मैग्नोलिया जैसी खिली

01-05-2024

मैग्नोलिया जैसी खिली

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 252, मई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

जाड़ों में जब वृक्ष एकदम रूखे और नंगे हो जाते हैं यहाँ तक कि उनकी चमड़ी भी उधड़ने लगती है, तब झील की ओर से ठंडी तेज़ हवा वैसे ही हाहाकार करती हुई उठती है जैसे बर्फ़ से जमी हुई ठोस झील से आती हवाएँ! मेरा अकेलापन मुझे कुछ यूँ ही कचोटने लग जाता है और बाँसों के जंगल की चुभीली पत्तियों सी चुभन तन बदन में चुभने लग जाती है। केवल अकेलापन, नितांत अकेलापन! 

वृक्षों की उधड़ती चमड़ी पर नज़र टिकी थी कि तभी लगा पीठ पर एक छोटा सा बालक मुझ से लिपटा है जिसकी नन्ही-नन्ही बाँहें मेरे गले के इर्द-गिर्द हैं, “मामा उठो ना, मुझे भूखू लगी है। बोनोइता (बॉर्नविटा) वाला दूधू दे दो।”

झट से उठने का उपक्रम करती हूँ मैं! बेटू की बाँहें पीछे करती हुई, तो वहाँ कुछ भी नहीं—मेरे हाथ ख़ाली फिसल जाते हैं। वह केवल एक ख़्याल था! अतीत की गलियों में भटकता हुआ कहीं सताने आ गया था। मैं वृक्ष से लिपटी लता के टूट के गिरने सी मुर्झाने लगती हूँ कि . . . 

तभी कानों में शरद की पुकार सुनाई देती है कि भई बच्चों से फ़ुर्सत मिले तो मुझे भी एक कप चाय का पिला दो। सिर को झटक कर वर्तमान में लौटती हूँ और जल्दी से चाय का पानी चढ़ा कर प्लेट में दो रस्क रखती हूँ क्योंकि इनको ख़ाली चाय पीना पसंद नहीं। ट्रे में दो कप चाय और रस्क की प्लेट रखकर बाहर बालकनी में टेबल पर रखती हूँ। और अख़बार उठा कर देखने का उपक्रम करते हुए शरद को आवाज़ लगाती हूँ। 

“अब आ भी जाओ ना यार, चाय ठंडी हो रही है। कहीं बाथरूम तो नहीं चले गए हो?” 

अख़बार वहीं पटक कर खिझी हुई भीतर जाती हूँ और देखती हूँ कि पलंग पर केवल एक ही लिहाफ़ पड़ा है। जिसे देखकर दिमाग़ में टन न न न एक घंटी बजती है—अचेतन मन से चेतन में लौटती हूँ। और दरवाज़े की चौखट को पकड़कर वहीं ज़मीन पर बैठ कर रोने लगती हूँ ज़ोर-ज़ोर से। कहाँ है शरद? मैं तो अकेली हूँ। मैं ज़ोर-ज़ोर से उस अदृश्य आत्मा से बोलने लगती हूँ, “तुम भी मुझे छोड़ कर चले गए। कुछ ना सोचा कि मैं कैसे रहूँगी? किसके सहारे जीवन काटूँगी??”

मैं किसको सुना रही हूँ? मेरा ज़ोर-ज़ोर का रोना कौन सुन रहा है? मैं परिस्थिति की यथार्थता को भाँप कर अचानक स्वयं ही चुप कर जाती हूँ। 

दूsssर तक नज़र जाती है तो काले कुरूप पेड़ों के झुरमुट में वर्षा से भीग-भीग कर काले हो गए पेड़ों के तने नींव से उखड़ कर, उन्हीं सूखे पेड़ों में औंधे गिरे पड़े, शरण माँगते दिखते हैं। बेचारगी . . . इस बार की पतझड़ ने उन्हें मार ही डाला है। गुल्म तरु के आस की किरणें तब भी बुझती नहीं है क्योंकि उन सब की दृष्टि सदाबहार “ओक, मैग्नोलिया, चीड़, देवदार” जैसे वृक्षों से पुनः जी उठने की उमंग धारण करती रहती हैं। तभी तो वे उसी हाल में अपने आप को स्वीकार कर लेने की शान्ति और सहजता से खड़े रहते हैं। उन्हें विश्वास है भविष्य के जल भरे मेघों, सुगंधित पवन और अपनी मिट्टी पर—जो अभी शिशिर से प्रताड़ित है और मलय पवन की राह देख रही है, वसंत ऋतु के आगमन पर दृष्टि जमाए। इसी तरह शायद उनका आस का दीपक जल उठता है। मेरी दृष्टि भी तो कमरे की खिड़की से दिखाई देते मग्नोलिया पर जाकर ठहर जाती है . . . 

