हथेली पर सूरज
वीणा विज ’उदित’पारदर्शक लिफ़ाफ़े में स्टैपल कर सहेज कर रखे कुछ पन्ने हाथ के स्पर्श को पाकर मानो सजीव हो उठे। बिना विलंब पन्नों को बाहर निकाल टटोलने लगी वह . . . तो पन्नों के मटमैले चेहरे जो बीते समय की एक किशोर अनुभूति से रँगे हुए थे, सिर निकालकर अमिता की ओर ललचाई दृष्टि से तकने लगे थे . . . अम्मू की उँगली पकड़कर उसे स्मृतियों के अतीत गह्वर में ले जाने के लिए। जो राख के ढेर के नीचे दबी धीरे-धीरे ज़मींदोज़ हो चुकी थीं।
सबसे गहरी अनुभूति जिसने उसके मनोमस्तिष्क पर से हटने का नाम ही नहीं लिया था आज फिर से सिर निकालकर उसके सामने वहीं स्टेशन का दृश्य लेकर आ गई थी।
स्टेशन से जब रेलगाड़ी सरक रही थी, तो वह खिड़की पर हाथ रखकर साथ-साथ चलने लग गया था कि शायद अकुलाए हुए कोंपलों की कोमलता और स्निग्धता से तरल हो आईं अमिता की आँखें बरसेंगी और होंठों से कुछ प्रस्फुटन होगा! या फिर क्या पता उसके कान अपना नाम उसके होंठों से सुनने को तरस रहे थे लेकिन अमिता गाड़ी के सरकने की आवाज़ कानों से ही नहीं आँखों, एहसासों, साँसों और रोम छिद्रों से भी सुन रही थी . . . अपनी व्यग्रता से व्यथित! और थी वहाँ हमेशा की तरह अब भी एक चुप्पी! भावनाओं का ज्वार–भाटा उसके भीतर समुद्र मंथन को उतारू था लेकिन बाह्य रूप . . . सागर की गहराई सा शांत था।
गाड़ी की गति तेज़ होती जा रही थी। प्लेटफ़ॉर्म के कोने की ढलान अब छोड़ चुकी थी। खिड़की से बाहर मुँह निकाल कर वह देख रही थी . . . गौतम की धूमिल होती छवि पीछे छूट रही थी और वह आँखों से अदृश्य हो चुका था! अपना मुँह भीतर कर, हथेली में मुँह छुपा विक्षुब्ध वह फफक-फफक कर रो पड़ी थी। फिर अपने को संयत करने का यत्न करने लगी थी इस तार-तार होते संबंध पर!
भैया को कुछ नहीं सूझ रहा था, वह तो शादी के बाद पहली बार उसे मायके के लिए लिवाने बबीना आया था। वह सोच रहा था कि अम्मू पहली बार गौतम को छोड़कर जा रही है तो दुखी है। वह उसकी पीड़ा को किस तरह बँटाए। किन शब्दों से सहलाए कि वह संयत हो स्वयं को बटोर सके। उसने दिलासा देते हुए उसके कंधे पर हाथ रख स्नेह-स्पर्श का आभास कराया। क्योंकि वह पल भर के लिए भी गौतम और अमिता के संबंध में कुछ गड़बड़ है– ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकता था। उन दोनों का प्रेम-संबंध तो जगज़ाहिर था। उसके लिए यह अकल्पनीय था कि अमिता की समूची चेतना अविच्छिन्न हो बिखर गई है और वह पूरी तरह बिखर कर उसके साथ जा रही है . . .!
