संतुलन बिगड़ उठता है, उससे दिमाग़ अस्वस्थ हो जाता है। ऐसे में मन प्रसन्न नहीं रहता। चिंता-निराशा से ग्रस्त होने के कारण स्वभाव में सनकीपन चिड़चिड़ापन तथा व्यर्थ की घबराहट एवं हड़बड़ाहट दिखाई देती है।
इसका मतलब है कि उसे धार्मिक ग्रंथ पढ़ने चाहिएँ? उसने अपनी सास को शिव पुराण पढ़ते देखा था। वह अंदर जा अलमारी में ढूँढ़ने लगी। नहीं मिली वह पुस्तक। अचानक याद आया ऊपर परछत्ती में पड़ी होगी कहीं। उसने नौकर रामू से कहकर उसे ढुँढ़वाया। धूल से भरी पड़ी थी वह। उसे साफ़ करवाया गया। मानो आज शिव पुराण की क़िस्मत जागी हो। अर्पिता ने मानो आज मोर्चा मार ही लेना था—दोपहर के समय वह उसे लेकर बैठी पढ़ने।
पढ़ते-पढ़ते उसका मन खिन्न हो गया। उसे लगा यदि देवी-देवता भी वैमनस्य से लिप्त हो क्रोध व लड़ाई करते हैं तो उन्हें कैसे पूजा जा सकता है? वह घबरा गई। स्वयं के विचारों से घबराहट . . .! यह तो धर्म विरुद्ध विचार उसके भीतर जन्म ले रहे हैं। उसे तो इतना ही ज्ञात है कि आँखें मूँद कर मंत्र बोलकर प्रभु की प्रार्थना करना ही पूजा है। और मनुष्य बन कर मानव मात्र की सेवा करना ही धर्म है। मंदिर, गुरुद्वारे में जाकर पूजा करने में उसे विश्वास नहीं है। हाँ, इंसानियत का साथ देना और लोगों के दुख-दर्द बाँटने, उनकी मदद करने में ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है यही विश्वास उसका जीवन आधार है। तो उसने पुस्तक को उठाकर आदरपूर्वक मंदिर में रख दिया। सम्मुख था फिर वही—वही ख़ालीपन!
ऊषा सेठी का फोन आया, “क्या कर रही हो? सारा दिन क्या करती रहती हो? दिन कैसे कटता है तुम्हारा?”
अर्पिता ने सोचा कि इसे भी यही रोग है कि क्या किया जाए कुछ दिन हुए जसवंत जी मिली थीं बोलीं, “क्या बताऊँ सुबह उठकर गुरुद्वारा जाती हूँ इसी बहाने सैर भी हो जाती है और इधर-उधर की सारी ख़बरें भी वहीं सुन आती हूँ। पर दिन भर क्या करूँ क्या पाठ करती रहूँ?” जसवंत जी को सभी चलता-फिरता रेडियो कहती हैं पर उसे इन बातों से क्या लेना-देना। ख़ैर वह भी कहने लगी कि दिन को कितना सोया जाए दिन नहीं कटता है। बहू ने घर सँभाल लिया है। सारी उम्र जिस घर को सँवारने में बीत रहा था, अब वह भी काम गया। किचन भी वही सँभालती है। हम गुरुद्वारे जाने और मरने-जीने पर जाने के लिए ही रह गए हैं क्या? इन सब में संतुष्टि नहीं मिलती है। है कोई इन समस्याओं का निदान?
रीता कालरा के कहने पर अर्पिता ने भी किटी में नाम लिखवा लिया। वहाँ सब हम उम्र थीं। कुछ एक व्यस्त थीं अभी गृहस्थी में ही, लेकिन अधिकतर इसी समस्या से जूझ रही थीं कि सकारात्मक रूप से व्यस्त रहने के लिए क्या किया जाय? डॉली तो एकदम बोली, “जब जवान थे तो अपने मियांजी आगे पीछे छेड़छाड़ करते रहते थे उसी में समय कट जाता था। या यूँ कहो तब बच्चों में इतने व्यस्त होते थे कि उसके लिए भी समय नहीं मिलता था। उम्र बढ़ने के साथ-साथ यह रस भी जीवन से लुप्त-प्राय सा हो गया है। फिर सबसे मज़ेदार बात सामने आई कि हमसे पिछली पीढ़ी तो बहुत काम करती थी। स्वेटर बुनना, कपड़े सीना, अचार-बड़ी-पापड़, सेवियाँ बनाना आदि आदि! आज की गृहणियाँ क्या करें? बाज़ार में हर ज़रूरत की चीज़ अच्छी क़ीमत पर मिलती है। और रिवाज़ भी उन्हीं का है, तो घर में परेशानी मोल कौन ले . . .? सो आ गया ना वही ख़ालीपन। जिसका निदान नहीं मिल रहा . . .!”
अर्पिता की सोच ने उसे परेशान कर रखा था कि किटी पार्टी से भी कुछ नहीं होगा। एक महीने में एक या दो किटी पार्टी में जाने से आपके केवल चार घंटे बीत सकते हैं आराम से। बाक़ी दिन भर क्या करना है? अपने साफ़-सुथरे घर को वह और साफ़ करती। सुंदर से काँच के गिलासों को और चमकाती फिर उनमें अपना रूप निहारती। आर्यन को तो काम से फ़ुर्सत नहीं कि उसका रूप सराहे। बेख़बर सी वह बच्चों के कमरे खोलकर उन्हें भी सँवारती। आस-पड़ोस में जाकर उनके घर की बातों में दख़ल देना और बिन माँगी सलाह देना अर्पिता को कभी अच्छा व्यवहार नहीं लगा। आर्यन के साथ ही वह दो-चार दोस्तों के घर स्वाभिमान से जाया करती थी। जीवन तो चल रहा है लेकिन बुझा-बुझा सा। आर्यन कंप्यूटर पर बैठते तो काम करके देर से उठते। अर्पिता कभी भी कंप्यूटर सीखने का साहस नहीं जुटा पाती थी, उसे लगता अब उसकी उम्र यह सब सीखने की नहीं है।
गर्मी की छुट्टियाँ होने पर उनका बेटा लक्ष्य जब घर आया तो घर में मानो बाहर ही आ गई थी। अर्पिता को अंतर समझ आता था—एक बच्चे के घर रहने से उसके दोस्त भी आए रहते थे। एक दिन मम्मी को उसने कंप्यूटर पर बैठा दिया। माँ के पीछे पड़कर टाइपिंग शुरू करवा दी। काम से जब भी समय मिलता अर्पिता टाइप करने लगती। उसमें ऐसा सॉफ़्टवेयर था कि वही अर्पिता की ग़लतियाँ बताता था। वह प्रैक्टिस कराता था। अर्पिता में अजीब सा जोश भर गया। उसे लगने लगा अभी भी वह कुछ सीख सकती है। लक्ष्य कहता, “मामा अभी आपकी उम्र ही क्या है?”
इस पर अर्पिता दुगुने जोश से सीखने लगी। उसे क्या मालूम था कि उसकी सभी समस्याओं का निदान इस मशीन के पास है। गर्मी की छुट्टियों के बाद जब लक्ष्य वापस हॉस्टल जाने लगा, तो माँ को प्यार करके बोला, “मामा आप जब मुझे याद करो तो रोना मत! आप कंप्यूटर पर बैठकर मुझे ढूँढ़ना! एम एस ऐन पर जब मैं मिलूँ तो मुझसे चैट करना—पर रात को ही, तभी मैं फ़्री होता हूँ।”
अर्पिता ने धीरे-धीरे इंटरनेट पर तरह-तरह की न्यूज़, बीमारियों की जानकारी, दवाइयों की जानकारी और साहित्य की पढ़ाई शुरू कर दी। नवयुग की पदचाप उसके घर की चौखट को छूने को आकुल थी। उसका सारा ध्यान सांसारिक चिताओं से मुक्त हो एक नए संसार की खोज में लग गया। बेटे को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसने देखा ढेरों लोग बातें करने के इच्छुक हैं। हर उम्र के लोग उससे दोस्ती करने को तत्पर हैं। वह तरह-तरह की वेबसाइट खोलने लग गई। कभी कुकिंग की रेसिपी लिखती, कभी योगा के आसन सीखती, व साथ ही नित्य प्रति अपना भविष्य भी पढ़ती।
आर्यन ने उसमें बहुत बदलाव देखा। पूरी बात पता चलने पर उसने भी उसे बढ़ावा दिया। अब घर में ख़ुशी का माहौल छाया रहता। वही बुझी-बुझी रहने वाली अर्पिता अब ढेरों नए टॉपिक लिए रहती। ख़ाली समय में कंप्यूटर में भरे हुए ढेरों पुराने फ़िल्मी गाने घर में चलते रहते। जिन्हें वह साथ गुनगुनाती रहती। और सदा खिली रहती।
वह जिस किसी के घर जाती, उनके पास ना बैठकर उनके बच्चों के पास जाकर कंप्यूटर संबंधित बातें करती। बच्चे भी उत्साहित हो उससे बातें करते हुए अपनी माँ से कहते कि आप भी आंटी जैसे कंप्यूटर सीखो ना! अर्पिता यह सब सुनकर एक नवीन उत्साह का अनुभव करती। अब वह नए आत्मविश्वास से भर उठी थी।
यह जादू का पिटारा—ख़ुशियों का पिटारा कंप्यूटर घर में था लेकिन जब तक उस तक पहुँची नहीं थी कुछ समझ नहीं पाई थी अर्पिता कि उसी के पास इसकी समस्याओं का निदान है।
आज के युग में तो सेल फोन ने यह कमी पूरी कर दी है। बल्कि सेल फोन एक बीमारी बनकर उभरा है। आज से बीस वर्ष पहले कंप्यूटर से जो क्रांति आई थी—उसका अंत सेल फोन ने नकारात्मक रूप से किया है! समय का सदुपयोग ना कर के आज की महिलाएँ और गृहणियाँ इसमें समय नष्ट कर रही हैं। अब इनका निदान ढूँढ़ना है . . .!
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