काण विवाह

15-05-2025

काण विवाह

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

(यह कहानी छत्तीसगढ़ी भाषा में ना लिखकर साधारण भाषा में लिखी गई है) 

 

छत्तीसगढ़ में सबसे घने जंगल को नंदनवन कहते हैं। यहाँ कुठामुड़ा गाँव में हाथी बहुत होते हैं। यहाँ के लोग रावत होते हैं। यहाँ वन कम है और गाँव में मिट्टी के घर हैं। पास के जंगलों में कुल्हाड़ी लेकर लोग जाते हैं और लकड़ी काट कर ले आते हैं। पानी का स्रोत यहाँ पर कुआँ ही है। वैसे अब गाँव में तो पंचायत भी है और यादव लोग भी हैं लेकिन फिर भी मूलभूत समस्याएँ बहुत हैं। 

यहाँ पर साल वन, सागौन वन (टीक) और मिश्रित वन हैं! यह जंगल डरावने हैं हसदेव का जंगल झारखंड से भी लगा हुआ है। यहाँ पर विभिन्न जातियों के पक्षी पाए जाते हैं। भारतीय वन अनुसंधान और शिक्षा परिषद में इसे सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। जंगलों के ठेके बहुत दिए जाते हैं। यदि जंगल कट गए तो प्राकृतिक आपदाएँ आ जाएँगी। इसीलिए छत्तीसगढ़ के पेड़ों को पर्यावरण की ख़ातिर काटने से रोका गया है। 

इसी जंगल में रहते हैं लखमा और उसकी पत्नी मंदिना। मंदिना ने अपनी घास-फूस की झोपड़ी में धरती पर बिछी बाँस की चटाई पर, साथ में लेटे हुए लखमा को हिलाते हुए पूछा, “काहे लखमा, तुमको नींद कैसे आ जाती है? कोई चिंता है कि नहीं?” 

“क्यों रात हो गई है तो सोए का है कि नहीं?” वह बोला। 

“अपनी कलनी (बिटिया) पाँच बरस की हो गई है तो ब्याह करे का है ना!”

“हाँ, तो करेंगे ना! जैसा तुम्हारा हुआ रहा। अब सोए दे।”

इतना बोलकर वह तो सो गया और थोड़ी देर में खर्राटे भी भरने लगा। इधर मंदिना अपने बचपन की यादों में गुम हो गई। 

छत्तीसगढ़ के गरियाबंद ज़िले के “रसिल गाँव” की ओर ‘गूड़ा पहाड़’ के आसपास के घने जंगलों में ही ‘भुनझिया आदिवासियों’ के इसी क़बीले में ही तो जन्मी थी वह। उसका बचपन भी यहीं बीता था और अपनी परंपराओं के अनुसार वह यहीं बस गई थी। वर्तमान युग की आधुनिकता से परे देश की धरोहर अनुसूचित जन जातियों और आदिवासी जातियों को इस प्रदेश के बीहड़ जंगलों ने अपने भीतर सँभाल कर रखा हुआ है। देश की तक़रीबन आधी जनजातियाँ इन्हीं घने बीहड़ वनों में बसती हैं। ढेरों जनजातियाँ थोड़े-थोड़े फ़ासले पर हैं। यहाँ जंगल बहुतायत में हैं तो खाद्यान्न उत्पादन भी ख़ूब हैं। उसे मालूम है कि जंगली लोग मेहनती और ताक़तवर होते हैं क्योंकि ये अपने उगाए अनाज पर पलते हैं। मंदिना के घर में भी तो अपने जंगल के कंदमूल और दाल-चावल पकाते हैं। यह लोग सुन रखे हैं, लेकिन अभी तक ये लोग नक़ली खाद यूरिया आदि का प्रयोग नहीं करते हैं। यहाँ मज़दूर यानी कि श्रमिक बहुत सस्ते मिलते हैं। इनकी अपनी संस्कृति और रीति रिवाज़ हैं जिन्हें यह बहुत ईमानदारी से मानते हैं। मंदिना का मेल भी तो लखमा से साल वन की कटाई के समय होता था। वहीं इनका प्रेम पनपा था। 

