छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–47

15-02-2024

छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–47

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 247, फरवरी द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

सान फ़्रांसिस्को (कैलिफ़ोर्निया) 

अब हम अमेरिका के पश्चिमी तट पर आ पहुँचे थे। एसएफ़ओ एयरपोर्ट पर मेरी सहेली मंजू गुप्ता के छोटे भाई राजन गुप्ता जी हमें लेने आए हुए थे। 

रेन फ़ॉरेस्ट रेस्टोरेंट में ले जाकर सर्वप्रथम उन्होंने हमें हरियाली के मध्य बैठा कर नाश्ता करवाया। राजन का ऑफ़िस वहीं पास में था सो सामान वहाँ रखकर हम लोग सैन फ्रांसिस्को घूमने निकल गए थे। ऊँची-नीची सड़के थीं, वहाँ ट्राम जैसी बसें चल रही थीं। कमाल था –हमने लोकल बस की-एक बार टिकट ले ली और उसी टिकट पर हम बस में चढ़ जाते थे फिर उतर जाते थे। फिर दूसरी बस में चढ़ जाते थे। आनंद ले रहे थे। 

चूँकि वहाँ की सड़कें बहुत शानदार हैं, एक सड़क टेढ़ी-मेढ़ी होने और ईंटों से बनी होने से वहाँ के लिए अजूबा थी। इसलिए उसका नाम क्रुकेड रोड (Crooked Road) था। (जबकि हिमाचल प्रदेश भारत में ऐसी ही सड़कें होती हैं। अँग्रेज़ क्या जाने खड्ड, गड्ढों से भरी टूटी-फूटी सड़कें, जिनमें पानी और कीचड़ भरा होता है, हम तो उनको भी क्रुकेड रोड नहीं कहते /) मुझे तो इनकी सोच पर हँसी आ रही थी। अब हम ऐसी सड़क देख रहे थे . . .? वह भी अमेरिका पहुँचकर!! 

प्रशांत महासागर का यह समुद्री किनारा था इसे बे एरिया (Bay area) कहते हैं। यहीं पर जग प्रसिद्ध गोल्डन गेट ब्रिज बना है। इसके ऊपर सभी घूम रहे थे नीचे बोट्स खड़ी थीं। आधुनिक टेक्नॉलोजी का यह विशेष नमूना है। यहाँ किनारों पर टूरिस्ट्स के लिए तरह तरह के खाने पीने का सामान था। एक दुकान पर बड़े-बड़े केकड़े (crabs) तल कर रखे हुए थे, जिन पर लाल रंग का मसाला लगा था। हमसे तो देखे भी नहीं जा रहे थे, लेकिन खाने वालों के लिए वह लज़ीज़ खाना है। फिर भी पास खड़े होकर मैंने एक फोटो खिंचवाई थी। 

वहीं सात काले रंग के पुरुष अपना बैंड बजा रहे थे। उनके सामने एक बॉक्स रखा था, आने-जाने वाले उस पर एक या दो डॉलर डाल जाते थे। जैसे भारत में रेल में गाने वाले माँगते हैं अपनी कला के एवज़ में। यह भी भिखमंगे थे। 

इसी तरह तीन-चार चीनी बुड्ढा और बुढ़िया कचरे के बड़े डब्बों में से कोक के टिन निकालकर अपने बोरों में भर रहे थे बेचने के लिए अर्थात्‌्‌ ग़रीब भी रद्दी इकट्टी कर रहे थे, अपनी आजीविका हेतु। 

अमेरिका के विषय में ऐसा परिदृश्य मेरी कल्पना में नहीं था। वास्तविकता पता लग रही थी। अर्थात्‌ ग़रीब और अमीर हर देश में होते हैं। हमें तो लगता था अमेरिका बहुत अमीरों का देश है। यह भ्रांति हट रही थी। प्रशांत महासागर में सूर्य का गोला जब अपनी लाली लिए डूब रहा था तो हमने भी वापसी की राह ली। राजन के साथ उनके घर गए। काफ़ी आलीशान घर था राजन का। 

नापा वैली (Napa Valley) 

