शेष होकर भी अशेष

01-10-2024

शेष होकर भी अशेष

वीणा विज ’उदित’ (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

अतीत के झरोखों में झाँकती, मन ही मन स्वयं से बतियाती नींद की आग़ोश में जा ही रही थी कि फोन की घंटी टन टना उठी . . . 

“हेलो!“

“हेलो –हेलो माँ! आज फिर से मैं सपने में अपने पुराने वाले घर में रात भर खेलता रहा। वही पुरानी दीवार में बनी चौड़ी अलमारी, जिसके नीचे वाले हिस्से में मैं पतंग और डोर छुपा कर रखता था। क्या ग़ज़ब का दौड़ता था ना मैं! जब पतंग कट कर गिरती थी! कभी छत पर तो कभी गली के किसी भी छोर पर पहुँच जाता था और वह कटी हुई डोर बहुमूल्य ख़ज़ाना होती थी मेरे लिए! हाँ अपने दोस्तों के बीच डींग मारने के लिए भी।”

मैं हँस पड़ी और बोली, “वह तो तेरी आदत थी ही।”

“याद है माँ? कभी-कभार छोटी उँगली या अँगूठा भी डोर लपेटने से कट जाता था मेरा। डोर में माँझा जो ख़ूब लगा होता था। आज भी छोटी उँगली कटी तो, मैं डोर रखकर तुमसे सरसों का तेल लगवाने पहुँचा क्योंकि तुम हर चोट पर सरसों का तेल ही तो लगा देती थी। वैसे अब समझ पाया हूँ कि सरसों का तेल सनस्क्रीन की भाँति ज़ख़्म पर मिट्टी नहीं लगने देता था जिससे चोट स्वयं ही धीरे-धीरे ठीक हो जाती थी और हम उसे ही इलाज समझते थे। हा हा हा . . . 

“और तभी मेरी नींद खुल गई। मैं तो यहाँ पर अपने बिस्तर पर था। हज़ारों मील दूर अपने देश से! अब तो देश छोड़ो, घर भी वह नहीं रहा। तुम नए घर में हो, जो सुख सुविधाओं से लैस है। (उसकी इस बात ने मेरे हृदय की परतों को उधेड़ कर रख दिया लेकिन यह उधड़न, जिसमें धागे के टुकड़े शेष रह जाते हैं यह वो कहाँ देख सकता था? ) पर माँ, मेरे सपनों में तो वही हमारा पुराना घर ही दस्तक देता रहता है क्योंकि हमने अपने बहुमूल्य बचपन को वहीं तो छोड़कर जवानी की दहलीज़ पर पैर रखा था।”

“हाँ बेटा! उसी घर में तो मैं भी ब्याह कर आई थी और अपने सपनों के अनुरूप ही उसे सजाया व तुम दोनों बच्चों को बनाया था मैंने!”

“जल्दी ही दफ़्तर के लिए तैयार होना है माँ, फिर कभी बात करेंगे। ओ के बाय!” कहकर उसने तो फोन काट दिया। लेकिन मुझे ख़्यालों में भटकता छोड़कर! उन ख़्यालो में—जहाँ नींद पास भी नहीं फटक सकती थी अब। 

पुराने ज़माने में घर की दीवारों की ईंट की चिनाई मिट्टी और गारे से हो जाती थी। हमारा घर भी उसी ज़माने का बना था। बाबूजी कहते थे तब सीमेंट पर रोक थी इसलिए ऐसा बनवाना पड़ा। हमें क्या मालूम हमें तो उसे सजाने-सँवारने का चाव ‌लगा रहता था! लेकिन ऊपर की मंज़िल पर कभी रिपेयर नहीं करवाई थी तो वह अपना ख़स्ताहाल जतलाता था। 

दो पल्ले वाले दरवाज़े और खिड़कियों, अलमारियों के भी दोनों पल्ले होते थे। जब तक दोनों पल्लों में मेल ना बैठे तो दरवाज़े कहाँ बंद होते थे? जैसे पति-पत्नी की राय ना मिले तो गृहस्थी की गाड़ी कैसे चल सकती है? आज के युग में एक पल्ला ही काम करता है दूसरे पल्ले की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। गृहस्थी भी कुछ इन्हीं सिद्धांतों पर टिक गई है। एकल परिवार का चलन समाज और परिस्थितियाँ रिवाज़ भी बदल देते हैं। तभी तो आजकल परिवार कब टूट कर बिखर जाए क्या मालूम? ‌

