अभिशप्त आत्मा

15-06-2025

अभिशप्त आत्मा

डॉ. वीणा विज ’उदित’ (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

आर्मी यूनिफ़ॉर्म में सूरज बेहद आकर्षक लग रहा था। लंच पर घर आते ही सीधे डाइनिंग टेबल पर पहुँच कर बोला, “अरे भाई सलाद की प्लेट ही रख देनी थी!” (मानो बहुत भूख लगी हो) 

“अभी लाई,” कहकर दौड़ती हुई वसुधा किचन में टमाटर काटने लग गई थी और कटे प्याज़ जो पानी में भीगे पड़े थे, वहाँ से उठाकर सलाद की प्लेट में सजा कर ले आई थी। फिर लौट कर गैस जलाकर चपाती बेलने लग गई थी। आज उसने बहुत चाव से लौकी वाला मीट बनाया था। 

“हरी मिर्च और नींबू मैं डालूँ क्या?” वह खीझता हुआ बोला। 

वह गैस के पास से ही बोली, “प्लीज़ डाल लो ना!”तब तक वह चपाती लेकर आ गई थी। इतने में सूरज को ग़ुस्सा आ गया और उसने प्लेट से चपाती लेकर उसका हाथ ज़ोर से झटक दिया। वह चुपचाप सह गई क्योंकि मैं उनके पास आई हुई थी और उसने मुझे डाइनिंग टेबल की ओर आते देख लिया था। 

सूरज ने शॉर्ट कमीशन में आर्मी ज्वाइन की थी। वह क़िस्मत का धनी था कि बाद में उसे स्थायी जॉब मिल गई थी कप्तान की। साथ ही वसुधा से शादी भी हो गई थी। मुझे तो दोनों ही बहुत मस्त लगे थे। लेकिन मैं आज उस का ग़ुस्सा देखकर हैरान थी। या तो ऑफ़िस में कोई परेशानी थी या फिर घर में नई ब्याही बीवी से छेड़खानी नहीं कर पा रहा था मेरी उपस्थिति में! कुछ तो कारण था तभी धुआँ उठा था—मैंने सोचा! 

ख़ैर, खाना खाते हुए सूरज ने कुछ औपचारिक बातें करके मुझसे पिंड छुड़ाया और अपने बेडरूम में आराम करने चला गया क्योंकि चार बजे पुनः उसने ऑफ़िस जाना था। वसुधा हर दिन की भाँति उसके साथ आराम करने ना जाकर मेरे पास गैस्ट रूम में आ गई थी मूड हल्का-फुल्का करने। मेरा होना उसे संबल दे रहा था शायद! नहीं तो एकांत में अपने को सहेजना कितना दुष्कर हो जाता है! एक घुटन, एक उकताहट जो खीझ में बदल जाए; एक दर्द जो भीतर ही भीतर पले और फिर गल जाए कि उबकाई आ जाए! लगे गले में गुठली अटक गई है जो निगलते बनती है ना थूकते। चारों ओर से आ दबोचता है—विकराल अकेलापन! 

वैसे दोनों के गले सधे हुए हैं। वह किशोर कुमार के गाने गाता है तो लोग झूम उठते हैं और वसुधा का स्वर भी मिठास से भरा है। दोनों डुएट गाते हैं तो महफ़िल जवान हो जाती है। सब पर सुरूर छा जाता है। दोनों के फ़िल्मी गीतों को सुनकर सब पर मस्ती का आलम तारी हो उठता है। इसी बात पर तो इनका रिश्ता तय हुआ था और यह जीवनसाथी बन गए थे। वैसे मैं नोट कर रही थी सूरज में धैर्य बिल्कुल नहीं है, वसुधा का संयम भी आख़िर कब तक रहेगा? वसुधा को लगता है सूरज का वुजूद एक अभिशप्त आत्मा सा अपने में गुम रह कर उसके आसपास मँडराता रहता है। वह होकर भी उसके लिए कभी भी नहीं होता! 