अमेरिका में तो सब बहुत व्यस्त रहते हैं तो हमने अगले दिन वहाँ की टूर बस ले ली Napa Valley घूमने के लिए। चारों तरफ़ अंगूरों से भरे थे बाग़। ‘वाइनरीज़’ के नाम अलग-अलग थे। हम जिस वाइनरी में जाते थे, वहाँ विजिटर को वाइन टेस्ट करवाई जाती थी। जैसे कि हम वाइन पीने वालों में से नहीं थे तो हमारे ग्रुप को सादी (non toxic) और बाक़ी लोगों को नशीली वाइन दी जाती थी टेस्ट करने के लिए और साथ में मूँगफली का सैशे अर्थात् 10 मूँगफली के दाने का छोटा सा पैकेट गिफ़्ट दिया जाता था। 

वाइन बनने की पूरी प्रक्रिया भी दिखाई गई। यह तो हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि देख पाएँगे। ज्ञान वृद्धि हो रही थी उस युग में जब ऐसे ज्ञान पाने का कोई और साधन नहीं था। हरे अंगूर और काले अंगूर के गुच्छे देख-देख कर और उनकी खेती देख कर मन हार्दिक प्रसन्नता से भर रहा था। एक आध खेत ख़ाली भी हो चुके थे। अंगूर उतारने के बाद उसकी झाड़ियों को एक जैसा काट दिया जाता है।
 
मंजू के मम्मी पापा को मुंबई के बाद मैं अब मिल रही थी। पापा को पार्किंसन डिज़ीज़ हो चुकी थी, फिर भी मैं उनको याद थी। इस तरह 4 दिन रह कर अमेरिका के पश्चिमी छोर को विदा कह कर, हमने दुबारा से वाशिंगटन की फ़्लाइट ली। 

वापस आकर हम टोनी बहन के घर में बैठे थे तो उसने देखा मेरे दोनों जूतों के डिज़ाइन एक दूसरे से फ़र्क़ हैं। A. Gear के sneakers थे। टोनी के American express Card पर हमने वह ख़रीदे थे। वह Mall में गई और उसने दिखाया। उन्होंने उसी समय हमें दूसरी नई जोड़ी दे दी। मैं हैरान थी इस देश के कैरेक्टर पर! हमारे भारत में तो एक बार कोई चीज़ ख़रीद ली तो वह ग्राहक की हो गई अब दुकानदार का कोई मतलब नहीं होता है लेकिन अमेरिका में बहुत ईमानदारी और सच्चाई है। हम बहुत प्रभावित हुए!! 

एप्लेशियन और नायग्रा फ़ाल्स

बहन उषा और सुरेंद्र भाई साहब एक बार फिर एप्लेशियन से ड्राइव करके हमें लेने के लिए टोनी के घर फ़ेयरफ़ैक्स काउंटी आ गए थे। अब हम वहाँ पर 6 बहनें इकट्ठी हो गई थीं। केवल पप्पू नोएडा में थी इंडिया में। बहुत रौनक़ का माहौल बन गया था। 

सुरेंद्र भाई साहेब आई.बी.एम. में काम करते थे। मार्च का आख़िरी हफ़्ता था। उनके एरिया में बहुत ठंड थी। उसे ‘नॉर्थ अपस्टेट’ बोलते हैं, हम दोनों उन दोनों के साथ नॉर्थ अपस्टेट जा रहे थे। रास्ते में पुरानी कारों का डंपिंग यार्ड देखा। अर्थात्‌ पुरानी कारों को एक खाई में फेंका हुआ था। वहाँ अनगिनत कारें खड़ी थीं। हम पहाड़ के किनारे-किनारे बने रास्ते से गुज़र रहे थे जिसके एक तरफ़ पहाड़ और दूसरी तरफ़ खाई में कारें थीं। 

अत्यधिक ठंड के कारण पहाड़ के किनारों पर पानी जमकर शीशे की तरह लटक रहा था। प्राकृतिक सौंदर्य का यह एक अनोखा नयनाभिराम दृश्य था! 

