समय के पंख 

01-02-2025

समय के पंख 

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 270, फरवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

“यह हुई ना बात! यह कच्चे-पक्के नींबू वाले हरे रंग का लहँगा तुझ पर बहुत फब रहा है!” कहते हुए इला ने नव्या के शरीर से सटा लहँगा-चोली नीचे उतार दिया। सुबह से दिल्ली के चाँदनी चौक में लहँगे की मार्केट की इतनी बारीक़ी से खोजबीन की जा रही थी कि अब साँझ ढले सब की बस्स बोल गई थी। कुछ पसंद ही नहीं आ रहा था! नव्या भी लहँगे पहन-पहन कर ट्राई कर-करके थक चुकी थी! माँ तो इस दुकान पर अधलेटी सी पड़ी थी आराम कुर्सी पर। ‘नव कीर्ति’ शादी के लहँगे की लाजवाब वैरायटी की दुकान थी! आख़िर माँ का बटुआ ढीला हुआ और बड़े-बड़े तीन डिब्बे पकड़े गली के बाहर निकल कर एक ऑटो रुकाकर तीनों राजौरी गार्डन के लिए चल पड़ीं। 

नव्या और इला दोनों सहेलियों ने कंप्यूटर इंजीनियरिंग इकट्ठी की थी। नव्या के बाबूजी को एक अच्छा रिश्ता अमेरिका का मिल गया तो अपनी बेटी के भाग्य को सराहते हुए उन्होंने उसकी रज़ामंदी से बात पक्की कर दी थी। असल में नव्या और विराट ने आपस में वीडियो कॉल, ईमेल यहाँ तक कि घंटों चैट भी की। और जब लगा कि मानसिक स्तर मिलता है, तभी हामी भरी। वह दोनों आभासी पटल पर इश्क़ कर रहे थे। अब दो हफ़्ते बाद उदयपुर में ‘डेस्टिनेशन वेडिंग’ थी। 

भावी जीवन के मधुर स्वप्न सँजोए हुए विराट और नव्या शादी के पश्चात एक-एक हफ़्ता अपने परिवारों में दिल्ली और इंदौर रहकर, बादलों की पालकी पर सवार होकर अमेरिका में अपने नीड़ में आ गए थे। विराट के पास दो बेडरूम का घर था जिसमें नव्या का रैन बसेरा होना था। 

विराट के परम मित्र शलभ और उसकी पत्नी ईरा ने द्वारचार करके नव्या का गृह-पदार्पण करवाया! नव्या को उनकी यह अदा ख़ूब भाई थी। नव्या ने आते ही ईरा से बहुत कुछ सीखने का यत्न किया। विराट ने उसे दाहिने हाथ की ड्राइविंग सिखाई और दो महीने बाद ही उसने ड्राइविंग की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर लाइसेंस ले लिया। साथ ही साथ में वह घर के लिए ख़रीदारी भी ख़ूब कर रही थी और पैसे खर्चने की आत्म संतुष्टि का भाव उसमें उत्साह-वर्धन किए रहता था। जीवन में आती नीरसता और एकरसता को तोड़ने के लिए शॉपिंग करना बहुत सफल उपाय होता है, लेकिन यहाँ तो ऐसा मौक़ा आया ही नहीं, वह मस्त थी। 

साथ ही साथ नव्या ने नौकरी के लिए आवेदन भी भेज दिए थे कई जगह। कोई जल्दी तो थी नहीं। वह गृहस्थी बसाने में बहुत मस्त हो गई थी। विराट को भी जीवन का आनंद आ रहा था। पाँच-छह महीने बाद दो-तीन जगह साक्षात्कार देने के बाद उसकी नौकरी लग गई थी। अब वह दुगने उत्साह से भर उठी थी। जीने का ढंग बदलने लगा था। 

नव्या बहुत मेहनत कर रही थी विदेश में गोरों की संगत में। काम का बोझ भी बहुत था तो कई बार पतिदेव को पत्नी सुख से भी वंचित रह जाना पड़ता था, जिससे वह बहुत खिन्न हो जाता था। शादी की दूसरी सालगिरह आते तक पता ही नहीं चला नव्या कब गर्भवती हो गई थी। उसे डबल बधाई मिल रही थी मित्रों से एवं परिवार से। उनके घर नन्ही वान्या आ गई थी। तीसरी सालगिरह पर उन्होंने नया घर ले लिया था। 