लेकिन, यहाँ नज़दीक तो क्या दूर भविष्य में भी किसी तरह का कोई आस का दीप नहीं दिखाई दे रहा है। बेटी अपनी दोनों बेटियों का भविष्य बनाने में व्यस्त है लंदन में और बेटा भारतीय सेना में ईएमई में मेजर है। उसकी पोस्टिंग होती रहती है। सास मॉडर्न है फिर भी उसके आ जाने से बहू को बंदिश लगती है। वह क्लबों में खुले आम व्हिस्की नहीं पी पाती और लोअर नेक नहीं पहन पाती। उसकी आज़ादी में ख़लल पड़ता है। ऐसी बातें बेटे ने दबी ज़ुबान से माँ के साथ कीं, तो रूपा ने ठान लिया कि वह अब उनके पास नहीं जाएगी। उसने उनके पास जाने के लिए अपनी डायरी में से उनका पृष्ठ ही फाड़ दिया था। हाँ, बेटे का फोन फिर भी आता रहता है कुशल-क्षेम पूछने के लिए। 

शरद सारी उम्र बाहर देशों में पैसा कमाने की ख़ातिर ऑयल और गैस कंपनी के ठेके लेता रहता था, जबकि मैं बच्चों को लेकर उसके पास छुट्टियों में जाने को सदैव उतावली रहती। बाक़ी समय बच्चों की पढ़ाई के कारण दिल्ली में रहती थी। इकलौती औलाद होने के कारण मेरी मम्मी की जब अचानक सोए-सोए मृत्यु हो गई तो मैं अपने पापा को अपने घर ले आई थी। उनकी तीमारदारी के लिए किसी एनजीओ से एक लड़की भी घर में आ गई थी। ज़िम्मेदारियों में मैं ऐसी घिर गई थी कि मुझे पता ही नहीं लगा कब बच्चों की पढ़ाई भी ख़त्म हो गई और एक दिन मेरे पापा भी हमें छोड़ गए। 

अब बच्चों की शादी के समय शरद ने दिल्ली में कभी ख़रीद के रख छोड़ी ज़मीन पर एक शानदार घर बनाया और अपने सारे अरमान पूरे किए। उसे क्या मालूम था कि वह इस संसार से इतनी जल्दी रुख़्सती पा लेगा! बस दो दिन का बुख़ार और हॉस्पिटल एडमिट हुआ। न जाने किस मुहूर्त में वह घर से निकला था कि उसका नाम ही ख़त्म हो गया। वहीं अस्पताल के रजिस्टर तक रह गया और वह एक डैड बॉडी बन के घर लाया गया। बच्चों ने इस सत्य को भी स्वीकार कर लिया था कि उनके पापा भी नानू की तरह उनको छोड़ गए हैं, और अपनी-अपनी गृहस्थी में जाकर रम गए थे। जब फूल डाल से झड़ जाता है तो कलियाँ फूलों का स्थान लेने लगती है। यही तो प्रकृति का नियम है। लेकिन पीछे तड़पने और रोने को, शरद की यादों में लिपटी रह गई केवल उसकी रूपा! ‘मैं’!! 