उषा का घर स्ट्राबरी डिज़ायन का बना हुआ था। वॉलपेपर, सजावट, क्रोकरी सभी कुछ स्ट्राबरी डिज़ाइन का था। हृदय में अनोखी . . .मातृत्व और बड़ी बहन के स्नेह की अनुभूति हुई यह सब देख कर। मुझे घर पर प्यार आ रहा था और उसे मुझ पर प्यार आ रहा था! (जबकि बचपन में हम दोनों बहुत लड़ती थीं) 

एकदिन हम लोग नायग्रा फ़ाल्स देखने गए। उसका छोटा बेटा सोनू नायग्रा यूनिवर्सिटी में बीबीए कर रहा था, वह भी वहीं आ गया था। मार्च में फॉल्स अभी थोड़े-थोड़े किनारे से जमे हुए थे। वहाँ इतनी अधिक ठंड थी कि हम सब काँप रहे थे। लेकिन एक बहुत बड़ा अनदेखा ख़्वाब आज पूरा हो रहा था। 

पानी के गिरने का बहुत शोर था। सैंकड़ों जलधाराएँ बहुत ऊँचाई से नीचे गिर रहीं थीं। सूर्य की रोशनी में जल धाराओं से निकली पानी की बूँदें इंद्रधनुषी रंग की चमक दे रही थीं। ऐसा अलौकिक दृश्य धरती पर कहीं और देख पाना असंभव है। एक दूसरे की बात सुनाई नहीं देती थी। वैसे मुँह से बात निकल भी नहीं रही थी। ठंड के मारे अक्षर मुँह में जमे जा रहे थे। 

ऐसा नायाब नज़ारा कहाँ दिखना था! नायग्रा बहुत अधिक चौड़ा था। अमेरिका के दूसरी तरफ़ कैनेडा था जो नायग्रा के पुल से जुड़ा था। पुल के इस तरफ़ पासपोर्ट देखा जाता है और फिर पुल पार करके टोरोंटो में पहुँच जाते हैं। यह परमिशन कुछ घंटों के लिए मिलती है। वहाँ जाकर आप रिवाल्विंग रेस्टोरेंट में खाना खा सकते हैं। या कहिए कैनेडा की धरती को छू कर आ सकते हैं। 

कॉर्निंग वेयर ग्लास सेंटर म्यूज़ियम एंड ऑडोटोरियम

वापसी में हम लोगों को वे कॉर्निंग वेयर ग्लास सेंटर म्यूज़ियम एंड ऑडोटोरियम लेकर गए। मेरी अभिरुचि थी इनमें। जालंधर में आर्मी कैंटीन से मैंने कोर्निंग वेयर के काँच के डोंगे लिए थे। जिनके बारे में कहते थे कि यह कभी टूटते नहीं। अविश्वसनीय लग रहा था कि आज हम वही देखने जा रहे थे। ईश्वर की लीला भी न्यारी है . . . हम इतना कुछ देख रहे थे कि वहाँ रहने वाले लोगों ने भी नहीं देखा था। अपने आप को सौभाग्यशाली मान रहे थे और उसका धन्यवाद कर रहे थे हर पल, हर दिन! 

भीतर क्रिस्टल काँच का काम देखा। क्या कमाल की कारीगरी अँग्रेज़ कारीगर कर रहे थे! हाथों से काँच की कटिंग कर-कर के! मुझे अपने कश्मीर के हुनरमंद कारीगर उनकी तुलना में याद आ रहे थे। वे लकड़ी, शाल, कपड़े और कालीनों में जान डाल देते हैं पर यह काँच पर काम कर रहे थे। बेहद बारीक़ काम–जो हल्के से धक्के से भी टूट सकता था। उनके हाथ में छोटी सी हथौड़ी के दबाव का कमाल था। क्रिस्टल बन रहे थे। 

इनके हाथों की बनी काँच की मूर्तियाँ शीशे के फ़्रेम में रखी हुई थीं। आप देखें तस्वीर, हैरानी होगी। यादगार की तौर पर मैंने वहाँ की गिफ़्ट शॉप से एक छोटा डोंगा ले लिया था, जो आज भी मेरे पास है। अब तो लगातार ज्ञान में वृद्धि हो रही थी। इंसान सारी उम्र सीखता ही रहता है। शायद अंतिम समय तक . . .! 

