छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–008

01-07-2022

छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–008

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

कुछ यादें टीस की तरह रह-रह कर ताउम्र दर्द देती रहती हैं पर जान बख़्श देती हैं बल्कि जीने के एहसास को हर पल चुनौती देती रहती हैं—

इन हालात में काफ़ी दौड़-धूप की जा रही थी कि अब क्या किया जाए। लाहौर में ग्मैलर वर्ल्ड से जुड़े थे, उसका तो यहाँ दूर-दूर तक कोई नामोनिशान ही नहींं था। तो फिर अब. . .? 

मल्होत्रा अंकल वकील थे। वकालत की प्रैक्टिस करते थे। बातों-बातों में उन्हें किसी मुवक्किल से पता चला कि जबलपुर से ६४ मील उत्तर की ओर “कटनी ” शहर में ऑर्डिनेन्स फ़ैक्ट्री के आर्मी-केंटीन के ठेके की नीलामी है। १९४७ में अँग्रेज़ एकदम से भारत नहींं छोड़ गए थे। उनको अपना कारोबार समेटने में एक-दो वर्ष का समय तो लगा ही था। जबलपुर में “गन कैरिज फ़ैक्ट्री” थी (मैंने अपने कॉलेज के समय ऐनसीसी में वहाँ विज़िट किया था। ऊपर से पहाड़ दिखता है किन्तु भीतर दुनिया ही दूसरी है) और कटनी में ऑर्डिनेन्स फ़ैक्ट्री थी। पापा मल्होत्रा अंकल के साथ गए और टेंडर भर दिया। 

रिज़ल्ट आने में समय लगने से उन्हें वक़्त की चाल धीमी लग रही थी। कहते हैं जब सारे रास्ते खो जाते हैं, तो इंसान ऊपरवाले पर सब छोड़ देता है – वही सही होता है शायद। और—

उन्हें आर्मी कैन्टीन का ठेका मिल गया आख़िर। इसके मिलने से कुहासा छँटता लगा क्योंकि गहराया भी तो शिद्दत से था सो वक़्त तो लगना ही था छँटने में। वैसे कटनी शहर बहुत छोटा था “लाहौर” के मुक़ाबले में किन्तु ज़िन्दगी के अथाह अँधेरों में एक चिराग़ जल उठा था, उसकी रोशनी में जीवन को अब सहज बनाना था। माना उनकी उदासी और अवसाद की जड़ें काफ़ी गहरी थीं। अकबर इलाहाबादी ने ज़िक्र किया है –“अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं 'अकबर'।” (उदासी और निराशा) लेकिन थोड़ी-बहुत ख़ुशियों की दस्तक उनको अपनी ओर आती सुनाई दे रही थी। 

कटनी शहर काफ़ी पिछड़ा शहर था। चंद पंजाबी परिवारों से शहर में रौनक़ थी। जौहर साहब की पत्नी राम रानी जौहर पापा के गाँव की ही थीं। उन्होंने मम्मी-पापा को उन सबसे मिलवाया तो मम्मी को कुछ ढाढ़स बँधा। 

मेरा एडमिशन बाडस्ले गर्ल्स स्कूल में हुआ। वहाँ निशा जौहर और वीना भास्कर मेरी सहेलियाँ बन गईं थीं। अभी मिस टॉन्ग (अँग्रेज़) वहाँ की प्रिंसिपल थीं। वो इंग्लैंड वापिस जा रहीं थीं और मिस शॉर्ट नई प्रिंसिपल आ रहीं थीं। मेरे स्मृति-पटल पर ब्लैक-बोर्ड पर बनीं दो रेलगाड़ियाँ विपरीत दिशाओं में धुआँ छोड़ती जातीं, आज भी जीवित हैं। जो मिस राम ने ड्रॉ की थीं। मिस टॉन्ग अपने साथ स्कूल की फ़िल्म बनवा कर लें जा रहीं थीं। उसके लिए हम तीनों सहेलियों का चयन हुआ। हम तीनों ने इसके लिए पैंट, शर्ट और कोट पहने थे। 