ऊपर का पोर्शन किराए पर दे कर सोचा गुज़ारे के लिए काफ़ी है किराया। कोई सरकारी नौकरी तो थी नहीं की पेंशन आने की आस होती, बस जो कुछ था, यही कुछ था। हाँ, हेमंत ने औपचारिकता निभाते हुए एक बार पूछा अवश्य था, “ममी, आप को हर महीने कितने पैसे भेज दिया करूँ?” 
मैंने मना कर दिया था। और वह भी मान गया था। अपने बड़े बुज़ुर्गों को जैसे पहले परिवार में देखा करते थे हम, मैंने भी अपने आप को भक्ति में लगाने का यत्न किया। क्या करूँ पूजा-पाठ में मन नहीं रमता था। एक सहेली ने मेडिटेशन भी सिखाने की कोशिश की लेकिन मैं नहीं सीख पाई। मेरा ध्यान भटक जाता था। 

हम दोनों मियाँ बीवी तो अब जगह-जगह घूमने के प्रोग्राम बना रहे थे। बच्चों की ज़िम्मेवारी से फ़ारिग़ जो हो गए थे, अब मौज मस्ती के दिन आने थे! वही ख़्याल दिमाग़ में घूमता रहता था। कहते हैं ना “बिना भाग्य के कुछ नहीं मिलता”, नसीब में बिरहा का रोग जो लिखा लाई थी। वही भुगतना था अब। 

मेरी एक पुरानी सहेली कम्मी मुझे मिलने आई और उसने बताया कि वह दुबई अपनी बहन के पास जा रही है क्यों नहीं वह भी उसके साथ चलती दोनों घूम फिर आएँगी। 

“रूपा जगह बदलने से तेरा ध्यान भी बदलेगा और मन भी लग जाएगा क्या बिरहन सी बैठी रहती है?” 

यह सखी सहेलियाँ ही होती हैं जो दर्द को कम कर देती हैं सो, वो तो मेरे पीछे ही पड़ गई। उसके बहुत पीछे पड़ने पर मैंने प्रोग्राम बना लिया और अपनी बहन रीता दी को फोन कर दिया। सिया को भी अमेरिका बताया तो वह बेहद ख़ुश हुई कि माँ अवश्य जाओ शायद आपका मन बहल जाए। 

हमारा पाँच दिन का प्रोग्राम था। शारजाह अंतरराष्ट्रीय विमान स्थल बेहद ही सुंदर है। दुबई की इमारतें और समुद्र में गगनचुंबी इमारतों का जमघट ऐसा कि देखते हुए आँखें भी चुँधिया जाएँ। सोने के ज़ेवरात की पूरी मार्केट! चम-चम चमक रही थी मेरे सामने पर अब मेरे किस काम की थी? मेरे साथ शरद होते तो ज़रूर शॉपिंग होती! अब कोई कपड़े और ज़ेवरात मुझे नहीं भाते हैं। ख़ैर, यह सब तो था लेकिन कम्मी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थी, फिर भी मेरे मन में घटाएँ घिर आती थीं और बरस कर रीत कर ही लौटती थीं। कोई भी चोट जब लगती है तो बहुत तकलीफ़ देती है, मेरी चोट भी तो अभी नई है। रात भर मेरी बाँहें शरद को ढूँढ़ती है और मेरा सिर शरद की बाँह को ढूँढ़ता है! उसे क्या मालूम कि वो दिल्ली में है कि दुबई में! उसे तो शरद की बाँह की तलाश होती है। 

वापस आई तो रीता दी का पानीपत से फोन आया कि अगले हफ़्ते हम लोग शिरडी साईं बाबा के दर्शन के लिए चल रहे हैं तुम्हारी टिकट करा ली है अपने साथ। लो जी, पैर में फिर चक्कर था। रीता दीदी और जीजाजी दो दिन पहले ही आ गए थे। घर में रौनक़ आ गई थी। घर की चहल-पहल में मैं अपना अकेलापन भूल गई थी और उनके साथ हँस रही थी। सोचा यही जादू है परिवार का जो एकल परिवार में नहीं है। मानो मुझ में जान आ गई है। घर में खाना भी बन रहा है और मुझे भूख भी लग आई है। ऐसा लगा मुद्दत बाद खाना खा रही हूँ। नियत समय पर हम शिर्डी गए और अगले दिन वापस आ गए दर्शन करके। मन में भक्ति की जगह घूमने का ध्यान रहा—तो शायद ऐसे दर्शन निरर्थक रहे। जो भी रहा हो, मेरा मन कहीं नहीं लग रहा था। 

वक़्त तो अपनी चाल से गुज़र रहा था! अब यह मुझ पर था कि मैं अपने को कैसे सँभालूँ? बुक शॉप पर जाकर कुछ किताबें उठा लाई मैं एक दिन। अपने पलंग के सिरहाने उन्हें सजा लिया। सिडनी शेल्डन का उपन्यास ‘इफ़ टुमौरो कम्स’ के कुछ पन्ने पढ़कर रात को रख दिया और अपने जीवन से उसका मिलान करने लग गई। आधी रात यूँ ही सोच में बीत गई। दूसरे दिन सुबह दस बजे आँख खुली। मेरी एनजीओ वाली नौकरानी की शादी हो गई थी तो अब कामवाली बाई 11:00 बजे आती है सो मैं आराम से सो सकी। मेरे घर कोई नहीं आता सुबह सवेरे! नाही किसी ने कहीं जाना होता है! है ही कौन? 

