पंछी का रुदन

01-05-2024

पंछी का रुदन

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“अरे रे रे रे यह तोता घर में आ गया है!”

घर के भीतर तोता उड़ता देखकर मैंने हैरानी से मिनी की सहेली जया से कहा। अस्पताल में अचानक मिलने पर जया को उसके घर छोड़ने गए तो उसने कहा कि चाय पीकर जाएँ और हम भीतर चले गए थे। मेरे घुटनों में दर्द था तो उसका फ़्रोज़न शोल्डर हो गया था। उसका घर रास्ते में ही था। अचानक देखा कि एक तोता उड़ता हुआ आकर दरवाज़े की चौखट पर बैठ गया है। जया हँस पड़ी, और मुझसे बोली, “आंटी, इसे घर में ही रहना है, पहले पिंजरे में रखा था, अब घर में खुला छोड़ दिया है-अब कहीं उड़कर नहीं जा सकेगा, यह पर कटा पंछी है।”

जाने क्यों ऐसे लगा, मैंने उसके फड़फड़ाने में उसका रुदन सुना है जो मेरे अंतस को बेध गया है। उस उड़ान में ऊर्जा नहीं बेबसी थी। तभी से मेरे भीतर ‘पर कटा’, ‘पर कटा’ गूँज रहा था। पंछी जब पिंजरे में क़ैद हो जाता है—उसकी उड़ने, बाह्य संसार में विचरने की औक़ात कहाँ रह जाती है? उसके पर कतर दिए जाते हैं! या वह समझ लेता है कि अब उसके पर काट दिए गए हैं। उसे दिन-रात नील गगन का प्रकाश तो दिखाई देता है लेकिन वहाँ विचरते पंछियों के साथ उड़ान भरने की उसकी प्रबल इच्छा भीतर ही भीतर त्रास बनकर उसे वेदना और संताप देती रहती है क्योंकि नीड़ के भीतर सिमट जाने का दर्द उस परिंदे से ही पूछो जिसकी उड़ान की हद में कभी पूरा आसमान था। अपने आप को मैं उसी परिंदे की तरह महसूस करने लग गई थी। 

‘पर कटा’ पंछी ही तो हूँ मैं भी! 

मैं भी तो ख़ामोशी को ओढ़े, अपने रुदन को आँखों की कोरों में छुपा-भीतर जाकर एकांत में कमरे की छत को निहारती पलंग पर लेट जाती हूँ। यही दिनचर्या है मेरी। अपनी तमन्नाओं की गठरियाँ बाँधकर मन की परछत्ती पर रख दी हैं मैंने। यही मेरा पिंजरा बन गया है अब। मैं कहीं भी ना जा पाती हूँ ना कोई मुझे ले जाता है, जब तक कि कहीं ज़रूरी ना हो। मेरी ही बेटी है लेकिन अपने बच्चे अपने परिवार में दिन-रात जुटी रहती है। माँ की ओर कोई ध्यान ही नहीं। माना कि गृहस्थ एक बहती नदिया है जिसने आगे ही बहते जाना है। लेकिन पहले भी तो परिवार होते थे, बड़ के पेड़ की तरह इंसानों, जानवरों, पंछियों सभी को आसरा देते थे। अब ‘बोनज़ाई’ पौधों का ज़माना है ना! परिवार भी बोनज़ाई हो गए हैं। आज के युग में किसी के पास समय ही नहीं है। घर बड़े हो गए हैं लेकिन उनमें जगह कम हो गई है क्योंकि घर में होते हुए भी हर कोई अपने कमरे में बंद है। सबकी अपनी प्राइवेसी है। कितना भी चीख़ पुकार लो कोई सुनने वाला नहीं है! 

एक बार कमरे में पैर फिसल गया तो घुटनों की दर्द के मारे मैं उठ नहीं पाई। कितनी ही कोशिश करी लेकिन घुटनों का दर्द पैर ही नहीं टिकने देता था। बहुत जद्दो-जहद करने पर कोई घंटे भर बाद मैं पलंग के पावे को पकड़कर उठी और हिम्मतकर पलंग पर आई! अकेली बैठी रोती रही। क्योंकि फोन दूर पड़ा था तो ज़ोर-ज़ोर की आवाज़ें भी लगाईं, तालियाँ भी बजाईं। लेकिन किसी ने कुछ नहीं सुना। ना ही कोई आया। मैंने भी चुप्पी साध ली थी। 