उन पन्नों को हाथ में पकड़े आज वह यादों की सुरंग में भीतर उतरती चली जा रही थी। जवानी की दहलीज़ पर घटी मीठी-मधुर यादें भी कभी बिसरती हैं कहीं? नई उम्र की पहली सीढ़ी पर पैर रखते ही तो वह फिसल गई थी। माँ की बचपन की सखी राधा मौसी के पति "बबीना" में पीडब्ल्यूडी में एसडीओ बनकर आए थे तो अपने परिवार सहित मौसी उन सब को मिलने "बीना"अपनी गाड़ी में आ गई थीं। उनकी दो बेटियाँ सुधा और भारती एवम् छैल-छबीला बेटा गौतम उनके साथ थे। हम-व्यस्क भारती को पाकर जहाँ वह खिल उठी थी, वहीं गौतम जैसे सजीले आकर्षक व्यक्तित्व वाला नौजवान उसके समक्ष इससे पूर्व अभी तक कोई नहीं आया था।
बात-बात पर चुटकुला सुनाकर वह माहौल में रंगीनियाँ भर रहा था, जिस पर विमुग्ध होते हुए वह उसके मोह-आकर्षण में खिंच रही थी। असल में गौतम "क्विक विटी" था और बोलने के पश्चात अपने कहे की प्रतिक्रिया हर बार अमिता की आँखों में झाँक कर देख लेता था। ऐसे में दोनों जवान दिलों की नज़रें मिल जाती थीं, और अनजाने में एक नए अफ़साने की नींव पड़ रही थी।
जब वे लोग चले गए तो अमिता भागी हुई भीतर गई और जाकर दर्पण में अपना चेहरा देखा। उस पर खिली लालिमा को देख वह स्वयं से ही शरमा गई थी। अब से उसका सजने-सँवरने का मन करता था। वह चुपके-चुपके अपने आईने से मूक वार्तालाप किया करती। गर्मी की छुट्टियाँ थीं तो मौसी ने चिट्ठी लिखकर अपनी सखी को परिवार सहित आने का निमंत्रण भेज दिया क्योंकि उनके पास बहुत बड़ा बँगला था जिसके अगली और पिछली ओर भी बाग़-बग़ीचे थे। बाबू तो काम में व्यस्त थे, लेकिन अम्मा तो उत्साह से भर उठीं और सखी से बतियाने और संग समय बिताने के चाव में वह अपनी दोनों बेटियों यानि अमिता और बावा को लेकर ट्रेन से पहुँच गईं बबीना।
स्टेशन पर गौतम उनको रिसीव करने आया हुआ था। दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनकी उठती-गिरती नज़रों का ऐसा आदान-प्रदान हुआ कि वहाँ का मौसम ही बदल गया था। फिर तो अगले दस दिनों में, वे दोनों हर पल को इकट्ठे जी रहे थे। ढेरों शरारतें, अंताक्षरी, गीत-ग़ज़लों की महफ़िलें, रात को देर-देर तक जाग कर फ़िल्मों की बातें होती थीं। क्योंकि उस ज़माने में फ़िल्मी हीरो-हीरोइनों का युग था! बिनाका गीतमाला और विविध भारती के गानों की तूती बोलती थी। एक दूसरे को कुछ कहना हो या दर्दे-दिल का इज़हार करना हो तो फ़िल्मी गीत गुनगुना कर कहा जाता था। उस पर से आग में घी का काम करते थे गुलशन नंदा के उपन्यास! जो अमूमन हर घर में होते थे और बड़ी रुचि से पढ़े जाते थे।
अमिता अपने मनपसंद लेखक अज्ञेय के उपन्यास "नदी के द्वीप" के बारे में बातें करने लगी तो भारती ने उससे साहित्य की चर्चा में प्रतिभागिता की थी जिससे अम्मू को वहाँ का परिवेश भा रहा था। और इन्हीं दिनों यह प्यार की बेल परवान चढ़ रही थी। केवल मूक नज़रों का आदान-प्रदान ही चलता था उन दिनों। किताबों में गुलाब के फूल सुखाए जाते थे उस ज़माने में। प्रेम छुप-छुप के होता था, क्योंकि समाज के संस्कार इसे गुनाह मानते थे।