मंदिना को अपनी साँवली देह की चमड़ी पर बहुत गर्व था। मंदिना और उसकी गुंइयां (सहेली) कविता हर महीने ताल के किनारे की नरम मिट्टी में गले तक डूब कर दोपहरी तक मिट्टी स्नान करती थीं। अपने को धोती से साथ वाले पेड़ से बाँध लेती थीं। फिर उसी को पकड़कर मिट्टी से बाहर आकर ताल में स्नान करती थीं। इससे दोनों की चमड़ी ख़ूब चमकती थी। पूर्णमासी वाले दिन, यह दोनों ऐसे माटी स्नान करती थीं। 

लखमा कहा करता था, “तेरी चमड़ी पर मेरी नजर फिसल जाती है, तू बहुत सुंदर है।”

यह सुनकर, मंदिना मंद मंद मुस्काती थी और गर्व से फूली नहीं समाती थी। 

इन लोगों का क़बीले से बाहर के जनजीवन से कोई सरोकार नहीं होता है। देसी टोटके और घरेलू इलाज से यह अपने दुख-रोग से छुटकारा पा लेते हैं! तभी इस क्षेत्र के यह लोग आत्मनिर्भर हैं। 

उसे आज भी याद है कि पाँच वर्ष की होने पर उसका ‘तीखा लोड़ी’ या ‘काण विवाह’ संपन्न हुआ था। वह परेशान थी कि सारा क़बीला उसको हल्दी तेल लगाए जा रहा है और उसकी महतारी (माँ) उसकी गोद में लिए बैठी रही, किसी को कुछ नहीं कहती थी। जब भी किसी की बेटी का काण विवाह होता तो वह परेशान हो जाती थी। कुछ बड़ी होने पर उसने दायी (माँ) से इन रस्मों का कारण पूछा तो उसने बताया था, “छोटी कन्याएँ जब तक उनका मासिक धर्म नहीं आता वह पवित्र और पूज्य होती हैं। तभी उनका विवाह आठ वर्ष की आयु से पूर्व कर दिया जाता है। यह बिना दूल्हे के विवाह धनुष बाण के एक बाण से होता है। यह रस्म हो जाने के बाद कन्या का जीवन स्वतंत्र हो जाता है। अपनी यौवन अवस्था में फिर वह किसी को भी अपना दूल्हा चुन सकती है। माता-पिता के कहने पर भी उनकी पसंद के दूल्हे से भी शादी कर सकती है या प्रेम विवाह भी कर सकती है। उसे कोई मना नहीं करता है। ज़रूरी है कि उसका दूल्हा बस अपनी बिरादरी का होना चाहिए। अब तुम आज़ाद हो।”

यह सब सुनकर मंदिना के सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया। उसे इन रस्मों की सार्थकता समझ आ गई थी। 

लेटे हुए मंदिना की आँखें चमक उठीं याद कर के कि तभी उसने माँ को लखमा के बारे में बताया था। 

क़बीले की लाल दीवार की झोपड़ी में देवताओं का वास होता है। माँ ने उन दोनों की शादी के समय बताया था, “दूल्हा देव सबले परमुख कुल देवता से। अऊ उखर संगे-संग सूवा देव, सूरज देव, नारायन देव येहू देवता मन जाति म परमुख इस्थान रइथे, तमो ले गोड़ जनजाति मन के सबले बड़े अउ परसिद्ध देवी बस्तर के दंतेश्वरी दाई हे।”

देवताओं के विषय में ज्ञान पाकर, मंदिना तो मानो ज्ञान की गंगा में नहा गई। उसने लखमा को सब बताया और वहीं जाकर दोनों ने एक दूसरे को माला पहनाई और क़बीले की औरतों ने ख़ूब नृत्य किया। ‘सुआ गीत’ गाया। 