 बहुत समझाया था मेरी सहेली रश्मि ने, “सुन शशि, मिनी के पापा के जाने के बाद अपना घर ना बेच। अपना ठौर-ठिकाना रखा रहने दे।”

लेकिन मैंने एक नहीं सुनी थी उसकी। अपने घुटनों के दर्द के कारण मैं अकेली रहने से डर गई थी। इसलिए मैंने कहा, “मेरी तीन-तीन बेटियाँ हैं। जान छिड़कती हैं मुझ पर! मुझे अकेली नहीं छोड़ेंगी। उन्हें सारी समझ है कि पापा मम्मी को कभी अकेले नहीं रखते थे। हर जगह साथ लिए घूमते थे। रश्मि बहन जी! मेरी बेटियाँ भी पापा के अचानक जाने से अधमरी हो गई हैं। अब माँ को देखकर ही जी पाएँगी ना। मैं उनके पास ही रहूँगी यहाँ अकेले कैसे रहूँगी?” 

जीवन साथी के चले जाने से मैंने अपना बसा बसाया घर बेचने में देर नहीं लगाई और सारा सामान डिस्पोज ऑफ़ करके मिनी के घर आ गई थी। हाँ, लकड़ी की एक बड़ीअलमारी मैं अपने साथ ले आई थी

जो मेरे कमरे में मुझे अतीत से जोड़े रखती थी। 

ताज़ी-ताज़ी चोट थी, तो सब बहनें इकट्ठी हो जाती थीं मिनी के घर! अंजू और सोनिया भी। धीरे-धीरे सब अपने परिवारों में व्यस्त होती चली गईं। अंजू के ससुर बलदेव जी भी तो अकेले हैं कुछ वर्षों से! उसकी सास भी उन्हें तन्हा कर गई थी। अंजू ने अपनी बेटी का रिश्ता तय किया है। उसे शादी की तैयारियाँ करनी थी फिर दूसरे शहर से रोज़-रोज़ आना कहाँ हो पाता है। 

इधर सोनिया की दोनों बेटियाँ स्कूल जाती हैं घर में सास-ससुर भी हैं। पति भी सवेरे दुकान जाता है। वहाँ खाना भेजना होता है दुकान पर। बच्चों को ट्यूशन क्लासेस से लाना-लेजाना होता है। वह तो अब कम ही आती है। फोन भी कभी-कभार कर लेती है वह भी जल्दी में। क्या ऐसी होती है बेटियाँ? लोग यूँ ही बहुओं को दोष देते हैं। मेरी आशाओं के विपरीत हो गया यह तो। मिनी के भी यही हाल हैं। मुझ पर भी बंदिशें लग गई हैं अनजाने में! किसी के पास समय नहीं है आज के युग में! प्यार की प्यासी मेरी आत्मा एक ऐसा आकाश ढूँढ़ती रहती है, जहाँ मेरे ख़्यालों की परवाज़ कोई सुने, उसे महसूस करे। 

मायूसी की चादर ओढ़ मैं भीतर पलंग के उस कोने पर जाकर बैठ जाती हूँ, जो मेरे वहीं बैठे रहने से कुछ दबकर उलाहना देता लगता है। लेकिन करूँ भी क्या मेरे पाँव अभ्यस्त हो चले हैं वहीं रुक कर उसी कोने पर स्वाधिकार पाने को। वहाँ मैं पीठ टिकाकर बैठने की मुद्रा में सामने काँच की खिड़की से दिखते पौधों पर मन ही मन में रिसर्च करती रहती हूँ। उसमें भी समय बीत जाता है। मेरे पास कुछ किताबें हैं बस उन्हीं में से थोड़ा-बहुत पढ़ भी लेती हूँ बीच-बीच में। पढ़ने की आदत भी ख़त्म हो गई है अब तो। सामने किताब खुली पड़ी होती है और मैं तुम में खो जाती हूँ! 
अब जीवन का अर्थ ‘वक़्त’ को बिताना है और वक़्त के सम्मुख हम सब बौने हो जाते हैं। आलोक! तुम चले गए मुझे छोड़कर! हाँ जाना तो था ही! हम दोनों बात करते थे कि बुढ़ापा आने पर देखें हम दोनों में से कौन पहले जाएगा ? लेकिन बुढ़ापा तो आया ही नहीं। उससे पहले जाने की तो कभी बात ही नहीं हुई थी। फिर क्यों . . .? क्यों चले गए- . . .-. . . तुम!