वान्या चलने लग गई थी तो मम्मी पापा के पास आकर लाड़ लड़ाती थी, जिससे ख़ुशी का माहौल बन जाता था। डे केयर में भी वह मम्मी का बेसब्री से इंतज़ार करती थी। विराट भी उससे खेलने के लिए घर आने की जल्दी करता था। सब कुछ ठीक चलने लग गया था कि तभी पता चला . . . नव्या के पाँव पुनः भारी हैं! 

नव्या की डिलीवरी पेट चाक करके हुई। बेटा हुआ। विराट को भी कुछ दिनों के लिए छुट्टी लेनी पड़ी। इस तरह की परेशानियों से घिरे विराट को हर दिन चिड़चिड़ाहट होने लगी थी। वह हर बात पर नव्या पर ग़ुस्सा निकालता। नव्या से अपनी सेहत का तो क्या बच्चों का ध्यान भी नहीं रखा जा रहा था। ऊपर से विराट का क्रोध सहना। उसकी भी बस्स बोल गई थी। 

वान्या नन्हे भाई को देखकर ख़ूब प्रसन्न होती थी और उसे काका कहती थी। उसके साथ ही छोटे ‘काके विराज’ को भी डे केयर सेंटर में डाल दिया गया। वहाँ अपने चेंबर में वान्या काका-काका कहकर रोती थी। जब उसे काका के चैम्बर में ले जाते तो चुप कर जाती थी। वह वहाँ से हटने को तैयार नहीं होती थी जिससे सब बच्चे डिस्टर्ब होते थे। अपने चेंबर में आकर वह रोती थी, जिससे सब बच्चे रोने लग जाते थे। वहाँ की मैडम लोग बहुत तंग आ गई थी उससे। उन्होंने नव्या को कह दिया कि वह उनके बच्चों को नहीं रखेंगी। उनका कुछ और इंतज़ाम कर लें। नव्या नई परेशानी से घिर गई थी। ऑफ़िस से छुट्टी नहीं मिल रही थी। अब वह बिना वेतन के छुट्टी ले रही थी। उसने विराट से कहा तो उसने साफ़ मना कर दिया। विराट चाहता था कि नव्या सिर्फ़ उसकी ओर ध्यान दे। पहले नव्या की नौकरी उसे बोझ लगती थी अब बच्चे उसे बोझ लगने लग गए थे। इस मामले में वह बहुत सनकी था। वह उल्टा उसी को डाँटने लगा, 

“मेरा ख़्याल है तुम नौकरी छोड़ दो या तीन-चार वर्ष का गैप डालकर फिर से नौकरी कर लेना आख़िर बच्चे तो पालने हैं और अगर नौकरी ना छोड़ सको तो इन दोनों को भारत अपने माँ-बाबूजी के पास भेज दो। वह पाल कर बड़ा कर देंगे तो हम इन्हें वापस ले आएँगे।”

विराट के मित्र शलभ और ईरा ने भी विराट को ख़ूब समझाया लेकिन मदद नहीं कर पा रहे थे क्योंकि वे दोनों भी जॉब करते थे। 

विराट को एक सनक सवार हो गई थी। वह गूगल पर अमेरिका में फ़ोस्टर होम के नियमों का आकलन करने हेतु सर्च करने लग गया था। उसे पक्का विश्वास था कि नव्या को नौकरी का नशा चढ़ चुका है वह नौकरी तो नहीं छोड़ेगी। हाँ, अलबत्ता बच्चों को अपने माँ-बाप के पास भारत भेज देगी। यदि बच्चे अपने से दूर करने ही हैं तो क्यों ना उनके पालन करने वाले माता-पिता ढूँढ़ लिए जाएँ। इससे यह अमेरिका में ही पलेंगे और बड़े होने पर हमें यहीं वापस मिल जाएँगे। काले लोग तो अपने बच्चे वहाँ पालते ही रहते हैं। उसे यही फ़ितूर चढ़ गया था। 

पारिवारिक संबंधों में यदि संजीदगी, आदर-सम्मान का भाव ना रहे, तो दो बातें ही होती हैं या तो घुटन भरी ज़िन्दगी या परिवार में टूटन। विडंबना तो यह है कि इस टूटन की काल कोठरी की घुटन स्त्री को ही सहनी पड़ती है। इन कुंठाओं से इतर कहाँ है उसका गुज़ारा? 

