छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–004

01-05-2022

छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–004

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

जीवन के फ़ुर्सत के पलों में जब हृदय अतीत को निमंत्रण देता है तो प्रकृति घटित हादसों या घटनाओं को भावी सृजन से नूतन अंशों में परिणत कर पुनर्जीवित करने का यत्न करती है और अनदेखा दृष्टव्य हो सम्मुख आ जाता है। 

पढ़ें यह अफ़साना . . . 

अभी मेरा शुमार बच्चों में ही था कि एक दिन रोशनलाल मामा जी की टैलिग्राम यानी कि 'तार' कलकत्ता से आई। (तब फ़ोन नहीं तार से संदेश भेजते थे) “नक्सल अटैक डॉटर मर्डरड। वाईफ़ सीरियस” (नक्सली हमला बेटी का क़त्ल हुआ। पत्नी गम्भीर)।

मम्मी रोने लगीं। हम सब घबरा गए। पापा ने मम्मी को कोडू भापे के साथ कलकत्ते भेज दिया। उन दिनों नक्सलियों का बहुत ख़तरा था बंगाल में। मामाजी इलैक्ट्रिक डिपार्टमेंट में एक्स.ईएन. में थे। शहर की घनी आबादी से दूर एक बँगले में थी उनकी रिहाइश। मम्मी को जाकर पता चला कि हादसे की मनहूस रात को मामा जी टूर पर थे। नक्सली घर लूटने ट्रक लेकर आए थे। गेट पर चौकीदार ज़ख़्मी पड़ा था। जवान बेटी के विवाह की तैयारियाँ हो रहीं थीं। उसने विरोध किया तो उसे मार डाला। माँ ने बेटी को बचाना चाहा, इस कोशिश में उनके शरीर पर ६०-६५ जगह घाव थे। उनकी दोनों आँखों की रोशनी ख़त्म हो गई थी। हृदय का घाव तो जीवन पर्यंत रहा लेकिन कालांतर में बाक़ी घाव धीरे-धीरे भरते रहे। 

मम्मी ने जब वहाँ का सारा ब्यौरा सुनाया तो साथ ही बताया कि इंसान के अपने कर्म ही उसके सम्मुख भेष बदल कर आते हैं। अब यह उसकी समझ है कि वो समझ पाता है या नहीं। उन्होंने अपने अतीत को खंगाला और हमें जो बताया वह अविश्वसनीय था। 

वो बोलीं, “पापा (भगतराम जी) की मृत्यु के पश्चात भाई ने आगे पढ़ने के लिए होस्टल नहीं भेजा। भाभी की मदद करो, कहा। भाभी तंग करती थी, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था। एक दिन सिर धोकर मैं ऊपर छत पर बाल सुखा रही थी तो देखा नीचे सड़क पर युवा लड़कों की एक टोली निकल रही है, वे बाहर के लगे, किसी बारात में आए हुए थे शायद। सारे एक से बढ़कर एक शहरी नौजवान। उनमें से एक छह फुटे नौजवान की नज़र सूर्य की रश्मियों से दमकते मेरे चेहरे पर पड़ी। और यही आग़ाज़ था मेरे आने वाले कल का।” 

कृष्ण नाम था उनका (पापा)! अलीबाबा के चालीस चोरों की भाँति ये लोग भी उस घर पर निशान लगा आए थे। दोस्तों ने पूरी मालुमात करके वापिस घर जाकर वहाँ चर्चा कर दी। संदेश भेज दिया गया। लो जी, भाभी माँ चल पड़ीं अपने देवर का रिश्ता लेकर। माँ सदृश्य ग्रंथी की बीवी ने अपना झालर लगा दुपट्टा कमला को ओढ़ाकर दिखाया। भाभी अंदर ताला लगाकर कहीं चली गई थी। 

कृष्ण की भाभी ने शगन के कंगन कमला के हाथों में डाले और जल्दी शादी का कह गई। इस तरह हमारे माता-पिता का ब्या़ह हो गया। बारात “बादशाहान” से आई थी। सन् 1941 में डोली कहारों के कंधे की बजाय कार में पहुँची और वो भी चालक अँग्रेज़ था जिसका। उस ज़माने में यह अजूबा था। कार और चालक को देखने सारा शहर ही उमड़ पड़ा था। दुलहन को हवेली तक ले कर जाना मुश्किल हो गया था। 

महाराजा रणजीत सिंह के दीवान सावनमल का ख़ानदान था यह, सो इनकी हवेली छोटी पहाड़ी पर स्थित थी। उन दिनों घूँघट मतलब पूरा पर्दा होता था। दुपट्टे की दो-तीन तहों से मुँह ढँका होता था। पहले “मुँह दिखाई” की रस्म की गई, क्योंकि सब उतावले हो रहे थे दुलहन देखने के लिए। सास तो वारे-न्यारे किए जा रही थी। 

फिर “दहेज़ दिखाई” की रस्म थी। कमला (मम्मी) को भीतर ले जाया गया। जब पेटी खोली तो मम्मी ने कहा, “यह मेरे कपड़े नहीं हैं।” सारे रिश्तेदारों में खलबली मच गई कि माजरा क्या है आख़िर! ध्यान से देख कर बोलीं कि यह तो मेरी भाभी के पहने हुए पुराने कपड़े हैं। और घबराहट में रोने लग गईं। पापा (कृष्ण) ने बात सँभाली। वे सब समझ गए थे। ज़ोर से गरजकर जनवासे में बोले, “अब आगे से ये रस्म होगी ही नहीं।” और सब चुपचाप वहाँ से चले गए। वे लाहौर रहते थे, हवेली में उनका रुआब था बहुत। 

लेकिन मम्मी को यह घटना ज़ख़्मी कर गई थी अंतःस्थल तक। लाहौर ले जाकर पापा ने अनारकली बाज़ार में “दयाराम एंड संस” से मम्मी को खड़े पैर ढेरों “ख़ीम-ख़ाब” के सूट दिलवाए। उसी कपड़े की 3-4” हील की सैंडल और गुरगाबी (लेडिस नोक वाले शूज़) भी बनवाईं। पर, वो ज़ख़्म जो राख के ढेर तले दबे पड़े थे—आज उनका रिसना फिर हरा हो गया था। जब भाभी ने उनके पैर पकड़ कर कहा, “रानी, मैंने तो तेरा दहेज़ मारा था। पर उस रब्ब ने तो दहेज़ के साथ-साथ मेरी बेटी भी मार ली। बहुत बड़ी सज़ा दी है उसने मुझे। मेरी आँखों की रोशनी भी छीन ली। मैं तेरे चेहरे पर उसके नूर का दर्शन करने लायक़ भी नहीं रही। अब माफ़ी माँगूँ भी तो कैसे।” मामी रो रही थीं। और मम्मी उनको बाँहों में लिए हुईं थीं। 

यह सब सुनकर हमने भी मम्मी के गले में बाँहें डाल दीं थीं। 

अगले हफ़्ते फिर कुछ और . . .

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