कभी ख़ामोशी भी आवाज़ देती लगती है। तुम्हारी सदाएँ आती हैं। याद करती हूँ तुम्हें और रो पड़ती हूँ विफ़र के। वक़्त की लहरें पैरों के नीचे से रेत चुरा के ले जाती हैं। वक़्त की अगली लहर फिर यही दोहराने आ जाती है, और वक़्त वहीं खड़ा रह जाता है! बौना का बौना!! 

सड़क पार सामने वाले घर के प्रांगण में लगे मोरिंगा के पेड़ पर हवा का बहाव आया और पत्तों के साथ-साथ मोरिंगा की फलियाँ (ड्रमस्टिक) भी डोलने लगीं तो मुझे तुम्हारा पसंदीदा मोरिंगा के पत्तों का साग और आटे में डालकर उसकी परोठियों का स्वाद याद आ गया। हम कभी-कभी मिनी से मोरिंगा के पत्ते मँगवाया करते थे न। जब से मिनी के घर रहने आई हूँ तो भूल ही गई हूँ। तुम बिन स्वाद ही भूल गए हैं सब खाने के! 

पितृ सत्ता में माँ बाबा का प्यार दुलार जीवन में रस घोलता है, तो पति सत्ता में पति का प्रेम व लाड़-प्यार! अपनी बेटियाँ जो मैंने जाई हैं, वह भी अब पराई लगती हैं। कुछ भी कहने से पूर्व दस बार सोचना पड़ता है। कहीं बुरा ना मान जाएँ या मुझे ही उपदेश न सुनाने लगें। माँ-बाप की डाँट खाई जाती थी। पति से भी रोज़ किसी न किसी बात पर कुछ खटपट हो जाती थी फिर हम एक हो जाते थे। लेकिन बेटियों का कुछ कहना दिल को चोटिल क्यों कर जाता है? बेचैन आत्मा सी बाद में विफरती रहती हूँ कि मैंने क्यों कुछ कहा? वह कहती हैं, “हम गृहस्थी वाली हैं माँ! क्या अब भी आप हमें सिखाओगे।”

“तेरे भले के लिए कहा था बेटा! मुझसे देखा नहीं गया कि मलाई लगा भगोना बाई ने माँजने को रख दिया।”

“आप जाकर भजन कीर्तन सुनो। इधर ध्यान मत करो टीवी लगा लो। काम वाली काम छोड़ गई तो पता चलेगा आटे दाल का भाव!”

ऐसी बातें तीर सी चुभती हैं। अरे चौबीस घंटे कौन भजन-कीर्तन करता है? नित नेम कर लिया बहुत है। घर में कुछ अनचाहा घटा तो अपना घर समझ कर चेता दिया, तो बात सुन ली। अपना दिन तो गया ना!

बच्चों के आगे ज़ुबां नहीं खुलती।

दिल में रस्सा कशी बाक़ी है! 

कहने को मेरी बेटी है लेकिन यह पूर्ण रुपेण एक अन्य स्त्री है जिसके अपने विचार, अपनी सोच है उसकी वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल। जो भावनात्मक स्तर पर माँ की स्थिति पर ग़ौर नहीं कर पाती है। बीच में कोहरे की चादर आ जाती है। उस पार नहीं दिखता कि उधर सुबह बेचारी दुबकी हुई बैठी है। कोहरे की चादर हटे तो वह खिल कर चमके। उस सुबह के फूल जो कोहरे के कारण आँखें मूँदे पड़े हैं साहस नहीं कर पा रहे कि पूछें अभी तक सुबह क्यों नहीं हुई है? क्योंकि वह बोल नहीं पा रहे हैं। लेकिन कह बहुत कुछ रहे हैं। फ़र्क़ यह है कि वे शिकायत दर्ज़ नहीं करा रहे। ऐसी दर्द की कड़ियों में मुझे अपनी साझेदारी लगती है। 

उदासी का बवंडर छाने पर अपने कमरे में जा मैं अपनी अलमारी को बाँहों में भर लेती हूँ, अपनेपन का एहसास होता है। दोनों पल्ले मेरी गिरफ़्त में आ जाते हैं। तब ऐसा सुकून, ऐसी शान्ति मिलती है जैसे कोई अपना (शायद आलोक) बिछड़ा हुआ मिल रहा हो। उसी में मेरा अतीत जीवंत है। 