हमें स्कूल के पूरे कैम्पस में घुमाया जा रहा था। हमारी बाक़ी क्लास-मेट्स क्लास से झाँक-झाँक कर हमें देख रहीं थीं। बचपन भेद-भाव से परे होता है ना, सो सब ख़ूब ख़ुश थीं। हम तीनों भी बेहद ख़ुश थीं। आज भी उन पलों को याद करके मेरे चेहरे पर मीठी सी मुस्कान नेआधिपत्य जमा लिया है। 

उधर, मम्मी रेलगाड़ी के डिब्बे जैसा घर पाकर भी ख़ुश थीं। अब अपना घर तो था। मेन रोड से घर की पहुँच ऊबड़-खाबड़ थी, जिसे उन्होंने ३-४ रेजा (स्त्री मज़दूर) के साथ मिलकर ठीक किया। जो लाहौर के घर में इतने मोटे कालीनों पर चलतीं थीं कि तीन-चार इंच की सैंडल की हील कालीन में घुस जाती थी, वो उत्साह पूर्वक परिस्थितियों से जूझ रहीं थीं। कुछ ही दिनों में पापा ने पूरी पंक्ति में बने चार नीचे के फ़्लैट किराए पर ले लिए। उनमें कैंटीन के माल व सब्ज़ियों के ट्रक ख़ाली किए जाने लगे। कभी हम गाजर के कमरे में तो कभी मटर, गोभी आदि के कमरे में खेलते थे। आस-पड़ोस से जैन, तिवारी, गट्टानी, शुक्ला, दूबे आदि घरों के बच्चे भी हमारे साथ खेलने आ जाते थे। 

पापा ने जल्दी-जल्दी काम सैट किया और वे निकल पड़े थे अपने अभियान पर। उन्हें दिन-रात पीछे पंजाब में छूटे अपने परिवार की चिंता चैन नहींं लेने दे रही थी। पता नहींं कौन किस हाल में कहाँ होगा! ठंडक बढ़नी शुरू हो गई थी। मम्मी को सब समझा कर वे दिल्ली पहुँचे। वहाँ बेजी (हमारी दादी) हमारे भाई के साथ मिल गईं। इनके मिलने से पापा की जान में जान आई। बड़ी बुआ और उनके तीनों बेटों को लेने वो अमृतसर गए। उनको भी दिल्ली भेजा। और स्वयं रईस मुसलमानी वेश-भूषा में सिर पर फर्र की टोपी सजाए जा पहुँचे लाहौर। बड़ी बुआ ने यह ख़तरा मोल लेने को बार-बार मना किया, पर वे नहींं माने थे। 

धड़कते दिल से वे अपनी कोठी के सामने पहुँचे तो वहाँ पहरा देते अर्दली ने रोका। अब फँस गए। न हिन्दू और न मुसलमान कुछ भी न बने रह पाए। वहाँ कोई लीडर रह रहे थे, बस इतना ही जान सके थे। घर में एक पूरी दीवार में जड़ाऊ गहनें सजे थे। जो गुप्त थी। लेकिन मंज़िल तक पहुँच कर भी ख़ाली हाथ लौटने के अलावा और कोई चारा नहींं बचा था। “जैसी तेरी रज़ा मालिक” कह कर वे एकदम अपना मन पक्का कर वहाँ से खोटे सिक्के के मानिंद लौट आए थे। 

बड़े भाई के परिवार को, बादशहान से साथ लेकर दिल्ली पहुँचे। वहाँ से सब को इकट्ठा करके एक ही ट्रेन से अपना पूरा परिवार, अपना असली ख़ज़ाना लेकर वे कटनी के लिए चल पड़े थे। सदा साथ रहने के लिए . . . 

बाक़ी, फिर . . . !

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