छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–016

01-11-2022

छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–016

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

पुराने लोग जी-जान से रिश्ते-नाते निभाते थे। नाराज़ भी वही लोग होते थे, जिन्हें यह गुमाँ होता था कि मुझे मनाने वाले लोग हैं। और अधिकतर घर के दामादों को विरासत में यह अधिकार दहेज़ के साथ मुफ़्त में ही मिल जाता था। वैसे तो हर कोई किसी न किसी घर का दामाद होता ही है, लेकिन अपनी पारी आने पर ही वो भी ये जलवे दिखाते थे। क्योंकि जो मर्ज़ी हो जाए, जनवासे से बारात तो सब रिश्तेदारों को साथ लेकर ही चलती थी तब। गुलाबी पगड़ी बाँधे सब रिश्तेदार शान से एकजुट हो आगे बढ़ते थे। मान होता था अपनों पर, अपनी बिरादरी पर। हमारे इकलौते भाई की शादी पर हमारे फूफा जी ने भी ये तेवर दिखाए थे। अब क्यूँ दिखाए . . .? तो यह मैंने आरम्भ में ही कहा था कि धीरे-धीरे अफ़साने सुनाऊँगी . . . लीजिए आ गया है वह वक़्त। 

मेरे पापा किसी काम से दिल्ली गए हुए थे। पीछे से यही छोटे फूफा जी (याद है . . . जिन्हें पापा बीना से सपरिवार लाए थे विस्थापित करने) हमारे घर आए। बोले, “कमला रानी, (हमारी माँ) बहुत बड़ी मुसीबत की घड़ी आ गई है। हमने जो ट्रंक बनाने की फ़ैक्ट्री लगाई है, उसका मालिक खड़े पैर पैसे माँग रहा है पूरे। आप ही मदद करो अब। हम तो यहाँ किशनलाल जी (हमारे पापा) के सहारे हैं और वो यहाँ हैं नहीं। अब आप ही कुछ करो।”

तब फोन तो होते नहीं थे। मम्मी उनसे परदा करतीं थीं। उन्हें लगा इस मुसीबत में ये कहाँ जाएँगे? तब पैसा-गहना सब घर में गोदरेज की अलमारी में ही रखा होता था। पहले उनको बैठाया और पानी पीने को दिया। फिर कहा कि वो घबराएँ नहीं। भीतर जाकर मुझे कहा कि फ़लाँ सिल्क का दुपट्टा दे मुझे। दुपट्टे को दोहरा करके उसमें अपनी ढेर सारी सोने की चूड़ियाँ, गोखड़ू (मोटे कंगन), सोने की पाइयों का रानी हार, नौलखा हार वाला सैट डाल कर उनके पास ले गईं। और बोलीं, “भाइया जी, ये सब ले जाओ और इनको गिरवी रखकर पैसों से अभी तो अपनी इज़्ज़त बचा लो। बाद में पैसे देकर छुड़ाकर वापिस दे देना। जो बात करनी होगी, इनके पापा दिल्ली से आने पर कर लेंगे।”और गठान बाँध कर घर की जमा-पूँजी उनके हवाले कर दी। हम बच्चे पास बैठे माँ का मुँह देखते रहे। हमें इल्म था कि यह सारा गहना लाहौर का बना हुआ है लेकिन मुसीबत के वक़्त अपने लोग बाँह नहीं थामेंगे, तो फिर रिश्ते-नाते किस काम के? यही सुनते थे पापा से। लगा, मम्मी ठीक कर रही हैं। 

पापा के वापिस आने पर, उन्होंने दबी ज़ुबान से भाइया जी से बात की कि कमला के गहने अब वापिस दे दें। लेकिन वे बोले पैसों का इंतज़ाम नहीं हो सका अभी। बार-बार यही सुनकर पाँच वर्ष बाद पापा के सब्र का बाँध आख़िर टूट ही गया। फूफा जी और उनके भाई ने फ़ैक्ट्री अपने नाम करवा ली थी। बोले, “जो कर सकते हो कर लो। कौन गवाह है इस सब का?” बुआ को भी डाँटकर बैठा दिया। वो अजीब धर्मसंकट में फँस गईं थीं। नाराज़गी चल रही थी। हमारे इकलौते भाई की शादी पर उन्हें भी बुलाना था, सो कुछ रिश्तेदार आए मध्यस्थ बनने, तो फ़ैसला हुआ कि हमारे भाई के नाम फ़ैक्ट्री का आधा हिस्सा कर देंगे। 

पैंसठ वर्ष बीत गए हैं इस घटनाक्रम को बीते। वही कौरवों वाली ढीठाई . . . कि सूई की नोक जितना हिस्सा भी नहीं देंगे। और कभी नहीं दिया कुछ भी। यह सच्ची महाभारत की कहानी है, क्योंकि यह आँखन देखी है। तभी तो सब कुछ बदल गया है, आजकल। क्या बढ़िया सिला मिला पापा को भलाई का? 

पर है एक और बड़ी अदालत। ऊपर वाले की। उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती लेकिन यहीं वो स्वर्ग-नरक दिखा देता है। और . . . यही हुआ। 

एक बहुत शानदार शादी पर हम पहुँचे तो देखा कि भाई का परिवार ही कहीं नहीं दिखा। कुछ नाराज़गी थी, नहीं बुलाया गया था। उनके पापा याद आ गए। आधे परिवार का न होना दिल को कचोट गया। हाँ, उनके ससुराल के लोगों का ख़ूब जमावड़ा लगा था। दोस्त भी थे, सो शादी तो धूमधाम से हो ही रही थी। लेकिन ख़ून का उबाल नहीं था। मुझे अपने लोगों की कमी के कारण, कुछ चुभ रहा था।

भौतिकतावादी विचारधारा ने जकड़ लिया है इंसान की फ़ितरत को। संयुक्त परिवारों की बात ही कुछ और थी। घर के चप्पे-चप्पे से रिश्तों की खनखनाहट सुनाई देती थी। वहीं एकल परिवारों में केवल टीवी की आवाज़ ही पसरी रहती है, वो भी अलग-अलग कमरे में से अलग आवाज़। उसे छीनने भी “मोबाइल“नाम का जिन्न आ गया है। 

अब जो चाहे मर्ज़ी कहो, अपने हैं तो रिश्ते हैं। ये एहसास के पक्के धागे हैं। जिनसे जुड़े हैं वहीं बँधे हैं। 

—वीणा विज ‘उदित’

1 टिप्पणियाँ

  • आदरणीय वीना जी के संस्मरण सच की धरती से उठे होते है।उनमें भावनाएं अनुभव मनोस्थिति का सुंदर वास्तविक कa चित्रण देखने को मिलता है

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