वसुधा भाव प्रवण, कल्पनाओं में उड़ान भरने वाली सीधी-सादी युवती है और वहीं सूरज व्यवहारिकता से परिपूर्ण है। गाने की कला देख कर माँ बाप से ग़लत फ़ैसला हो गया लगता है! घर-गृहस्थी में गीत या फ़िल्मी डुएट गाकर तो जीवन नहीं जिया सा सकता ना! सीधे शब्दों में कहें—तो वसुधा प्रेम दीवानी और वहीं सूरज पुस्तक दीवाना! ज़रा भी समय मिला नहीं कि उसने शैल्फ़ से किताब उठाई और पढ़ने बैठ गया। जिस शैल्फ़ पर ढेरों नई किताबें जगह बनाती ही रहती हैं उससे वसुधा का दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था। बचपन से ही केवल कक्षा में पास हो जाना उसका ध्येय होता था। हाँ नृत्य व गाने में कभी पीछे नहीं थी। फ़िल्म देखने के बाद गेट पर बिकती गाने की पतली सी पुस्तक ख़रीदने के लिए वह मुट्ठी में पैसे पकड़े-पकड़े सारी फ़िल्म देख लेती थी। फिर घर पहुँच कर गाने को याद करना और लय से गाना उसका काम होता था। उधर सूरज अपने रेडियो सिस्टम के साथ स्पीकर्स लगाता और उनकी फ़ाईन ट्यूनिंग करता रहता था। साठ-सत्तर के दशक की बातें हैं। वह अपना म्यूज़िक सिस्टम बढ़िया करता रहता था। क़िस्सा-कोताह यह था कि दोनों अलग-अलग राग अलापते रहते थे। कहीं कोई मेल नहीं था उन दोनों में। हर रात ज़िन्दगी हाथ से फिसलती जान पड़ती थी उसे और वह मुट्ठियों में उस अनिश्चितता को बंद करके सो जाती थी। फिर सुबह देख पाएगी कि नहीं? लेकिन अगली सुबह वह ज़िन्दा होती और फिर ज़िन्दगी दौड़ पड़ती थी खुली हथेली से बाहर . . .! 

वह एक छोटे से क़स्बे से थी, जहाँ बच्चे महल्ले में पलते हैं। जहाँ घर के संस्कारों के अलावा महल्ले भर के संस्कार बच्चों में उम्र भर बोलते हैं। जिससे वह हर ढाँचे में फ़िट हो जाते हैं। पर किताबें न पढ़ने के कारण सूरज उसे मूर्ख एवम् बुद्धिहीन आँकने लगा था। उसके अहम् को चोटिल करके वह संतुष्टि पाता था। वहीं रात को बिस्तर पर संतुष्टि पाना उसकी फ़ितरत थी। वसुधा कई बार ऐसे समय में ठंडी पड़ जाती थी और ख़ामोशियाँ बयाँ कर देती थीं सारे जज़्बात, जबकि शब्दों के तो अपने दायरे होते हैं। 

घर के काम निपटा कर वह कमरे में जाकर बैठ जाती थी। टकटकी लगा उन्हीं कमरों की दीवारों से टकराकर दृष्टि का लौटना फिर फ़र्श पर किसी मोटी काली चींटी को चलते देखना जो नितांत अकेलेपन में बढ़ती, ठहरती फिर दीवार से टकराकर ना जाने किस ओर जाकर गुम हो जाती थी उसे अकेला छोड़कर! पुनः ख़ालीपन ऐसा कि नस-नस में पसर जाता था। सूरज के ऑफ़िस जाने और उसके लौट के आने तक की घर में छोड़ी हुई चुप्पी बस चुप्पी ही तो चारों ओर व्याप्त होती थी। इस जाने और फिर लौट के आने के बाद यदि एक स्मित मुस्कान की प्यासी उसकी आँखें तरस रही होती थीं तो क्या माँग लेती थी वह? घर आते ही एक मीठा आलिंगन ही तो माँगती थी वह, फिर चाहे वह नज़रों का हो या बाँहों का! और जब कभी ऐसा हो जाता तो उसके चेहरे पर बहार आ जाती और वह गुनगुना उठती थी। 