हर घटित को स्मृति में पुनः रचते समय हम वहीं पहुँच जाते हैं। यादों के अंधड़ चल पड़ते हैं—जब मैं अलमारी खोल कर खड़ी हो जाती थी तो आलोक चुपचाप पीछे से आकर बोलते थे, “फिर इसी उलझन में हो ना कि क्या पहनूँ? अरे भाई ना हम कहीं जा रहे हैं ना कोई हमारे घर आ रहा है। फिर क्यों परेशान हो। तुम कुछ भी पहनो सब जँचता है तुम पर!” (मन ही मन प्रसन्न होते हुए) 

“आप भी ना सोचने नहीं देते कुछ। अरे आज शनिवार है मैं काले प्रिंट का सूट पहन लेती हूँ। देखा ना झट फ़ैसला हो गया मेरा।”

अतीत पुकार लेता है और मुझे लगता है अभी आलोक कहीं गए हैं, बस आने ही वाले हैं। अभी कानों ने उनकी आवाज़ सुनी है . . . इसी में मन के कोमल ताने-बाने उलझ कर रह जाते हैं। 

आलोक की पहली बरसी पर ‘वरीना’ हुआ! साल बीत गया था। मन के अँधेरे कोनों में व्याप्त पीड़ा उफान मारने लगी। सभी रिश्तेदार और पहचान वाले पहुँचे। मैं भीतर से निस्संग अकेली थी। मुझे अपने संवेगों का चेत था। मैंने शांत मुखौटा लगा रखा था। मिनी और अमर ने बढ़िया इंतज़ाम किया था पूजा और खाने-पीने का। अंजू भी आई थी तो बोली, “मिनी, अब माँ को मैं ले जा रही हूँ। कुछ दिन वहाँ रहेंगी तो मन बदल जाएगा और मैंने शादी की तैयारी भी तो करनी है। माँ घर सँभाल लेंगी।” मिनी ने हामी भर दी तो मैंने झट दोपहर को अपने इस नए आलणे (घोंसले) को बाय-बाय कर दी कि वापस आकर उससे बातें करूँगी। 

क़रीब तीन घंटे बाद हम चंडीगढ़ उसके घर पहुँचे तो, “आईये समधन जी!” कहकर अंजू के ससुर बलदेव जी ने स्वागत किया। उन्हें देखते ही मेरी आँखें छल-छला आईं उनके अपनत्व से सराबोर स्वागत से। लगा धूप मानो कुछ गीली सी हो गई है मेरी आँखों की गीली कोरों की तरह! हम दोनों आलोक की कमी को महसूस कर रहे थे। अपने पास पड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया तो मैं उनके स्नेह से सिक्त भाव को ग्रहण करती वहीं बैठ गई। इतने में दामाद जी मेरा सूटकेस एक कमरे में ले गए–लगा, शायद यही इस ‘पर कटे पंछी’ का अगला घोंसला होगा। 

अब तो नाश्ते से लेकर रात के खाने तक बलदेव जी का साथ हो गया था। अंजू शॉपिंग के लिए जाती थी तो मैं पीछे से खाना और घर के काम करवा लेती थी कामवालियों से। यहाँ मुझे समय का पता ही नहीं चल रहा था। अंजू की एक-दो सहेलियाँ मीरा और अलका भी कई बार आ जाती थीं। अलका बहुत बोलती है। वो आते ही कहती, “तो आंटी गपशप चल रही है!” मैं मुस्कुरा देती। 

कभी हम चाय पी रहे होते थे तो वह कहने से नहीं चूकती थी, “बढ़िया समय कट रहा है ना आंटी जी? बोर तो नहीं हो रहे हो आप! नहीं तो मैं अपने घर ले चलूँ। अपने घर घुमा लाऊँ। क्यों अंकल जी! आंटी जी का ध्यान रखना।” 

मैं मुस्कुरा कर उसे कहती, “सब ठीक है बेटा! थैंक यू!” 

शनै: शनै: दिन बीते और मेरी प्यारी गुड़िया ‘आन्या’ की शादी के शगन प्रारंभ हो गए। सारे मेहमान आ रहे थे। मिनी और सोनिया भी सपरिवार आईं। घर और किचन सँभालने की मेरी सख़्त ड्यूटी थी जिसे मैं निभा रही थी बड़े प्रेम और उत्साह से। मुझे कहीं नहीं जाना होता था। मैं तो घबरा रही थी कि शादी के दिन तैयार कैसे होंऊँगी! ख़ूब गाना बजाना और चिल्ल-पौं मची हुई थी। मैंने गोल्डन बॉर्डर की क्रीम कलर की साड़ी पहन ली थी मैरिज पैलेस जाने के लिए और चुपचाप मिलनी के गहनों के डिब्बे लिए वहाँ एक जगह जाकर बैठ गई थी। (घुटनों के कारण चल जो नहीं पाती थी) 

देखती हूँ कि सामने से ख़ूब सजी-धजी अलका और नीरू भी आ रही हैं। अलका आते ही बोली, “आंटी जी आप तो बहुत ही प्यारी लग रही हैं! अंकल जी कहाँ है? आपने उनको कहाँ छोड़ दिया?” 