“जिया जलेती रीता जानी, जिया जलेती रीता जानी 
बलम सुगाजी, हो बलम सुगाजी, हो ओ बलम सुगाजी।”

गीत याद करके उसके चेहरे पर अँधेरे में भी मुस्कुराहट छा गई और वह अपने आप में लजा गई। 

जंगल के एक कोने के गूड़ा पहाड़ के पीछे की ओर से जहाँ ढेरों जनजातियाँ थोड़ी-थोड़ी दूर पर अपने टोले बना कर रहती हैं और सप्ताही बाज़ार जिसे रँगीला बाज़ार कहते हैं—में एक दूसरे से मिल पातीं हैं। हालाँकि उन्हें बीहड़, घने जंगलों को पैदल पार करके रँगीला बाज़ार पहुँचना होता है। असल में गृहस्थी की ख़रीदारी के लिए उनको हाट लगने के दिन की प्रतीक्षा रहती है। सारी ख़रीदारी कपड़ा लत्ता, मोती और पत्थर के गहने, नून मसाला, अनाज, बच्चों के खिलौने आदि सब यहीं से यह लोग ख़रीदते हैं। अपने-अपने प्रेम और संबंधों के आधार पर फिर यह लोग एक दूसरे के ग़म और ख़ुशी में सम्मिलित होने के लिए वहीं एक दूसरे को वह लोग निमंत्रण दे देते हैं। इसी रँगीला बाज़ार से शादी के बाद दोनों अपनी ज़रूरत का सामान ख़रीद लाते थे। 

शादी होने के कुछ महीने बाद लखमा ने उससे पूछा था, “तू शादी से बहुत खुश है?”

“हाँ रे, मेरे बप्पा कहते हैं हम आदिवासी की अलग जातियों में बहुत तरह के विवाह होते हैं। ‘परिगंधन विवाह’ में लड़का जिसको प्रेम करता है उस वधू का मूल्य देता है अपनी हैसियत के अनुसार भूमि, जानवर या पैसा। तुझे पता होगा इसे क्रय विवाह भी कहते हैं और तुझे तो मेरे से ब्याह करने के लिए कुछ भी नहीं देना पड़ा। “

“खुसी की बात तो ई है कि कहते हैं महाभारत में राजा पांडु का कुंती के बाद, दूसरा विवाह मादुरी के साथ बहुत धन देकर हुआ था। मेरे बप्पा के पास पैसा कहाँ था? यदि हमके यहाँ पैसे देकर क्रय विवाह करना होता तो तू मुझे कैसे मिलती? तुझे पता है हमारी तरफ माझी जनजाति, मोरिया जनजाति की बस्तरिया शादी में दो लड़कियों का इकट्ठे बियाह रचाते हैं।”

मंदिना ने इठलाकर कहा था, “मुझे तो अलग-अलग शादी का नाम भी पता है जैसे सेवा विवाह, हठ विवाह, पठोनी विवाह, विधवा विवाह, पठौनी विवाह, पाटो विवाह और सबसे अधिक प्रचलित बरोखी बिहाऊ होता है। जो आम लोग करते हैं। सीधी तरह से दूल्हा-दुल्हन का बियाह।” 

मंदिना कलनी [बिटिया] के पैदा होते ही कितनी ख़ुश थी कि उसकी जाति में ‘काण विवाह’ होता है। वह तब सोचती रहती थी उनको वर ढूँढ़ने नहीं जाना पड़ेगा। कलनी बड़ी हो जाएगी, तो अपने आप उसे कोई ना कोई मिल जाएगा जैसे मंदिना को लखमा मिल गया था। देवी माँ की कृपा है कि लखमा भुंजा जाति का रहा, तो वर खोजने का चक्कर नहीं करना पड़ा था। अब तो कलनी के खेलने के दिन थे। बाक़ी लड़कियों की तरह वह भी खेल कूद कर बड़ी हो जाएगी तो कोई ना कोई मिल ही जाएगा उसे भी। 