वह हर दिन चाव से तैयार होती लेकिन सूरज नज़र भर कर उसे कब देखता था? हाँ, शनिवार रात को आर्मी क्लब में जाना होता था। वहाँ की जीवंतता उसे जीवित रखे हुए थी। गाने की फ़रमाइश होने पर जब माइक लेकर वह एक गीत सुनाती–तो गाने पर दाद व तारीफ़ पाकर उस पर सुरूर छा जाता। हफ़्ते के छह दिन पुनः इसी आस में गुज़र जाते थे। 

तभी नन्हा पुनीत उनके जीवन में आ गया और वह पुनः एक बार बचपन में खेलने लग गई थी। छह महीने मायके में रहने के बाद सूरज जब उसे लेने आया तो गोल-मटोल अपनी छवि देखकर वह अचंभित था। वसुधा की दुनिया नन्हे पुनीत के साथ खिल रही थी। सूरज का अर्दली सुबह आकर साहब के बक्कल ब्रासो से चमकाता, बूट पॉलिश व ड्रेस तैयार करके फिर नन्हे पुन्नू को प्रैम में सैर कराने के लिए ले जाता था। पुन्नू भी उसे पहचाने लग गया था वह शाम को भी उसे घुमाने ले जाता था। समय के पंख उड़े जा रहे थे साथ ही पुनीत भी। 

आर्मी पोस्टिंग जगह-जगह होने से पुनीत को केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाना आरंभ किया गया। सूरज अब मेजर था। उसने कुछ दोस्तों को आर्मी के फ़्लैट बुक करते सुना तो उसने भी एक फ़्लैट के लिए आवेदन पत्र भरना चाहा। इस पर कैप्टन राव ने छूटते ही कहा, “ओ मेजर साहब, बेवुक़ूफ़ लोग फ़्लैट बुक करवा कर किश्तें भरते रहते हैं मर-मर कर और अक़्लमंद किसी का फ़्लैट किराए पर लेकर फिर कभी छोड़ते ही नहीं। समझे कुछ . . .? हमारे देश का क़ानून कितना बेकार है ना!”लेकिन फिर भी सूरज ने फ़्लैट के लिए आवेदन पत्र भर ही दिया। अब घर के ख़र्चे में कटौती आरंभ हो गई थी। वसु को वह रसोई ख़र्च के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देता था। वसु अपने दहेज़ की सिलाई मशीन से अपने ब्लाउज पेटीकोट सिलती रहती थी। आर्मी ऑफ़िसर्स की बीवियों ने उससे कपड़े सिलवाने शुरू कर दिए। वह फ़्रॉक भी बहुत सुंदर बनाती थी। उसका काम ख़ूब चल गया था लेकिन सूरज इस सबसे बेपरवाह था। उसे केवल अपनी शारीरिक क्षुधा बुझाने से मतलब होता था, जबकि वसु को बिना प्रेम के शारीरिक उपभोग से उबकाई आती थी। 

उसने ओशो को सुना था “प्रेम का अर्थ है—दो व्यक्तियों के बीच असंभव घट जाना।” कुछ असंभव तो उसके जीवन में कभी घटा ही नहीं। अर्थात्‌ प्रेम तो उसे कभी हुआ ही नहीं। न जाने वह कौन सी रात होती है जो किसी सपने का मस्तक चूम लेती है। जिससे फिर ख़्यालों के पैरों में एक पाजेब सी बजने लगती है। वही फिर पैरों की ज़ंजीर बनने लग जाती है . . . ऐसे ख़्याल आकर उसके समक्ष मुस्कुराने लग जाते थे! उसे लगता था उसका प्रियतम बादलों की ओट में छिपा है, जहाँ पहुँचने के लिए कोई सीढ़ी नहीं है। देखने को कोई खिड़की भी नहीं है . . .! 