विराट चुपचाप फ़ोस्टर होम (बच्चे पालने वाले घर) वालों से पूरी पूछताछ करके दो दिन की छुट्टी लेकर घर बैठ गया। घर में बच्चों के समान की लिस्ट बनाकर उसने पैकिंग भी कर ली और दूसरे दिन उन्हें फ़ोस्टर होम ले गया। एक अँग्रेज़ दंपती जिन्होंने फ़ोस्टर पेरेंट्स का लाइसेंस लिया हुआ था, उन्हें ही अपने दोनों बच्चे दे आया और वहाँ की फ़ीस भी भर आया। बाक़ी, उसे ज्ञात था कि उनको फ़ेडरल गवर्नमेंट भी पैसे देती है। 

साँझ ढले जब नव्या ऑफ़िस से घर आई, तो उसे घर एकदम सूना लगा। उसे बच्चे कहीं दिखाई नहीं दिए तो उसने विराट को आवाज़ दी स्टडी में, “बच्चे कहाँ है विराट? दोनों कहाँ गए हैं? विराट . . .! सुनाई नहीं दे रहा क्या? बच्चे कहाँ हैं?” उसने पास जाकर पूछा। 

विराट ने अपने आप को जवाब देने के लिए तैयार किया हुआ था। वह खीझ कर बोला, “बड़ी मुश्किल से उस शोर से छुटकारा मिला है तो तुम मेरा सिर खा गई हो। कौन सा तूफ़ान आ गया है? शुक्र है दो घड़ी चैन मिला है घर में! क्या करना है तुमने बच्चों को? आराम से बैठो!”

“ये क्या बहकी-बहकी बातें कर रहे हो? मैं बच्चों का पूछ रही हूँ! कहाँ है बच्चे?” 

“बच्चों को जहाँ होना चाहिए, वहाँ पहुँचा आया हूँ। अब तुम भी चैन से रहो। जब बड़े होंगे तो मिल जाएँगे। तुमसे तो बच्चे पाले नहीं जा रहे थे। सो उनका इंतज़ाम कर दिया है।”

“बड़े होंगे तो मिल जाएँगे! यह क्या कह रहे हो? तुम होश में तो हो?” नव्या चीख कर बोली। वह थर-थर काँप रही थी। विराट का कंधा पकड़ कर उसने ज़ोर से हिलाया। 

“बताओ बच्चे कहाँ है?” 

“नहीं बताऊँगा क्या कर लोगी?” 

“तुम्हारा मुँह नोंच लूँगी। एक तड़पती हुई माँ अपने बच्चों के लिए शेरनी जैसी हो जाती है। जल्दी बताओ बच्चे कहाँ है मेरा सब्र ख़त्म हो रहा है।”

उसका रौद्र रूप देखकर विराट डर गया और बोला, “चलो बैठो कार में, उन्हें फ़ोस्टर होम में रख दिया है!” 

इतना सुनते ही नव्या घबराई हुई चीख़ कर बोली, “क्या?” 

और वह उसको मारने दौड़ी। 

“चलो, बाबा, उनके पास लेकर चलता हूँ।”

समय काटे नहीं कट रहा था। वहाँ पहुँचने में दो घंटे लग गए। रास्ते में वह सब बातें दोहरा रहा था कि तुम्हें कहा था नौकरी छोड़ दो वगैरा-वगैरा। नव्या इतना ही बोली, “मैंने सोचा था तुम छुट्टी लेकर मेरी मदद कर रहे हो बच्चों को सँभालने में। मैं दूसरे डे केयर का पता कर रही थी। तुम तो धोखेबाज़ निकले।” इसके अलावा वह कुछ भी नहीं सुन रही थी। उसे बच्चों के रोने की आवाज़ आ रही थी। 