कलनी के पाँच बरस की होते ही फटाफट उसके काण विवाह की तैयारी होने लगी थी। लखमा मंदिना व कलनी को लेकर रँगीला बाज़ार गया और झोले भरकर सामान ले आया। 

उसके अगले दिन वह दोनों को लेकर ‘भरोदा’ गाँव के घने जंगल में एक काले पत्थर के भरकम चट्टान जैसे एक प्राकृतिक शिवलिंग के दर्शन को चल पड़ा। उस शिवलिंग की मान्यता है कि वह हर वर्ष 5-6 इंच बढ़ जाता है ऊँचाई में। इसे ‘भूतेश्वर नाथ’ के नाम से जाना जाता है! वह बीस फ़ुट गोलाकार है और अभी तक़रीबन अठारह फ़ीट का है। वह इसी गरियाबंद ज़िले में है। वहाँ बिटिया को माथा टिकाकर, आशीर्वाद लेकर यह लोग वापस आकर गाँव में घंटी बजा कर बोल दिए कि इसी इतवार को कलनी का ‘काण विवाह’ यानी ‘तीखा लोड़ी’ है! 

मंदिना बहुत प्रसन्न है कि वह गोण ‘भनझिया आदिवासी’ है, जहाँ बिना दूल्हे के बेटी काण [तीर] से ब्याही जाती है। वर्ना अलग-अलग मानस के अलग-अलग रिवाज़ हैं। ‘माझी जनजाति’ में दो मंडप की सिरगुजिया शादी होती है। इसी तरह ‘मुरिया जनजाति’ की बस्तरिया शादी भी होती है। ‘बैगा जाति’ की लड़की की शादी से पहले माथे पर गोदना गुदवाया जाता है। मंदिना की जाति में ये रिवाज़ नहीं है, अच्छा है उसकी कलनी का माथा बच गया। 

काण ब्याह का सुनकर ‌क़बीले के मर्द लोग ख़ुशी-ख़ुशी बाँस काट कर ले आए और एक जगह बैठकर बाँस को छीलकर तरह-तरह के फूल पत्ते बनाकर बाण का सेहरा और दुलहन के माथे का सेहरा या मुकुट, दुलहन का शृंगार बनाने लग गए। चारों ओर चहल-पहल मच गई। बीच का आँगन जो धूल से भरा था उसे वहाँ की औरतें साफ़-सुथरा कर के लीपने-पोतने लग गईं। वे शादी के सगन वाले गीत संग-संग गाए जा रही थीं। 

जब रात तक सब काम हो गया तो सुबह उठते ही पाँच साल की कलनी को छोटी सी बॉर्डर वाली सफ़ेद धोती पहना दी गई जो रँगीला बाज़ार से लाई गई थी। अपने समय को याद करती, उसकी महतारी यानी मंदिना उसको गोद में उठाकर बाहर ले आई। संग में दूसरी तरफ़ मंदिना की बहिन ने कलनी को पकड़ा। 

आँगन के बीच में सफ़ेद चाक पाऊडर से ‘मड़ुआ’ यानी मंडप पूरा गया। कलनी को लगा मंडप जैसा उसने कहीं देखा है–कहाँ? फिर याद आया! कोई-कोई लोग अपने घरों की दीवारों पर ऐसे ही मंडप बनाकर उन्हें रंग से सजाते हैं। एक पीतल का लोटा लेकर उसके ऊपर भी गोबर से और फूल पत्तों से सजाकर मंडप के बीचों-बीच रखा गया। उसी के किनारे अपनी गोद में बिटिया को लेकर महतारी और मौसी बैठ गईं। गाँव में चप्पल पहनने का कोई रिवाज़ नहीं है सारी उम्र नंगे पाँव ही सब लोग रहते हैं। काण [बाण] सामने की ओर एक बार धरती में गाड़ दिया गया। दो औरतें एक थाल में ढेर सारा तेल हल्दी और पिसा चावल मिलाकर ले आईं। इसके बाद बारी-बारी से एक-एक औरत आती रही और कलनी के पैरों को हल्दी छुआ कर गोड़ (घुटने) फिर माथे तक लगाती रहीं। सभी के मुँह में अपनी भाषा में शगुन वाले शादी के गीत चलते रहे। 