रात हम सोए और जब सुबह उठे तो हैरान थे देखकर। घर के बाहर 5 फुट ऊँची बर्फ़बारी हो चुकी थी। सुरेंद्र भाई साहब बेलचा लेकर दरवाज़े के सामने से बर्फ़ हटा रहे थे। यह बहुत मुश्किल बात लगी। यह काम तो वहाँ सब को करना पड़ता है अपने घर के लिए। हमने तो जमकर फोटोग्राफी की मज़ा आ रहा था। कश्मीर में भी बर्फ़ बहुत होती है लेकिन हम सर्दियों के दिनों में वहाँ नहीं होते हैं इसलिए इन मुश्किलों का हमें नहीं पता था। 

उषा ने बहुत ख़ातिरदारी की। तरह-तरह के खाने खिलाए। अप्रैल के पहले हफ़्ते में हम वॉशिंगटन वापस आ गए क्योंकि बैसाखी के दिन हमारी इंडिया की वापसी की फ़्लाइट थी। 

सबसे छोटी बहन स्वीटी और संजीव के साथ एक दिन हम ‘बाल्टीमोर हार्बर’ घूमने गए। वहाँ पुराने ज़माने के समुद्री डाकुओं के तरह तरह के जहाज़ हार्बर पर खड़े थे। वहाँ ‘डॉल्फिन शो’ भी देखा। डॉल्फिन मछलियाँ इंसान की तरह ट्रेन्ड थीं। ट्रेनर के साथ ख़ूब करतब दिखा रही थीं। अच्छा ख़ासा मनोरंजन भी था और नया अनुभव भी था। 

अब हम बहन शोभा के घर रहे। वहाँ विनी ने पैन केक बनाकर खिलाए। रवि जी मलाई के साथ रोटी खाते हैं, यह पता लगते ही शोभा बहन के पति सुरेश जी एक दिन सुबह 4:00 बजे से उठकर रवि जी के लिए दूध उबाल-उबाल कर मलाई निकालते रहे। लेकिन उस दूध (pasteurized milk) में मलाई नहीं आती है। बेचारे थक गए पर मलाई नहीं निकली। इसमें उनका प्यार छलक रहा था। मलाई तो वैसे ही इंडिया में बहुत खाते थे। वहाँ ज़रूरत नहीं थी। 

हाँ, वहाँ आइसक्रीम बहुत खाई। 5-10 पौंड के कंटेनर लाते थे वे। 3-4 फ़्लेवर हर समय फ़्रिज में पड़े होते थे। शोभा, टोनी ने शॉपिंग भी कराई बच्चों के लिए। 

‘बनाना स्प्लिट आइसक्रीम’ हमने कुकू के पास बास्किन-रॉबिन्स में बहुत खाई। इस तरह मस्ती करते हम वापस बैसाखी वाले दिन इंडिया पहुँच गए थे। ढेरों नए अनुभव और ज्ञान का भंडार बटोर कर। हम दिमाग़ी तौर से ज्ञान और अनुभव की दौलत का ख़ज़ाना भर लाए थे। 

रवि जी के छोटे भाई कुकू ने बहुत ज़ोर लगाया था कि कश्मीर के हालात ठीक नहीं है और जालंधर में भी कुछ काम नहीं है इसलिए आप यहीं रह जाओ। एक स्टोर और ले लेते हैं। वह आप सँभाल लेना। लेकिन रवि जी का एक ही जवाब था परिवार की अहमियत को ध्यान में रखकर, “घर में बीजी हैं, फिर इंडिया में पाँच बहनें हैं, सौ दुख-सुख होगा। उसमें उनको कौन देखेगा, कौन ध्यान रखेगा? तुम यहीं रहो! मैं सब को नहीं छोड़ सकता।” और वक़्त का पहिया घूमता रहा! वक़्त भी बदल रहा था। 

अगली बार यादों का ज़खीरा एक अनोखी दास्तान लिए है। जिस पर हमें ही विश्वास नहीं होता था। मिलते हैं फिर . . .

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