समय-समय पर घर में छोटी-मोटी तोड़-फोड़ करवाकर उसे बच्चों की आवश्यकताओं के अनुरूप ठीक करवा लिया करते थे हम। आय के साधन भी सीमित होते थे। शांतिपूर्वक सुखी जीवन जी रहे थे। घर के किस कमरे में कौन से रंग का डिस्टेंपर करवाना है यह तय करते हम कितने उत्साहित हो जाते थे क्योंकि पर्दों का चयन भी तो फिर उसके अनुरूप होता था। पर्दों का कपड़ा ख़रीद कर लाते थे तो उन्हें बनाने के लिए कोई टेलर ना ढूँढ़ कर घर में सीने की सलाह बन जाती थी। इंची टेप से दरवाज़े की ऊँचाई माप कर गिरीश और मैंने पर्दे काटे थे फिर मैंने उसमें चुन्नटें डालीं; जिन्हें बाद में सूई धागे से बाँधा था। पर्दे सिल जाने पर हम दोनों का उत्साह देखने वाला था। उन्हें टाँगते हुए गिरी के मुख पर विजयी मुस्कान थी। ड्राइंग रूम के परदे जब लगे तो हमारी निगाहें प्रशंसा से उन्हें निहार कर स्वयं ही गद्‌गद्‌ हो गईं थीं। बच्चे भी तो सहभागिता करते थे। कभी कैंची पकड़ाने में, तो कभी मशीन की फिरकी पर धागा चढ़ाने में! सब में कितना स्वाभाविक तालमेल बैठ जाता था। घर की सजावट में अपनी सुरुचि दृष्टिगत कर गर्व होता रहता था अनजाने में ही। 

घर में रहने वालों की भावनाओं का रंग घर की दीवारों और पदों के रंगों में झलकता है तभी वह मकान घर कहलाता है और उसमें बसने वालों की सुरुचि और व्यक्तित्व को दर्शाता है। घर के प्राणियों का लगाव और आत्मीयता घर से बँध जाती है। वैसे भी पुराने पैतृक मकानों में भीड़ होती थी जिससे उनमें सजीवता बनी रहती थी ना कि वर्तमान समय में बड़े-बड़े घर भी आवाज़ के लिए तरसते रहते हैं। कमरे अधिक होते हैं और उन कमरों में रहने वाले परदेस चले जाते हैं। रह जाते हैं माँ और पिता बुढ़ापे में अपनी नैया खेते। अपने ‘छज्जू के चौबारे’ को सँभालते! 

ना जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ जाती थी कि मैं हफ़्ते के बाद गमले बदल लेती थी। एरोकेरिया के पौधे भीतर ड्राइंग रूम में लहराते बेहद सुंदर भी लगते थे और मैं दोनों हाथों से उठाकर बारी-बारी गमले बदलती रहती थी। घर की सज्जा में मशग़ूल हो जाती थी। कोई सुध नहीं रहती थी। जब कोई मेहमान तारीफ़ करता तो मेरा चेहरा दमक उठता था। शायद यही उत्साह ताक़त देता था मुझे। बाज़ुओं में दम आ जाता था। मेरी सहेली रत्ना ने जब कहा था कि उसे मेरा घर सबसे अनूठा और बहुत ही सुंदर लगता है, तो मैं फूली नहीं समाई थी। असल में पैतृक घर बाहर से तो पुराना ही लग रहा था उसको बदलने के लिए बैंक बैलेंस ख़ूब चाहिए था। वहाँ तक मेरी पहुँच नहीं थी। यह बड़ी बातें थीं। अभी तो बच्चों की पढ़ाई सामने दिख रही थी। कभी लगता था घर भी पुकार कर कह रहा है कि मेरे ख़स्ताहाल पर भी तरस खाओ। 