कलनी को उठाकर अब लाल कोठी में ले गए और वहाँ पर क़बीले की सबसे बुड्ढी औरत के पैर छुआए। उसने कलनी के ऊपर चावल का छिड़काव किया और वह भी संग में आ गई। उसने भी आकर दुलहन को तेल हल्दी लगाई। इसी दाई माँ के कहे अनुसार अब आगे का रीति रिवाज़ होने लगा। तब तक बाक़ी महिलाएँ भी आपस में हल्दी एक दूसरे को लगाकर होली जैसा माहौल बना रही हैं। ख़ूब गाने और हँसी खेल चल रहा है। स्त्रियों के मुखारविंद से मीठे-मीठे संगीत में गीत माहौल में घुल रहे हैं। पहाड़ के ऊपर की बस्ती से ताओ जनजाति के लोग भी आए हैं शादी में सम्मिलित होने। 

अब मड़ुवा गुँजाने लगे, लड़की सात फेरे लेगी वहीं ज़मीन पर गड़े हुए काण [बाण] के साथ। इसे ‘खपर’ बोलते हैं! सूखा लंबा-लंबा घास भँवरा को झाड़ू की तरह एक बाँस के ऊपर बाँधकर उस पर आम के पत्ते लगाए गए। कहते हैं यह सूखा घास क़ीमती होता है। 

अब लड़की को नहलाने के लिए घने जंगल के तालाब की तरफ़ ले जाना है, जो काफ़ी दूर है। इसलिए शादी में आये सब लोग एक स्थान पर इकट्ठे होकर ढोल-नगाड़े बजाते भीतर की ओर ले जाते हैं! इससे जंगल के भीतर बसे जंगली जानवरों का भय नहीं रहता है। वहाँ भीतर स्वच्छ नदियों का प्रवाह मिलता है। 

आज भी सब ढोल-नगाड़े बजाते मंदिना की कलनी को वहाँ ले चले हैं। अर्थात्‌ आधी शादी हो गई है। तालाब में उसे निहलाकर वापस ले जाकर एक बार फिर फेरे होंगे। तालाब में पानी खेला जब हो गया तो बाँस की एक गोल थाली में दीप जलाना ज़रूरी है, तो वह जलाया गया। हल्दी-तेल पानी में नहाने से उतर गया। अब उसकी पुरानी धोती उतार कर दूसरी पीली धोती पहनाई गई है। 

इससे अगली रस्म है कि दो पुरुष एक चादर तान कर रखते हैं दोनों किनारों से पकड़ कर। उसकी एक ओर दुलहन व दोनों स्त्रियाँ उसकी माँ और मौसी और दूसरी ओर क़बीले की स्त्रियाँ होती हैं। चादर लेकर मड़ुवा (मंडप) भुंझाते हैं। जो कि सफ़ाई करके दोबारा मंडप पोता गया है। अब दुलहन के माथे पर डोरी बाँधकर उसके आगे बाँस के फूलों का सेहरा यानी मुकुट सजाया गया है। इसी तरह का एक और सेहरा पास में ज़मीन में गड़े हुए बाण (काण) को भी बाँधा गया है। दुलहन के एक और सात फेरे जिसे ‘खपर’ बोलते हैं, वह भी हुए। यह सारा कार्य इस बुड्ढी दाई माँ के कथनानुसार हो रहा है। यह लोग अब फिर तालाब की ओर जा रहे हैं गोद में दुलहन को उठा लिया गया है और उसके पीछे बाक़ी लोग भी ढोल-नगाड़े बजाते और सारा दिन वहाँ दरीचों से झाँकती आती सूर्य की किरणों से दिशा ज्ञान लेकर अपने देवी-देवता का नाम जपते हुए जलप्रपात के स्वच्छ पानी में स्नान करके तालाब में जाकर दुलहन का, बाण का मुकुट वग़ैरा बहा देते हैं। माथे की डोरी उतार कर वहीं ज़मीन में गाड़ दिए हैं। इस का तात्पर्य है कि अब विवाह संपन्न हो गया है, बिना दूल्हे के। साँझ से पहले टोले में उसे वापस घर ले आते हैं। लखमा के हाथ में बाण है। वह बहुत प्रसन्न है कि उसकी बेटी का ‘काण विवाह’ हो गया है। 