सच में जब यह लोग वहाँ पहुँचे, तो दोनों बच्चे ख़ूब रो रहे थे। वह पालक दंपती ढेर सारे खिलौने देकर उनको चुप कराने का यत्न कर रहे थे। माँ को देखते ही वान्या “मम्मी” कह कर ज़ोर से चिल्लाई और आकर माँ से लिपट गई। नव्या उसको गोद में उठाए उसका सारा चेहरा चूमे जा रही थी। रोते हुए विराज को भी उसने दूसरे हाथ से उठा लिया था। उसने उस दंपती से बात भी नहीं की। बच्चों को उठाए वह कार में जाकर बैठ गई थी। 

उसके दिमाग़ में फ़ोस्टर होम की न्यूज़ घूम रही थीं। वह पढ़ा करती थी कि अफ़्रीकन अमेरिकन को बच्चे पालने नहीं आते हैं इसलिए उन्हें फ़ेडरल गवर्नमेंट द्वारा चलाए जा रहे ‘पालक माता-पिता’ के हाथ सौंप दिया जाता है! जहाँ वे चिंता और डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं या उन्हें मानसिक रोग लग जाते हैं क्योंकि बच्चों को वहाँ अपने असली माता-पिता नहीं मिलते हैं। जिनकी संख्या हज़ारों में थी। उनके नियमों के अनुसार बच्चे अठारह साल के होने पर ही माता-पिता को मिलते थे। 

जो भी था, इसके भयावह परिणाम होते थे। 

दोनों बच्चों को छाती से चिपकाए वह जब घर में दाख़िल हुई तो उसने ढेर सारे फ़ैसले मन ही मन में ले लिए थे। सबसे पहले उसने लम्बी छुट्टी के लिए आवेदन पत्र भेज दिया। उसी रात को बाबूजी से कहा कि माँ को भेज दें। वह उनका टिकट भेज रही है। साथ ही वह ज़ार-ज़ार रोए जा रही थी। ऑफ़िस की अपनी दो सहेलियों को उसने सारी घटना बताई, जिसे सुनकर उन्होंने आना चाहा—पर उसने मना कर दिया। हाँ, फोन पर ही सलाह मशवरा किया। 

एक माँ की अंतरात्मा तड़प रही थी। वह भीतर के ज़ख़्मों से रिसते ख़ून को आँखों के रास्ते आँसुओं का दरिया बहा रही थी। उसकी साँस धौंकनी सी चल रही थी और हाथ-पैर काँपे जा रहे थे। वह हैरान थी इस बाप की हिम्मत देखकर जो अठारह वर्षों तक यानी कि बालिग़ होने तक अपने को संतान सुख से वंचित कर संतुष्ट था। पितृ सुख से उसका कोई लेना-देना नहीं था! कितना पाषाण हृदय था उसका! 

नव्या का मन हो रहा था उसके मुँह पर थूक दे। उधर वह व्हिस्की के दो-चार पैग चढ़ा कर जाके सो गया था। जबकि इसने सारी रात बच्चों को गोद में लिटाए सोफ़े के साथ कार्पेट पर बैठकर काट दी थी। 

अगले दस दिन तक वह पल भर को भी बच्चों से अलग नहीं होती थी, जब तक कि उसके माँ नहीं आ गई थीं। 

उसने पुनः ऑफ़िस जाना आरंभ कर दिया था अब। अपने मैनेजर एवं कुछ सहयोगियों से सलाह करके उसने तलाक़ की अर्ज़ी कोर्ट में दे दी थी। तलाक़ के लिए कारण स्पष्ट था, ‘अपनी और बच्चों की असुरक्षा!’