विछोह की बेला में दहकते हुए गुलमोहर और अमलतास के फूल इस भयंकर धूप में अपनी ताज़गी बिखेरते हुए भी उसे गीलेपन का आभास दे रहे थे। उधर उसकी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति माँ की अनुभवी पगी दृष्टि को शायद कुछ सोचने को विवश कर रही थी। क्योंकि अमिता के स्वभाव में चारों ओर खिली ख़ुशबुओं का कोलाहल, कोयल के कंठ की कूक और चिड़ियों की तरह फुदकती धूप अब मद्धम पड़ गई थी। उसकी चढ़ती उम्र की आहटें माँ तक पहुँच पा रही थीं। उनका ख़्याल विश्वास में पनप रहा था यह देखकर कि किसी ना किसी बहाने से गौतम उनके घर हफ़्ते दो हफ़्ते बाद आ धमकता था।
चूँकि गौतम अपनी बातों से सबका मन मोह लेता था तो अमिता की छोटी बहन बावा भी उसके आने से खिल उठती थी और उसके पहुँचते ही झट अपनी दीदी के चेहरे पर खिली आभा को भी . . . उसकी आँखों में झाँक कर ताड़ लेती थी। गौतम का बार-बार अमिता की आँखों की डोर से बँध खिंचे चले आना और खुली आँखों से अमिता की छवि को निहारना बहुत कुछ कह जाता था और जिसका उन्हें पता नहीं चलता था लेकिन जिसे सब नोटिस कर रहे थे।
दोनों की पढ़ाई चल रही थी। शनै: शनै: वक़्त अपनी रफ़्तार पकड़ रहा था और दोनों घरों में काना-फूसियाँ चल रही थीं उनको लेकर। अमिता की ग्रेजुएशन हुई तो गौतम भी आई.ए.एस. की परीक्षा में बैठा। अब इसे इश्क़ की बेइंतहाई ही कहेंगे ना कि वह एक पेपर पर केवल-उसका नाम ही लिखता रह गया . . .! गौतम को उसके सिवा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। जब उसे होश आया तो तीर, कमान से निकल चुका था। और सिर धुनने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं बचा था। वापिस आकर उसने अमिता को सारी सच्चाई बता दी। जिसे सुनकर भविष्य में होने वाले उसके निष्कर्ष से वो तड़प उठी थी। उन दिनों छब्बीस वर्ष की आयु तक ही लिमिट थी इस परीक्षा के लिए और वह अब ख़त्म हो गई थी उसके लिए।
ख़ैर, दोनों की चाहत रंग लाई क्योंकि असलियत से कोई वाक़िफ़ नहीं था। उसकी लियाक़त को देखते हुए सबको उसके सफल होने का पूर्ण विश्वास था। सो, उनका संबंध सात फेरों में परिणत हो कर रहा। गौतम का परिवार शादी करने के लिए बबीना ही आ गया था। उन्होंने तीन-चार दिन के लिए एक सरकारी बँगले में रहने का इंतज़ाम कर लिया था। उनके रिश्तेदार और मेहमान दिल्ली और पंजाब से वहीं आ गए थे क्योंकि बबीना रेल्वे जंक्शन है। सब को सहूलियत हो गई थी।
डोली विदा हुई तो मायके के छूटने का दर्द तो था ही लेकिन अपने प्रियतम के गले का हार बनने की रुमक उसे सहज कर रही थी। वह तो गौतम की प्रेम-धारा से ओत-प्रोत थी। उसकी कल्पनाएँ भविष्य के आसमां पर पहुँच नृत्य करने लग गईं थीं और आकाश से उतरी ज्योत्सना में वह अंतर्मन से भीग-भीग जा रही थी। सुहाग की सेज पर वह सजी-धजी गठरी बनी बैठी रही। शनै: शनै: रात गुज़र रही थी, कहीं कोई आहट नहीं थी। चिर-प्रतीक्षित रात्रि में उसका प्रियतम गौतम न जाने कहाँ था? प्रतीक्षा. . .! . . .एक लंबी प्रतीक्षा . . .!! सारी रात की प्रतीक्षा . . .!!! सुरसा के मुख सी रात को निगल रही थी!!!