बड़ा ऊट-पटाँग सा लगा मुझे उसका यह वाक्य। मैं चुप रही। लाँवा-फेरे (भंवरों) के समय घर के सब लोग बैठे थे तो बलदेव जी भी हम सबके साथ कुर्सी पर आकर बैठ गए। ना जाने कब अलका ने मेरी और बलदेव जी की बात करते हुए की इकट्ठी तस्वीर खींच ली, हमें मालूम भी नहीं हुआ। शादी की गहमा-गहमी के बाद जब मैं वापस मिनी के घर जाने की तैयारी कर रही थी, तो मुझे लगा था बलदेव जी का मन उदास हो रहा है क्योंकि यह स्वाभाविक है कि हम उम्र का साथ तसल्ली बख़्श होता है। अकेले पहाड़-सा दिन काटना सबको कठिन लगता है। तभी अचानक नीरा और अलका आ गई अंजू की उदासी दूर करने क्योंकि विदाई के बाद अंजू बहुत उदास थी। अंजू ने उनको बताया कि माँ कल जा रही हैं। दीदी लेने आ रही हैं। इस पर वह तपाक से छूटते ही बोली, “अरे आंटी कैसे जा सकती हैं हमारे अंकल जी को छोड़कर? दोनों का सारे दिन का साथ है! (फिर तस्वीर निकाल कर फोन पर दिखाते हुए बोली) देख ना दोनों की फोटो, कितने प्यारे लग रहे हैं दोनों मुस्कुरा कर बातें करते हुए।”

मेरा काटो तो ख़ून नहीं! मैं हक्की-बक्की उसकी ओर देखते हुए कुछ बोलते ही लगी थी कि अल्फ़ाज़ मेरी ज़ुबान की सीढ़ी पर चढ़ते-चढ़ते फिसल गए और भीतर के अंधकार में जा गिरे। 

उसकी बात सुनकर अंजू भी हैरान रह गई। ग़ुस्से से उसको डाँटते हुए बोली, “क्या बकबक किये जा रही है अक्कू तू! बिना सोचे-समझे। तेरा दिमाग़ दाएँ-बाएँ ख़ूब घूमता रहता है चल जाकर अपना काम कर। फ़ालतू की बातें मत कर।” (फिर मुझे बहलाते हुए) बोली, “माँ, आप इसकी फ़ालतू की बकवास मत सुनो। चलो, चलकर थोड़ा भीतर आराम कर लो। थक गए होंगे आप इन दिनों, बहुत काम किया है आपने।”

अपनी चुप्पी व विचारों की गहराई से मैं स्वयं ही डर कर लाड़-प्यार और संस्कारों की एक ठंडी रस्म निभा रही थी। मैं भूल गई थी कि इस पिंजरे के पंछी पर अब सामाजिक बंदिशे लग गई हैं। हाँ मुझसे ग़लती हुई थी एक हम उम्र को देखकर उससे कभी-कभार हँसने-बोलने की! रिश्तों के उधड़ने के डर से मैं भीतर ही भीतर घुट कर रह गई थी। लेकिन मेरे कान पंछी का रुदन सुन पा रहे थे . . .! 

1 टिप्पणियाँ

  • 24 Apr, 2024 08:02 AM

    वीना विज उदित की कहानी पर कटे पंछी की व्यथा से शुरू हो कर इंसानी जिंदगी के अधूरे पन और पल पल टूटने और बिखरने की कहानी है । अकेले पन का दंश है जिसे चाहे अनचाहे झेलना पड़ता है। भ्रम में जीना पड़ता है कि हम किसी के साथ हैं या कोई हमारे साथ है ।सच तो यह है कि वास्तविकता के धरातल पर छटपटाहट के साथ जीना अधूरापन है। बहुत सुंदर कहानी।पल -पल अकेलेपन की परीक्षा दुखद है।

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