छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–022

01-02-2023

छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–022

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 222, फरवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

ढेरों एपिसोड्स उमड़-घुमड़ कर बाहर निकलने की जद्दोजेहद कर रहे हैं। लेकिन मैंने तो पंजाब-दर्शन आरम्भ किया है पिछली बार, तो हम पहले अमृतसर का चक्कर लगा लें, लगते हाथ। 

अगले दिन हम अमृतसर पहुँच गए थे। सर्व प्रथम लाज़मी था ‘हरमन्दर साहब’ के दर्शन करना। वो लोग महसूस नहीं कर सकते उस उतावलेपन, उस दर्शन की तड़प को जो पंजाब में रहते हैं, या जो लोग गुरु की नगरी में रहने का सौभाग्य लेकर पैदा हुए हैं। ज़रा पूछो उनसे जो दूर-दराज़ इलाक़ों में रहते हैं, और जिनके पास पंजाब आने का कोई सबब ही नहीं है। 1970 में अभी टूरिज़्म इतना नहीं था। सो, एक अन्तर्प्यास थी पावन ‘दरबार साहिब’ के दर्शनों की। ज्यों-ज्यों हम अमृतसर में प्रवेश करके आगे बढ़ रहे थे, आप शायद समझ सकें कि मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था और मैं ‘इक ओंकार’ का पाठ अधरों पर करती अपने आप को बहुत भाग्यशाली मान रही थी। सत गुरु नानक के प्रति श्रद्धा से मेरी आँखें सजल हो उठीं थीं। 

कार काफ़ी पहले खड़ी कर दी गई थी। हम रिक्शे में जोड़े (जूते) उतारने की जगह तक गए। निशान साहिब के दर्शन तो दूर से ही हो रहे थे। अब सूर्य के प्रकाश में दमकता स्वर्ण मंदिर समक्ष सुशोभित था। जोड़े उतार कर जब सलवार ऊँची करके हाथ-पैर धोए तो रूहानी जोश के आधिक्य से मेरी रुलाई छूट गई। मैं अपने प्रभु को हर श्वास में धन्यवाद दे रही थी। पढ़ा था कि साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व गुरु रामदास जी का यहाँ डेरा था। तभी इसकी नींव रखी गई थी। पर यह तो तरो-ताज़ा लग रहा था। सात्विक माहौल बिखरा हुआ था। गुरबानी की स्वर लहरियाँ गुंजायमान्‌ थीं हर ओर। सीढ़ियाँ उतरते हुए सरोवर के पास पहुँच गए थे हम। कुछ आगे चलने पर, तब सँकरा था गलियारा, जहाँ से हम पवित्र दरबार साहिब के दर्शन को गए थे। चारों ओर से अमृत जल से घिरा पवित्र स्थल। वहाँ सुनहरे सलमे-सितारों से सजे वस्त्रों की चादर और वैसे ही सलमें सितारों वाले वस्त्र गुरु ग्रंथ साहब पर पहनाए हुए थे। वहाँ परिक्रमा करके हम पीछे चंवर डुलाने खड़े हो गए थे। रूहानी शान्ति का बोध हो रहा था उस कीर्तन में। वहाँ से बाहर आने पर कड़ाह-प्रसाद यानी कि दोने में हलवा मिला था; जिसे पूरी श्रद्धा से हमने गुरु को स्मरण करके खाया था। 

वापसी में एक छोटे से दरवाज़े से एक संकीर्ण मार्ग से हम भीतर गए तो पता चला यह “जलियांवाला बाग” है जहाँ बैसाखी वाले दिन 1919 में रौलट एक्ट के विरोध में एक सभा हो रही थी, तब जनरल डायर (अंग्रेज) ने अकारण उस भीड़ पर गोलियाँ चलवा दी थीं, जिसमें 400 के क़रीब लोग मार दिए गए थे और दो हज़ार के क़रीब घायल हुए थे। वहाँ क्यारियों में लगे पौधे मानो मृत देश प्रेमियों के रक्त से सींचे गए लगते थे। दीवार पर लगे बंदूकों की गोलियों के निशान उस दर्दनाक-शर्मनाक घटना की गवाही दे रहे थे। ख़ाली सूखा पड़ा कुआँ देख कर मन द्रवित हो उठा कि यह कुआँ लाशों से ऊपर तक भर गया था। बहुत भारी मन से हम वहाँ से निकले और अमृतसर का बाज़ार देखा जो पापड़, वड़ियाँ, दातुन आदि से सुसज्जित था फिर केसर के ढाबे से दाल मखनी और प्रसिद्ध देसी घी की तंदूरी रोटी खाकर हम वापस मोगे के लिए निकल गए थे। पंजाब दर्शन हो रहे थे . . . . . .! 

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