जब उसे हल्की सी चिड़ियों की चहक सुनाई दी, तो वह हैरान-परेशान कि रात बीत गई थी . . . क्योंकि वह चैन से बैठ ही नहीं पा रही थी! कभी सोई। कभी जागी, कभी द्वार तक जाकर लौट आती रही। शगुनों वाली रात में वह मुए आँसुओं को आने से रोक रही थी। पर मुई आँखें उसकी कहाँ सुन रहीं थीं? वह तो दिल के टूटे जाने पर बरस जाने को अकुला रहीं थीं। बरस-बरस कर उसे भिगो रही थीं। सारा साज-सिंगार भी थक-हार कर मुर्झा गया था।
अचानक दरवाज़ा खुला और रोशनी के पहले क़दमों के साथ ही गौतम उसके सामने आ गया और बोला,"सॉरी यार, दोस्तों ने बहुत पिला दी थी मैं वहीं पड़ा रह गया था।" उसकी दृष्टि निःस्पृह थी, मानो अमिता उस कमरे में है ही नहीं। सहज भाव से इतना कहकर वह बाथरूम की ओर चला गया। जैसे यह आम बात हुई हो!
सारी रात प्रतीक्षा की एक-एक घड़ी को अमिता ने ढेरों मौतें मर कर जिया था। उन मौतों का कहीं चर्चा तक नहीं था। क्षमा, याचना या सॉरी का भाव तो जैसे कोई अस्तित्व ही नहीं रखता था। आशाओं के अनुरूप उसने उसे छूकर आलिंगनबद्ध तो क्या करना था, उसने तो उसे नज़र भर के देखा तक नहीं और ना ही उसके मचलते अरमानों की सजी हुई अर्थी को कंधा देने की सोची। यह सब देख, अमिता के काटो तो ख़ून नहीं था।
अमिता के जीवन का कठोर सत्य उसके समक्ष था अब। संपूर्ण वातावरण और परिवेश जैसे किसी अवांछित रहस्य के रोमांच से भरा था। बेबसी में अपने झरते आँसुओं की गवाही में अपने सोलह-शृंगार को वह स्वयं उतार रही थी, उसकी उँगलियाँ काँप-काँप जा रहीं थीं इस बोझ को उतारने में . . . जिस पर गौतम का नाम लिखा था। थोड़ी देर में गौतम बाथरूम से बाहर आया और उसकी और देखे बिना, उसे उसकी मम्मी के घर जाने के लिए तैयार होने को कहकर उल्टे पाँव लौट गया था।
उसे तब चक्कर आ रहे थे। मनोमस्तिष्क में कई प्रकार के गतिरोध चल रहे थे। सुधियों के आरोह-अवरोह बार-बार टक्कर खा रहे थे। अपनी नि:ष्प्राण शिथिल काया को वह बड़ी मुश्किल से तैयार कर रही थी कि तभी उसने मुखौटा ओढ़ लिया क्योंकि वहाँ भारती आई और उसे बड़े स्नेह और प्यार से अपने साथ परिवार के बीच ले गई थी। मानो वहाँ पर किसी को कुछ मालूम ही नहीं था कि रात ने उस पर क्या क़हर ढाया था। बाहर, परिवार में सब कुछ सहज था। सभी लोगों ने स्नेहासिक्त स्वागत करते हुए उसे आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात उन्हें मम्मी के घर रिवाज़ के मुताबिक पगफेरे के लिए भेजा।
अमिता ने मुखौटा तो ओढ़ ही लिया था, सहज और प्रसन्न दिखने का . . .! वहाँ पर सहेलियाँ और भाभियाँ उससे चुहलबाज़ी कर रही थीं और वह धीमे-धीमे मुस्कुराकर शर्माने की एक्टिंग कर रही थी। मानो, ख़ुशी की अतिरेकता उसके सँभाले सँभल नहीं रही थी क्योंकि दो प्रेमियों का प्रथम रात्रि का मिलन बहुत मधुर था।
उन दिनों एंबेसडर कारें हुआ करती थीं, तो कुछ लोग कारों से और बाक़ी लोग आज शाम की ट्रेन से वापस अपने घर "बबीना" जा रहे थे। क्योंकि उनके बाहर के सारे मेहमान बबीना से ही वापस जा रहे थे। अब असली विदाई हो रही थी। अमिता ने चुप्पी साध ली थी लेकिन घटनाक्रम असहज और असह्य थे क्योंकि रात भर सुधियाँ उसे कहाँ चैन लेने दे रही थीं? उनमें बाहर आने की होड़ लग गई थी। ढेरों मृदुल स्मृतियों में वह अटकी हुई थी . . . जिनके वशीभूत होकर यह निर्णय लिया गया था गौतम के संग जन्म जन्मांतर के बंधन बाँधने का और अब उस पर गाज गिर गई थी।
एक रात में ही वह मुरझा गई थी और शिथिल, लाचार, बेबस हो गई थी। गौतम की आँखों की कशिश मृतप्राय हो चुकी थी उसके लिए। उसे समझ नहीं आ रही थी कि वह किस से पूछे और क्या पूछे!!!