“साफ़ चकाचक घर है बीबी तुम्हारा, क्या साफ़ को और साफ़ करूँ?” कहते हुए बाई सफ़ाइयाँ कर रही थी ग्रेनाईट के फ़र्श की। मैं तैयार होकर अपना मूड बदलने के लिए कहीं बाहर जाने की सोच रही थी। बाई जैसे ही गई, मैं भी घर बंद करके कार स्टार्ट करके नीता के घर की ओर चल पड़ी। बिना फोन किए वहाँ पहुँची तो वह हैरान हो गई। (शुक्र है वह घर पर थी) मैंने पहले चाय और नाश्ता उससे माँग कर खाया पिया फिर उससे बातें करने बैठ गई। 

बातों बातों में उसने बताया कि वह एक एनजीओ से जुड़ी है जहाँ अनाथ और ग़रीब बच्चे होते हैं। जिनको कुछ सिखाना होता है। लेकिन किस तरह . . .? 

उनके लिए सामान भी इकट्ठा करना होता है इसके लिए किसी मंदिर या किसी स्कूल में आम घरों से सामान मँगवाया जाता है जो उनके काम का नहीं होता। लोग बहुत प्रसन्न होकर अपने घर का फ़ालतू सामान कपड़ा, किताबें, खिलौने, वुलेन आदि दे जाते हैं। बस इसी सामान से अनाथ आश्रम में रहते इन बच्चों से कुछ नई चीज़ें बनवाई जाती हैं। यह तैयार किया सामान फिर बेचा जाता है, कभी किसी प्रदर्शनी में या किसी मेले में। इससे बच्चों में आत्मविश्वास की बढ़ोतरी होती है और वह कोई स्किल या गुण भी सीखते हैं। जो आगे चलकर उनके जीवन यापन में काम आता है। 

जो पत्रिकाएँ और किताबें लोग दान में देते हैं वह इन बच्चों के मानसिक ज्ञान को बढ़ाने में सहायक होती हैं। इन्हीं बच्चों में कई कवि और लेखक भी निकलते हैं और किसी कॉलेज के शिक्षक और प्रिंसिपल भी बनते हैं। इन्हें शिक्षा भी दी जाती है। 

इतनी सारी बातें सुनकर मेरा मन नीता के प्रति आदर से भर गया। सोचा, यह तो ईश्वर की मर्ज़ी है कि मैं आज सीधे नीता के घर अपने आप पहुँच गई। ईश्वर ने मेरे लिए यही इशारा किया लगता है। मेरी आस का दीप, मेरे एकाकीपन, मेरे अकेलेपन को दूर करने का यही एक उपाय मुझे सुझाई दे रहा है। मैंने नीता के दोनों हाथ पकड़ लिए और उसे कहा कि कल से मैं भी उसके साथ उस एनजीओ में चला करूँगी और उन बच्चों के साथ समय बिताया करूँगी। जितना मुझसे हो सकेगा मैं मदद करूँगी। 

भला नीता को इसमें क्या एतराज़ था बोली ज़रूर चलना। 

साँझ ढले मैं उत्साह से भरी हुई घर आई। मैंने आकर अपने घर का सारा फ़ालतू सामान जो अब मुझे नहीं चाहिए था और शरद की अलमारी से उसके कपड़े वग़ैरह कुछ चादरें निकालकर उनमें बाँधे। उनकी पोटलियाँ बना लीं जो मैंने सुबह नीता के साथ उस एनजीओ में लेकर जानी थीं। बहुत बड़ा काम हो रहा था यह, जिसे मैंने अभी तक छूने की हिम्मत भी नहीं की थी क्योंकि मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं उनका क्या करूँ? अब एक राह सामने दिखाई दे रही थी। तो सब कुछ सहज भाव से हो रहा था। इस सब से फ़्री होकर मैंने दूध का एक गिलास पिया और ख़ूब थकी हुई बिस्तर पर लेटते ही सो गई कल के इंतज़ार में! 