मर्द के सिर पर यह बहुत बड़ी ज़िम्मेवारी होती है क्योंकि अगर देर हो जाए और लड़की को मासिक धर्म आ जाए तो उसकी शादी फिर कभी नहीं हो सकती है। हालाँकि उनके क़बीले में ऐसा कभी नहीं हुआ था। 

घर आँगन में वापस आकर सारी बिरादरी को बिठाकर उनके सामने सिरई के पत्तों से बने पत्तल रक्खे गए फिर उनके हाथ पत्तल के ऊपर ही पानी से धुलवाये गए। बाद में उन पत्तलों पर गरम-गरम भात और दाल परोसी गई। 

जब सारा ब्याह संपन्न हो गया और लोग खा पीकर अपने अपने घर चले गए तो मंदिना ने अपनी लाड़ो बिटिया कलनी के बलैया उतार कर उसको छाती से चिपका लिया और बोली, “तुम थोड़ी और बड़ी हो जाओ फिर मैं तुमको सारी बातें समझा दूँगी! इस अचरज भरे रस्मों रिवाज का बहुत मर्म है जिनगी में खुश रहने का। उसी के कारण तो मैंने लखमा को पाया था। तुम्हारा भी कोई दूल्हा कहीं इंतजार कर रहा होगा। वह हमें अचानक रँगीला बाजार में मिलेगा।”

उसकी थकी हुई पस्त कलनी अपना मुँह फाड़े, अपनी काजल लगी आँखें फैलाये थोड़ा समझती, कुछ नहीं समझती उसकी बात सुनती रह गई। 

अब आख़री बार समूचा क़बीला ढोल नगाड़े बजाता जंगल के भीतर जलप्रपात के नीचे स्नान करने जाता है। वहाँ भीतर स्वच्छ नदियों का प्रवाह मिलता है जो जलप्रपात के रूप में आगे की ओर बहता चला जाता है। किसी भी शुभ कार्य के संपन्न होने के पश्चात् या किसी की मृत्यु होने पर दाह-संस्कार से फ़ारिग़ हो जाने के बाद लोग एकत्रित होकर वहाँ जलप्रपात के नीचे स्नान करने जाते हैं। मानो उस दिन कार्य की समाप्ति हो गई। सो यह लोग भी अब बियाह की समाप्ति कर आए थे। 

[नोट: विश्व प्रसिद्ध ब्यूटीशियन शहनाज हुसैन ने इन्हीं आदिवासियों की त्वचा का अन्वेषण करके मड थेरेपी से अपना काम बढ़ाया है। एक स्नान के वह $500 लेती है। इसी से उसने बहुत प्रसिद्धि पाई है।] 

1 टिप्पणियाँ

  • 15 May, 2025 01:54 AM

    आदिवासी जीवन की जीवंत झाँकी... रीति रिवाज का विशद चित्रण.. लेखिका की अनुभवी और शोधपरक दृष्टि और चित्रात्मकता रचना को रोचक बनाते हैं।

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