इन्हीं दिनों कैप्टन आशुतोष आया जो इनकी पुणे की पोस्टिंग में भी था। लेकिन वसुधा से कभी मिलना नहीं हो सका था उसका। एक दिन गाड़ी लेकर अचानक बॉस को लेने वह घर आया, तो वसुधा को देखकर उस पर मुग्ध हो गया। कितनी भोली-भाली, हँसमुख, सरस और सुंदर! उसके मुँह से निकला, “मैम आप बहुत सुंदर हैं!” वह अचानक कह तो गया पर झेंप गया। यह सुनते ही वसुधा के प्यासे हृदय की इच्छा फलीभूत हो गई। वह खाना भी बहुत स्वाद बनाती थी। कपड़े बहुत बढ़िया सिलती थी। तैयार बहुत सलीक़े से होती थी और गाती बहुत मधुर थी। सूरज ने उसके किसी भी गुण की कभी तारीफ़ नहीं करी थी। इस मामले में वह महाकंजूस था। 

आशुतोष को वसुधा बहुत प्यारी लगने लगी थी। वह घर आने के बहाने ढूँढ़ता रहता था और बार-बार आने से वह सर के साथ बैठकर कभी-कभी खाना भी खा लेता था। जिससे उसके मुँह से खाने की तारीफ़ ही नहीं बंद होती थी। इससे वसुधा को उसका आना भाने लगा था। सो उसे भी उसके आने का इंतज़ार रहता था। शायद वसु इसी तारीफ़ की भूखी थी अब तक। 

शनिवार को क्लबनाईट हर आर्मी स्टेशन पर होती है। वसुधा जैसे ही क्लब पहुँचती, आशुतोष उसका इंतज़ार कर रहा होता था और छूटते ही कहता था, “मैम आप कमाल की लग रही हैं!”

यह सुनते ही वसुधा का चेहरा प्रसन्नता से रक्तिम हो उठता था। सूरज तो क्लब पहुँचते ही पैग के बाद पैग चढ़ाता रहता था व्हिस्की के। लेकिन वसुधा को भी जूस में थोड़ी व्हिस्की डालकर देना नहीं भूलता था। जिसके सुरूर में वह माइक हाथ में लेकर कोई फ़िल्मी गीत छेड़ देती थी और महफ़िल लूट लेती थी। शनिवार को पुनीत के पास घर में अर्दली रहता था क्योंकि उसे पढ़ना होता था। वसुधा के जीवन में क्लब आना और गीत गाना– बस यही जीवन, उसे जीने का सबब देता था। 

वसुधा आशुतोष को ‘आशु’ बुलाती थी और कभी-कभी बोल देती थी कि अपने बॉस को भी कुछ सिखाए। तब वह जवाब देता, “उस काम के लिए मैं हूँ ना! उन्हें क्यों तकलीफ़ दूँ?” 

आशुतोष इतवार को आ जाता और पुनीत के साथ साँप-सीढ़ी खेलता। या फिर उसे लेकर ग्राउंड में बैडमिंटन खेलता। उसे भी आशु अंकल बहुत पसंद थे। सूरज भी उससे बातें करता था। जिससे घर भरा-पूरा लगता था! वसुधा भी कुछ ना कुछ स्नैक्स बनाती रहती थी। लेकिन आर्मी वालों की तक़दीर में फिर पोस्टिंग आ जाती है। आशुतोष भी घर चला गया था क्योंकि उसकी शादी की बातचीत हो रही थी। यह लोग बहुत दूर जा चुके थे इसलिए शादी में शामिल नहीं हो सके। आशुतोष कहाँ रुकने वाला था? वह बीवी को उनसे मिलाने वहीं ले आया था। उसने इला से कहा, “तुम मैम से तैयार होना और खाना बनाना सीख लो यार, मज़ा आ जाएगा।” आशु हर बात में वसुधा की इतनी तारीफ़ कर रहा था कि इला हैरान होकर वसुधा से चिढ़ सी गई थी। उसे तो वसु एकदम अपनी सौत की तरह लगी। वह दोबारा उनसे कभी मिलने नहीं गई। हाँ, आशु की दीवानगी सारी उम्र क़ायम रही। वह उनकी हर पोस्टिंग पर उनके पास कुछ दिनों के लिए अवश्य जाता रहा। 