इस विचार के आते ही मैंने गुलाब के फूलों की बेल घर पर चढ़ा दी कि अब घर खिल उठेगा। सच में मेरा घर सुंदर दिखने लग गया था कि किसी माली ने बताया कि इसे उतार दो—कहीं यह घर को गिरा ही ना दें क्योंकि यह बेल दूसरी मंज़िल की छत पर पहुँचकर फैल गई थी और उसका भार बहुत ज़्यादा हो गया था। घर गिरने के डर से दो-तीन वर्षों के बाद घर के बालों रूपी दीवारों पर सजा यह फूलों का गजरा उतारना पड़ा था मजबूरन उसके भले के लिए। 

बच्चों के यूनिवर्सिटी के एडमिशन के लिए पैसे चाहिए थे तो हमारी प्राथमिकता उस ओर बढ़ गई। जब वे पढ़ाई करके वापस आ रहे थे तो नई चिंता मन में सताने लगी थी कि अब इनके ब्याह का समय आ रहा है। तो नया घर चाहिए। इनके बेडरूम और साथ लगे बाथरूम भी होने चाहिएँ। जैसा समय है उसके अनुरूप सब सुख-सुविधाओं वाला घर बनाना पड़ेगा और इस मिट्टी-गारे के घर की दीवारों को तोड़ा जाने लगा। 

जिसे मैं अपना घर कहती थी, जिसका कोना-कोना मैंने अपनी पसंद से सजाया हुआ था, उससे मैं अपने आप बातें भी करती रहती थी। अपने कमरों से कहती, “यहीं तो हूँ मैं, पुनः तुम्हें अपने रंग में ढाल लूँगी।”अपने घर पर हथौड़े चलते मैं नहीं देख पाती थी। मुझे बहुत चोट लगती थी—तो हमने एक वर्ष के लिए किराए का घर ले लिया था और वहाँ बैठ इसके नए रूप की कल्पना से मैं मन को ढाढ़स देती रहती थी। सारी उम्र की जमा पूँजी घर को नवीन रूप देने पर अब ख़र्च हो रही थी। बहुत सोच-विचार कर घर की दो दीवारों को वहीं खड़ा रहने दिया गया, जिससे नवीनता में पुरातनता को क़ायम रखा जा सके। कुछ एहसास तो जीवंत रहें पुराने घर के! 

जितनी रक़म में एक मकान तैयार हो जाता था कभी, उस क़ीमत में अब एक बाथरूम तैयार हो रहा था। जब ‘ओखली में सिर दिया ही था तो फिर मूसल से क्या डरना’—तो कई तरह के जुगाड़ लग रहे थे। घर के भीतर ही सोफ़ा सेट का कपड़ा बदलवा कर उसे नया बनाया जा रहा था। मानो एक गाँव की गोरी को शहरी दुलहन सा सजाया जा रहा हो। एक मंज़िला घर बन रहा था दुमंजिलें को तोड़कर। जैसे-जैसे वर्ष समाप्त होने को हो रहा था नई आशाएँ, नई उम्मीदें जाग रही थीं। वक़्त ने तो बीतना ही था तो बीत गया और हमारे समक्ष था हमारा घर एक नवीन रूप धारण किए हुए। 

इस बीच बेटे की नौकरी लग गई थी दक्षिण भारत में और बेटी का रिश्ता भी पक्का हो गया था। उम्मीदों और हसरतों को लिए हमने अपने नए घर में पदार्पण किया। लगा, खिले मुख से घर हमारा आभार जता रहा है कि धन्यवाद! तुमने मेरा जीर्णोद्धार किया वक़्त रहते ही। मेरा मन बल्लियों उछल रहा था, घर द्वार देखकर। शिरीष भी छुट्टी लेकर मदद करवाने के लिए घर आ गया था। 