अमिता के मन में आस का एक चिराग़ अब भी जल रहा था कि अपने घर पहुँच कर गौतम शायद नॉर्मल हो जाएगा! ज़रा सी भी आहट होती तो वह सोचती, गौतम होगा। कमरे में लटके पर्दे में ज़रा सी भी कंपन होता तो उसे लगता पीछे से गौतम आकर अचानक उसे बाहुपाश में भर लेगा। लेकिन वह! . . . वह तो उसके सामने आने से भी कतराता रहा। कुछ तो बात है जो उसकी चाहत मर गई है!
चार दिनों बाद दोपहर को एक किताब बुक्शेल्फ़ से उठाकर वह बँगले के पीछे की ओर पेड़ों के झुरमुट में, जहाँ ढेरों कटहल लगे थे और जो पकने पर लगभग फट पड़ने को आतुर थे, उन फलों की मीठी मादक महुवाई गंध हवा में समाई हुई थी; जिससे उसके क्लांत मन को कुछ राहत मिली तो वह चुपचाप वहाँ जाकर बैठ के उसे पढ़ने लग गई थी। कुछ ही देर में गौतम भी उधर आया और उसके पास वहीं पड़ी एक कुर्सी लेकर बैठकर उसे एकटक निहारने लग गया था। कुछ देर बाद उसकी ओर देखते हुए बोला था, "क्या तुम मुझसे कुछ पूछोगी नहीं?" और उसके हाथ को पकड़ना चाहा। अमिता ने अप्रत्याशित रूप से उसका हाथ झटक दिया। उसने अपने-आप को पिघलने नहीं दिया था। नारी-दर्प अनजाने में जाग उठा था शायद!