पुनीत बैचलर डिग्री कर के हॉस्टल से घर आ गया था और अब अमेरिका जा रहा था मास्टर्स करने। उसका एडमिशन हो गया था और उसे वीज़ा मिल गया था। पुनीत को वह प्यार से पुन्नू बुलाते थे। उसके जाने से वसुधा बहुत उदास हो गई थी। सूरज अब कर्नल बन चुका था। पुन्नू ने उनको अपने पास बुलाया तो उन्होंने प्री मैच्योर रिटायरमेंट ले लिया आर्मी से और दोनों अमेरिका जाने लगे तो आशु आ गया मिलने के लिए। बाक़ी दोस्त शुभकामनाएँ दे रहे थे लेकिन आशु एक मुर्दे की तरह बोला, “मेरी ज़िन्दगी तो अब ख़त्म ही समझो मैं किसके लिए जिऊँगा? आप दोनों ने सलाह भी नहीं की और फ़ैसला सुना दिया! बहुत ज़ुल्म किया है सर! अच्छा है, जाइए सलामत रहें आप।”

कोई साल भर बाद अपने फ़्लैट के चक्कर में सूरज वसुधा को साथ लेकर भारत आया तो मालूम हुआ कि आशुतोष बीमार रहता है। दोनों उसे देखने चले गए। आशु की कातर दृष्टि मानों पूछ रही थी, “मुझे क्यों छोड़ गये अकेला?” 

वसुधा के हृदय को उसकी दयनीय दशा भीतर तक घायल कर गई थी। लेकिन वह उसका हाथ थाम कर बैठी रही। हालाँकि आशु की पत्नी इला से यह सब सहन नहीं हो रहा था। जब वह वापस अमेरिका चले गए, तो आशु पूरी तरह शराब में डूब गया। मानो जीवन से हताश अब जीना नहीं चाहता हो। बीवी और बेटे की भी नहीं सुनता था। वह देवदास बन गया था अपनी पारो के विछोह में। किसी का कहना नहीं सुनता था। 

कुछ महीनों पश्चात् वसुधा बेटे पुनीत का रिश्ता करने भारत आई और उसे मिली तो वह बोला, “मैम, मैं तो उसी दिन मर गया था जब आपने अमेरिका जाने का फ़ैसला लिया था। तब से इस लाश को ढो रहा हूँ। देखो और कितने दिन इसे ढोना लिखा है क़िस्मत में!”

तब इला ने बताया, “यह आपको बहुत मिस करते हैं! दिन रात शराब पी-पीकर अपने को आपके बिरह की आग में जला रहे हैं। मैं इनकी अर्द्धांगिनी हूँ, सब समझती हूँ। थक-हार कर आपको बता रही हूँ! अब यह हमारे बस में नहीं रह गए हैं।” सुनकर वसु ग़मगीन हो गई और उसकी आँखें अविरल बहती रहीं। यह कैसा रूह से रूह का रिश्ता था? क्या बादलों की ओट से आशु ही झाँक रहा था? 

पुन्नू का विवाह हुआ। सब आए लेकिन आशु नहीं आ सका। अगले दिन अमेरिका जाने की फ़्लाइट से पहले जब यह लोग उसे बाय करने गए तो उसे आईसीयू में ले जाया गया था। सूरज और वसुधा उसके सिर पर अंतिम बार हाथ फेर कर आईसीयू से बाहर निकले तो वसुधा फफक-फफककर रो रही थी। वो उसे अंतिम विदाई दे आई थी। वे लोग अमेरिका पहुँचे तो पहली ख़बर आशुतोष की मिली। वह देह के बंधन तोड़कर आज़ाद हो गया था। आशुतोष जाते-जाते वसु को यूँ बाँध गया था स्वयं से कि वह उसकी अंतिम दृष्टि से अपने को दूर ही नहीं कर पा रही थी। 