ना मालूम छुट्टियाँ लेकर वह सरकारी लोगों को बुलाकर अपने बच्चे दिखाता रहता था कि उनको देखने वाला कोई नहीं है। क्योंकि बिना प्रूफ़ के बच्चों को पालक माता-पिता की देख-रेख में रखने की आज्ञा नहीं मिलती है। वह बहुत डर गई थी। उसके दोस्त व सहेलियाँ सभी हैरान थे विराट के इस क़दम पर। उसने विराट से भी कह दिया, “अब हम एक ही छत के नीचे नहीं रह सकते हैं! अच्छा यही है कि तुम अपना इंतज़ाम कहीं और कर लो।”

विराट ने बिना विरोध के एक फ़्लैट किराए पर ले लिया। वह वहीं जाकर रहने लग गया था। 

वान्या अब स्कूल जाने लग गई थी। विराज भी‌ डे केयर में मस्त रहता था। नव्या फिर भी डरती थी कि विराट कहीं बच्चों को ले ना जाए। तलाक़ होने में एक साल लग गया। नव्या ने पैसे की कोई माँग नहीं की। जज ने फ़ैसला दिया कि बच्चे एक हफ़्ता माँ के पास रहेंगे तो एक हफ़्ता पापा के पास रहेंगे। यह विराट की माँग थी। 

जज ने और मुसीबत डाल दी। बच्चे पापा के पास ख़ुश नहीं रहते थे लेकिन क़ानून का कहना तो मानना पड़ना था। एक बार वान्या को वायरल बुख़ार हो गया और बच्चों का पापा के घर जाने का समय आ गया। नव्या उसे अपने से दूर नहीं करना चाह रही थी क्योंकि वह उसे गोद में लेकर रात भर बैठी रही थी। माँ की पीड़ा को गहरी व्यंजना के साथ नव्या बख़ूबी से महसूस कर रही थी। लेकिन क़ानून ने उसके हाथ बाँध दिए थे। उसने विराट से इल्तज़ा की, “इसे ठीक हो जाने दो! तुम बीमार बच्ची को कैसे सँभालोगे? स्कूल भी नहीं भेज सकते और तुम छुट्टी भी नहीं लोगे—मैं जानती हूँ।”

लेकिन विराट नहीं माना। उसे ज़िद आ गई थी। वह दोनों बच्चे ले गया अपने घर। वान्या का रो-रो कर बुरा हाल था। वह मम्मी के लिए बिलख रही थी। बच्चों के जाते ही नव्या पत्थर की तरह जड़वत वहीं की वहीं बैठी रह गई थी। 

जब कुछ होश आया तो वह कार लेकर विराट के घर गई और दरवाज़े की घंटी बजा-बजाकर जब थक गई और दरवाज़ा नहीं खुला तो उसने दरवाज़ा पीटना आरंभ कर दिया। पड़ोसी बाहर झाँकने लग गए थे। लेकिन वह दरवाज़ा नहीं खोल रहा था। भीतर से बच्चों के ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ें आ रही थीं। बेबस, बेहाल, बेसब्र और बच्चों के प्यार में पागल माँ को कुछ सूझ नहीं रहा था। बदहवास सी वह फ़्लैट के बाहर चक्कर लगाने लगी कि तभी उसके दिमाग़ में घर के भीतर घुसने का एक नया विचार कौंधा। 

घर के भीतर घुसने के लिए उसने वहाँ लगे एयर कंडीशनर के पेच खोलने आरंभ कर दिए। घंटा भर लगा और पेच खुल गए। इस बीच विराट ने बाहर झाँका तो किसी को न पाकर वह तसल्ली से भीतर चला गया। तभी नव्या से कुछ पेच गिर गए, जिससे बाहर खटका सुनकर विराट ने भीतर की लाइट बंद करके बाहर झाँका तो उसे नव्या का यह रवैया बरदाश्त नहीं हुआ। उसने आव देख ना ताव और झट पुलिस को फोन कर दिया। अमेरिका में किसी के घर यहाँ तक कि किसी के घर के आसपास की ज़मीन पर भी कोई बिना आज्ञा के आ जाए तो वह जुर्म है। फिर यह तो भीतर जाकर चोरी करने की तोहमत लगा दी गई थी। नव्या ने इस चोर रास्ते से बच्चों को तो क्या मिलना था उसे हथकड़ियाँ लगाकर पुलिस पकड़ कर ले गई। उसे सामने देखकर बीमार बेटी और बेटा भी ज़ोर-ज़ोर से रो रहे थे। सब पड़ोसी भी घरों से बाहर निकल आए थे। नव्या के बाल बिखरे थे। आँसुओं से तरबतर चेहरा व रो-रो कर आँखें सूज चुकी थीं। अब रही-सही कसर भी पूरी हो गई थी। 

क्या सोचा था क्या हो गया था? 