उसे अभी भी याद है कि उसका मन चाहा था कि वह उसका मुँह नोच ले और उसकी छाती पर ज़ोर-ज़ोर से मुक्के मारे! लेकिन वह संयत रही। उसने मौन रहकर केवल अपनी प्रश्नोभरी दृष्टि उस पर टिका दी थी। उसकी अन्वेषी निगाहें गौतम के चेहरे को ताकती रहीं। मानो उसमें दबी पड़ी राख में से चिंगारी निकलते हुए देख रहीं थीं जो उसके जीवन को जलाकर भस्म करने लगी थी। अपने धैर्य की पराकाष्ठा पर वह स्वयं हैरान थी।
उसे लगा उसका तालु ज़ुबान से चिपक गया है, वह यदि बोलना चाहे तो भी बोल नहीं पाएगी।
उस दिन गौतम ने बहुत सहज भाव से अपने गुनाह को क़बूल किया या कन्फ़ेशन किया (मालूम नहीं उसमें कितनी सच्चाई थी) . . . वह बोला, "विवाह से पूर्व मैं तुमको कुछ बताना चाह रहा था। मैंने कई बार कोशिश की, लेकिन दृढ़ विश्वास में लिप्त तुम कुछ भी सुनना और समझना नहीं चाह रही थी। उधर, माँ ने भी अपनी सौगंध देकर, मुझे रोक लिया था। मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखना चाहता था। मैं समझ रहा हूँ तुम काँटों पर चल रही हो। मैं बहुत हिम्मत बटोर कर तुम्हारे सामने आया हूँ तुम्हें यह बताने कि असल में मेरे जीवन में एक हादसा हो चुका है। मुझे किसी के साथ गंधर्व विवाह करना पड़ा है किसी मजबूरी में। (हैरानी की बात है कि यह मजबूरी उसने अमिता को कभी नहीं बताई) तुम्हें स्पर्श करना भी अब मैं पाप समझता हूँ।(वाह क्या नैतिकता का स्तर निश्चित किया था उसने अपने लिए) मैंने माँ और बाबूजी को बोला था। लेकिन वह माने नहीं। उनकी और तुम्हारे बाबूजी की इज़्ज़त का वास्ता देकर उन्होंने यह विवाह करवा दिया। मैं लज्जित हूँ तुम्हारे समक्ष! तुम जो चाहे मुझे सज़ा दे दो!
"वैसे मेरा रिज़ल्ट भी आ गया है मैं अनुत्तीर्ण हो गया हूँ। यह आखिरी चांस था मेरा। अब मैं इस जीवन में कुछ भी बन नहीं पाऊँगा। तुम्हें जैसा जीवन देने के ख़्वाब मैंने सँजोए थे वह सब धराशायी हो गए हैं। तुम्हें मैं जीवन में निराशा के अलावा कुछ भी नहीं दे पाता, यह बात और है कि जीवन के घटनाक्रम कुछ और ही मोड़ लेकर बदल गए हैं। मैं तुम्हारा अपराधी बन गया हूँ। अब तुम बताओ क्या करना है?"
यह सब सुनते-सुनते अमिता की आँखों से आँसुओं की झड़ी चेहरा भिगोते हुए ब्लाउज भी भिगो रही थी। वह इतने बड़े अप्रत्याशित सदमे से ठंडी होती जा रही थी। नतीजतन, वहीं बेसुध होकर गिर पड़ी थी कुर्सी से नीचे।
बेहोशी की हालत में उसे गोदी में उठाकर गौतम भीतर कमरे में पिछले द्वार से ले गया था और पलंग पर लिटा कर उसके मुँह पर पानी के छींटे मारे। इससे पूर्व कि वह होश में आती फिर न जाने वो कहाँ चला गया था।
घर में किसी को कानों-कान ख़बर नहीं लगी थी कि घर के पिछवाड़े किसी का संसार लुट रहा था क्योंकि कई बार चोटों की मार से उभर आए ज़ख़्मों के जवाब में एक रिक्तता होती है जिसे भरना असह्य होता है चोट खाने वाले के लिए। उसकी अनुभूतियाँ चोटिल होकर भी अभिव्यक्त नहीं हो पाती हैं। आशाएँ, उमंगे धराशायी होने पर बर्दाश्त भी हार जाती हैं एक बिंदु पर आकर। वे खंड-खंड बिखर कर अखंड रूप धारण कर लेती हैं और बोझ लाद देती हैं मनोमस्तिष्क ही नहीं . . . संपूर्ण जीवन पर।