वह बैठी-बैठी कहीं खो जाती! फिर अचानक वर्तमान में लौटती और चौंक जाती थी। टीवी पर गाने चलते तो उठकर हीरोइन के साथ नृत्य करने लग जाती और फिर नाचती ही जाती, बाद में थक-हार कर वहीं कार्पेट पर पड़ी रहती थी। कार उठा कर शॉपिंग चली जाती तो ढेरों चीज़ें ले आती, कि भारत जाकर सबको गिफ़्ट देनी हैं। उसका व्यवहार नॉर्मल नहीं था। पुनीत ने ले जाकर डॉक्टर को दिखाया तो बोली, “मैं बिल्कुल ठीक हूँ स्वस्थ हूँ। मुझे कोई बीमारी नहीं है।”

डॉक्टर ने स्ट्रेस घटाने के लिए दवाई दी, तो उसे खाने के बदले डस्टबिन में फेंक देती थी और पुनीत समझता था माँ दवाई नियम से खा रही है। किचन में कोई सब्ज़ी बनने रखती तो भूल जाती। रोज़ ही खाना जला होता था। सूरज अपने बेडरूम में अलग से शान्ति से जीता था। आज भी उसकी वही हॉबीज़ थीं। किताबें पढ़ते रहना और म्यूज़िक सिस्टम के साउंडट्रेक फ़ाईन करते रहना। 

पुनीत और सानिया अलग से अपने घर में रहते थे। दोनों बहुत व्यस्त रहते थे अपने काम में। मम्मी कभी फोन करती तो उन्हें ग़ुस्सा आ जाता। कोई बात भी नहीं करने को होती थी। घर में किसी को मालूम नहीं हुआ, वसुधा कब डिमेंशिया की गिरिफ़्त से घिर गई थी। सूरज ने तो कभी परवाह की ही नहीं थी, तो अब क्या करता? 

अकेलापन . . . काली चींटी जैसे ख़ाली कमरे में ठोकरें खाना और फिर न जाने कहाँ चले जाना। हाँ, अब यही तो हो रहा था उसके साथ। वह बहुत कुछ भूलने लग गई थी। किसी को भी फोन करती और कहती कि मेरा हस्बैंड मेरी बिल्कुल परवाह नहीं करता है। मैं कल से भूखी हूँ। मैंने कुछ भी नहीं खाया है। उसने चूल्हा बंद कर दिया है।” सब हैरान होते और एक दूसरे से इस विषय में बातें करते। बच्चे भी कितने दिन पूछने नहीं आते थे। सूरज भी ढूँढ़-ढाँढ़कर कुछ खा लेता था। यह नहीं देखता था कि उसने कुछ खाया है कि नहीं। फ़्रीज़र वह भूल चुकी थी। 

अमेरिका में अकेलापन—सबसे बड़ी बदनसीबी है। कार चलाना मना था। आस-पड़ोस में अपना कोई नहीं था! किसी से एक बात करने को तरस जाती थी! वहाँ तो कोई काम वाली बाई भी नहीं आती है ना। बस बेसुध हुई पड़ी रहती थी। सूखती जा रही थी! एक दिन बेटा आया और डॉक्टर के ले गया। डॉक्टर ने सारे टेस्ट करवाए और बताया कि अब बहुत देर हो चुकी है। इनकी याददाश्त पूरी तरह से चली गई है। इन्हें “मेमोरी लॉस्ट होम” में रखना पड़ेगा। पुनीत ने देखा कि माँ की हालत बहुत बुरी है। तो वह रो पड़ा। वह हैरान था कि दवाइयों से आराम क्यों नहीं आया? उसने डस्टबिन देखा तो वहाँ सारी दवाइयाँ पड़ी हुई थीं। अब वह अपना सिर धुन रहा था। अब तीर हाथ से निकल चुका था। सुधार कैसे होता? 

बीच-बीच में सब हालात मुझे पता चल रहे थे। मुझसे रहा नहीं गया और उसे देखने मैं पहुँच गई। तो वहाँ थीं रिक्त आँखें और गुम नज़रें! किसे पहचानना था? उसके लिए सब अनजान थे। कमरे के भीतर कोई पलंग पर लेटी थी सबसे अलग, सबसे दूर, छत को निहारती, प्यार की प्यासी एक अभिशप्त आत्मा जो बादलों को सीढ़ी लगाकर उनकी ओट में झाँक कर प्रियतम को ढूँढ़ रही थी . . .! 
 

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