रिश्तों की नाज़ुकता को समझने हेतु संजीदा होने का अब समय समाप्त हो गया था!! 

पासा पलट गया था। नव्या को बिल्कुल होश नहीं था। उसकी गृहस्थी पहले ही समाप्त हो गई थी। थाने में सीखचों के पीछे बैठी थी। उसे छुड़ाने और ज़मानत देने का मौक़ा था। नव्या को दूर-दूर तक कहीं कोई दिखाई नहीं दे रहा था जो उसकी ज़मानत देने आता। वह जेल में लोहे के सीखचों के पीछे बैठी नाउम्मीदी में मरणासन्न हो चुकी थी कि अँधेरे की गहराई को चीरता एक सितारा अर्श से आज उसके समक्ष खड़ा अपने प्रकाश से उसको सराबोर कर रहा था। 

उसकी कंपनी का मैनेजर जो उसे अनवरत संघर्ष करते हुए देख रहा था, ऑफ़िस में सब सहयोगियों से सलाह करके उसकी ज़मानत देने आ पहुँचा था। इस घटना से नव्या पर जो कुठाराघात हुआ था और वह जिस बहादुरी और दिलेरी से अपनी लड़ाई लड़ रही थी, यह देखकर वह अँग्रेज़ उसकी आत्मशक्ति पर चकित था। और उसका प्रशंसक भी। छह फ़ुट का वह अँग्रेज़ तक़रीबन पेंतालिस वर्ष की आयु का स्वयं एक तलाक़शुदा व्यक्ति था जो सबका चहेता था। उसे समक्ष देखकर नव्या में जान लौट आई थी और आशाओं के दीप जल उठे थे। रिचर्ड ने आते ही कहा, “जीने की उमंग लेकर अब तुम बाहर आओ। बाक़ी हम सब देख लेंगे।”

सारा ऑफ़िस उसकी मदद करने को जुट गया था। वकील किया गया और और संजीदगी के साथ सब उसके केस में जुट गए थे। इस बार दोनों बच्चे जो घर आए माँ के साथ, तो बस वहीं रह गए थे। उधर विराट ने जब नव्या के ऑफ़िस में एकता का बल देखा तो भीतर ही भीतर वह डर गया। पुरुष प्रधान विसंगतियाँ जो उस पर हावी थीं, उनका दम निकलता नज़र आ रहा था उसे। उसकी कुंठाएँ उसी को सताने लगीं। एक दिन अचानक वह न जाने कहाँ चला गया। ग़ायब ही हो गया। ना उसके ऑफ़िस वालों को पता लगा और ना ही भारत में उसके घर वालों को। 

बार-बार दूसरी पार्टी की उपस्थिति के बग़ैर कोर्ट केस ख़ारिज कर दिया गया। नव्या ने राहत की साँस ली और अपनी शक्ति, धैर्य, संयम और सबसे भाईचारा बना कर रखने के अपने गुणों पर उसे आत्म संतुष्टि हुई। उसने ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद किया। जीवन पटरी पर चलने लगा था। बच्चों ने सारी ज़िन्दगी कभी भी पापा का नाम नहीं लिया। 

समय के पंख वर्षों को अपने ऊपर ढोए उड़े जा रहे थे। नव्या ने अपनी शादी की पच्चीसवीं सालगिरह की सारी रात इन ख़्यालों की बीथियों में गुज़ार कर जब सुबह सोफ़े से उठना चाहा तो वान्या और विराज दोनों जवान बच्चों ने आकर माँ के गले में बाँहें डाल दीं और बोले, “गुड मॉर्निंग मामा!”

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
आप-बीती
स्मृति लेख
यात्रा-संस्मरण
लघुकथा
कविता
व्यक्ति चित्र
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें