स्मृति दंश
वीणा विज ’उदित’देखते ही देखते
जो था, नहीं रहा
क्षणभंगुर
लपटों का अम्बार
कालिमा ओढ़े
धुँए में गुम
बिखरता चला गया
जुड़े तिनकों का
कतरा कतरा
जलने का शोर
पार्थिव मिटकर
अपार्थिव स्मृति में
नवरूप पा गया
टेढ़ा सा जीना
ऊपरी मंज़िल
बोझा ढोता
नवयुगल रास का
दृष्टेता
ढेरों यादों का
लंकादहन दोहराता
अनकहा यथार्थ
पल पल मिटता जाता
नित ने स्वरूप
चाहे अनचाहे
बढ़ती भीड़ में
खुशियाँ सीढ़ी चढ़तीं
थालियाँ कम पड़तीं
पैर के अंगूठे से
सीढ़ी पर पीठ कुरेदना
चुपके से कौर मुँह में डालना
घटनाक्रम
नवरूपों में बढ़ना
अब, यादों का रिसना...
वे तीन खिड़कियाँ
छोटी छोटी
पर्वतों को बाँहों में भरे
आसमाँ को समेटे
ऊँचाई पर हँसतीं
एड़ियाँ उठाए तकना
गड़रियों के कारवाँ
जाती हुई परछाइयाँ
ओत प्रोत
मन अभी भी तकता
पाँव थकान लिए
पंजों में कसक
एड़ी की उठान वहीं रह गई
धरातल ही नहीं रहा
भटकन लिए
मिटकर बनते रहे
यादों के सिलसिले..
काफ़िले चले
राख के ढेर के
इक पूरी उम्र का हिसाब समेटे
चंद बोरों में ज़िदंगी लिए
दरिया के बहाव की
रवानगी संग चलता किए
सुदूर, अंजाने सफ़र पर
पंच भूतों में
जगह पाने को
अस्तित्व यादों में छोड़...
चंद सुलगते अरमान
चिंगारियों का शेष
जले हुए लोहे के टुकड़े
राख थे श्रृंगार जिनमें
खुशबू खुश दफ़न थी
इक सड़ांध लिए
कुछ शक्लें बनीं
जले बुझे टुकड़ों की
बदरंग काले से
समेटे हैं यादें चंद टुकड़े
हँसे थे जो आग पर
गर्वित थे स्वंय पर
बौछारें से बचे
अड़े रहे वहीं
अंगद निज को जान
लपेटे पड़े रहे
यादों की परछाइयाँ..
आँख चुराकर
मोह का मारा
इक टुकड़ा
संग चिपका
साथ हो लिया
सुनहरी यादों का प्रतीक
बदरंग टुकड़ा
ताक पर रखकर
समय...
फिर बसे घर में
इक कोने में दुबके रहने को
जगह तलाशेगा
दामन थामे मोह का...
संतप्त हृदय
दग्ध ज्वाला से जला
लुटा, फिर भी रीता नहीं
अंतस का बवंडर
गहराते साये सा
अतीत का बोझा ढोए
बढ़ा आ रहा है
यादों की मौत का
जनाज़ा लिए
जीवन में पड़ गई हैं
सिलवटें बेढंगी
जो नहीं था... अब है
गहन अवसाद भरा
स्मृति दंश ...।।
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