अगले दिन नीता के साथ मैं एनजीओ में पहुँची। वहाँ छोटे-बड़े सभी बच्चे थे। वह मुँह उठाए दरवाज़े की ओर ही देख रहे थे। नीता ने जैसे उन्हें प्यार किया मैंने भी एक बच्चे को प्यार किया तो उसने मेरा हाथ चूम लिया। इस पर भाव-विह्वल हो मैंने उसे गोदी में उठा लिया। मेरी आँखें अश्रुपूर्ण हो उठीं, और उनमें आस के दीप जल उठे। 

सारी दोपहर उत्साह पूर्वक उनके साथ बीती। मैंने उनकी शिक्षा में आत्मनिर्भरता का गुण पनपते देखा। 

मैं यह सब देख कर आत्म विभोर हो उठी थी। घर पहुँच कर मैंने सिया को फोन लगाया और उसे यह ख़बर दी। मेरा उत्साह देखकर सिया रोने लगी और प्यार से बोली, “माँ आप मेरे पास आ जाओ और यहीं आकर रहो। मेरा ध्यान सारा समय आपकी ओर लगा रहता है। मैं और ऋषि दोनों ही आपकी चिंता करते रहते हैं।”

मेरा मन भी भर आया और उसे तसल्ली दी, “मैं जल्दी ही आने का प्रोग्राम बनाऊँगी, पर कितने दिन? आख़िर तो यहीं लौटना है ना! यदि तुम आ सको तो बहुत अच्छा लगेगा। अब तो बेटियाँ दोनों बड़ी हो गई हैं वह पापा का भी ध्यान रख सकतीं हैं। 

“अगले महीने तुम्हारे पापा का ‘वरीना’ (बरसी) है तुम पहुँच जाना मैं डेट बता दूँगी।”

यह बेटियाँ क्यों इतनी नरम दिल होती हैं, माँ-बाप के दुःख-दर्द में शामिल हो उनका ध्यान रखती हैं! सिया के रोने से मैं अंदर तक हिल गई थी, कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। 

मैं एनजीओ में जाने लग गई थी, लेकिन मेरी सेहत गिरती जा रही थी और मुझे सारा समय थकान लगी रहती थी। खाने पीने के लिए भी पूछने वाला कोई नहीं था कि अचानक ऋषि का फोन आया कि सिया आपके पास आ रही है। और उसकी आर्टिनरी उसने मुझे भेज दी। मुझ में एकदम से जान आ गई आख़िर मेरी बेटी मेरी जान आ रही थी मेरे पास। एयरपोर्ट पर उसे देखते ही मेरा माथा ठनका। इतने वर्षों बाद वह पुनः माँ बन रही थी। उसे देख कर मुझसे कुछ बोलते नहीं बना। घर पहुँच कर कुछ सेटल हो कर मैंने उससे आराम से पूछा, “यह सब क्या है सिया?” 

सिया ने मेरे दोनों कंधों को पकड़ा और अपना चेहरा मेरे चेहरे के पास लाकर मुझे ढेर सारे चुंबन दे डाले। जितना मुझे आलिंगन में ले सकती थी उतना लेकर बोली, “माँ यह सब तुम्हारे लिए है। जो भी होगा तुम्हारा होगा और तुम ही उसे पालोगी। मैं डिलीवरी करने तुम्हारे पास आई हूँ, मेरे और ऋषि की ओर से तुम्हारे लिए सौग़ात लाई हूँ।”

मैं अवाक्‌ उसका मुँह ताक रही थी। क्या कोई ऐसी भी बेटी होती है, जो इस हद तक सोच जाए! हक्की बक्की मैं उसकी बातें सुन रही थी। 

“माँ, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कब तुम सालों की दूरियाँ तय कर लोगी। तुम पतझड़ में नहीं रहोगी, तुम्हारी आस का दीप जलेगा। हाँ माँ, मैग्नोलिया की तरह तुम सदा खिली रहोगी।”

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