अमिता को यहाँ पर हीन ग्रंथियों का उभरकर गौतम के व्यक्तित्व पर छा जाना परिलक्षित हो रहा था। गंधर्व विवाह की बात या बहाना उसके गले नहीं उतर रहा था। या फिर वह शारीरिक रूप से अयोग्य(इम्पोटेंट) था विवाह के लिए! क्योंकि उस ज़माने में जब प्रेम-पत्र लिखना भी अपराध माना जाता था तो आज की तरह प्रेमी लोग आपस में शारीरिक संबंध नहीं बनाते थे, जिससे उन्हें एक दूसरे के विषय में कुछ ज्ञात नहीं होता था। मातृ सत्ता और पितृसत्ता की एक लक्ष्मण रेखा घर की बहू-बेटियों के चारों ओर खिंची होने से वे जीवन संस्कारित रूप में बिताती थीं।
यह सब कन्फ़ेशन सुनकर भी अमिता उस पर विश्वास नहीं कर पा रही थी। उसे गौतम के प्रेम पर पूर्णतया विश्वास था। सोचने लगी थी कि गौतम उसे इस हद तक प्रेम करता है कि उसे जीवन के समस्त सुख देना चाहता है और परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने पर उसका मन टूट गया है कि वह अब ऑफ़िसर नहीं बन पाएगा इसलिए उससे दूर हो रहा है। वह प्रेम की शक्ति को पहचान ही नहीं पाया था। वह भी तो पढ़ी-लिखी थी उसके साथ क़दम से क़दम मिलाकर जीवन की नैया को आगे खींच सकती थी। लेकिन उसके मनोमस्तिष्क पर हीन-ग्रंथि या इंफ़ेरियारिटी कंपलेक्स हावी हो गया था, जिससे उसके मन की ऊर्जा शक्ति निढाल हो गई थी और उसने यह बहाना बना लिया था।
अकेले में वह आँसुओं से मन की ज़मीन को पखारती थी। कभी-कभी उसे लगता था, नपुंसकता . . .! हाँ यही शर्तिया तौर पर इसका प्रमुख कारण हो सकता है। साइकोलॉजी की छात्रा होने के कारण वह गौतम की अंतर्वेदना को भी उसके चेहरे से पढ़ पा रही थी। और क़यास लगा रही थी कि हो सकता है अपनी जवानी में उसने अस्वाभाविक रूप से सैक्स बहुत किया हो जिससे उसकी स्वाभाविक शक्ति समाप्त हो गई हो! उसके मन में यही गठान पड़ गई थी अब, क्योंकि इसी दम पर "नामर्द" कहते हुए बाबू जी ने आख़िरकार गौतम से उसे तलाक़ दिलवाकर छुटकारा दिलाया था। गोपी चाचा ने भी तो यही कहा था, "अरे, ऐसा कौन सा मर्द होगा जो, जिसके प्यार में पागल बना फिरता था उसे अपनी बग़ल में होने पर उसे छुआ तक नहीं। ऐसे ही सिद्धांत की बातें करता है वो नामर्द!"
उसने अपने आप को मज़ाक नहीं बनने दिया था। आने वाले वक़्त का हौसलों से मुक़ाबला किया था। उच्चतम शिक्षा प्राप्त करके उसने समाज में एक ऊँचा मुक़ाम हासिल कर लिया था। बीती उम्र की आहटें उसके जीवन की गतिविधियों में अवरोध नहीं बन पाई थीं। पिता का साथ और उसका आत्मविश्वास उसका संबल बना रहा था ता उम्र। क्योंकि उसने अपनी हथेली पर सूरज उगा लिया था!
अमिता ने एकदम चुप्पी साध ली थी। कोई गिला, कोई शिकवा नहीं किया था कभी किसी से। और जब एक हफ़्ते बाद पहली बार भैया मायके के लिए उसे लिवाने आया था तो भैया को कुछ बताए बिना, वह आत्मविश्वास से भर कर एक दृढ़ निश्चय लेकर उस घर को सदा के लिए त्यागने का निर्णय लेकर वहाँ से चल पड़ी थी। गौतम को सज़ा तो उसने क्या देनी थी। लेकिन उससे एक गिला उसे उम्र भर रहा कि काश! वह उसे सच बता देता। तभी से वह स्टेशन पर गौतम की धूमिल छवि को नकारने की यादों से . . . यादों की सुरंग में उतर रही थी। और उसके हाथ उन सुधियों से लिपटे पन्नों के चिथड़े-चिथड़े कर रहे थे।
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