लो जी, घर की साज-सज्जा दुगने उत्साह से होने लगी। दोनों बच्चे बेहद प्रसन्न हुए सब देख कर। जब कि बेटी शमा का मुँह उतर गया कि वह तो अब इस नए घर में रह नहीं पाएगी ससुराल चली जाएगी। बात तो सच्ची थी लेकिन ज़रूरी भी था यह सब कुछ। उसका ब्याह इस नए घर से बहुत धूमधाम से हुआ जैसा कि गिरीश चाहते थे। शादी पर मेहमान और रिश्तेदार पहुँचे तो सब ने घर की खुलकर प्रशंसा करी। भरे-पूरे घर में मैं महारानी बनी घूम रही थी, अनजाने भविष्य की चाल से बेख़बर। 

बेटी तो ससुराल चली गई थी बेटे के आने, की राह देख रहे थे कि मालूम हुआ उसे वहीं से कंपनी की तरफ़ से न्यूयार्क भेजा जा रहा है। अब हम इस आस में थे कि वह भारत आएगा तो उसका विवाह किया जाए। उसने कहा कि आप चिंता ना करें विवाह के लिए पैसे वह ले आएगा। पैसे लाने तक तो ठीक था लेकिन वह तो लड़की भी वहीं से ला रहा था यह सुनते ही हम दोनों का माथा ठनका अब क्या होगा? उसके साथ ही काम करती थी गुजराती लड़की ‘शिप्रा’! एक तसल्ली तो हो गई कि लड़की भारतीय है उसका जन्म व लालन-पालन वहीं हुआ था और सारा परिवार अमेरिका में ही था। 

यहाँ अपने नाते-रिश्ते में कुछ लोगों की आँख हमारे बेटे पर थी, यह ख़बर सुनकर वे सब अब चुप्पी साध गए थे। हमें समझ आ रहा था सब का बदला हुआ व्यवहार! लेकिन शिरीष ने वहाँ कोर्ट मैरिज कर ली थी। यहाँ भारत में विवाह की पूरी रस्में निभाने वे पहुँच रहे थे लड़की के माता-पिता व बहन के साथ। उन्हें होटल में ठहराया गया जबकि शिरीष और शिप्रा घर पर ठहरे थे। घर में नया सामान देखकर लोग अटकलें लगा रहे थे कि दहेज़ में आया होगा। शिरीष ने कहा, “कहीं आप दहेज़ की उम्मीद तो नहीं लगा कर बैठे हैं। जितना शिप्रा एक साल में कमाएगी उससे सब कुछ आ जाएगा। इसकी आप चिंता ना करें हमने वहाँ घर ले लिया है। दोनों मिलकर सजाएँगे।” बात में दम था तो हमें जँच गई। 

पंडित जी आए और रीति-रिवाज़ से शादी हुई। हमने बहू के सारे शगन किए। मन में एक भय व्याप्त गया था कि हमारा बेटा पराया हो गया है। पहले हमने बेटी की विदाई की थी; अब हम बेटे की विदाई करने लगे थे। समाज की सोच के साथ ही समाज का रूप बदल जाता है! रीति-रिवाज़ भी समय के अनुरूप ढल जाते हैं। 

शिरीष बार-बार कहता था कि आप दोनों अमेरिका आ जाओ। लेकिन हम हिम्मत नहीं कर पा रहे थे क्योंकि कुछ लोगों से उनका दुखी अनुभव सुन चुके थे। मेरी टाँगें और घुटने बहुत दुखते थे जबकि गिरीश भी उम्र के चलते कमज़ोर हो गए थे और उनकी खाँसी ने दमे का रूप ले लिया था। 

नई दुलहन के पहले त्योहार आए और निकल गए। मैं कुछ भी शगन नहीं कर सकी। वह व्यस्त थे—नहीं आ पाए। 

“दिवाली पर अवश्य पहुँचकर इकट्ठे दिवाली मनाएँगे” कहकर भी नहीं पहुँच पाए थे। इंतज़ार बस इंतज़ार ही रहा! 

आजकल के बच्चे बहुत व्यस्त हैं अपने जीवन में! वह ऐसी मैराथन दौड़ में दौड़ रहे हैं जिसमें सब कुछ छोड़कर दौड़ना होता है और रुक कर सोचना मना है। बस भागते ही रहो। इस दौड़ का अंत किसी भी मुक़ाम पर पहुँचकर नहीं है। यह तो जीवन पर्यंत दौड़ने की ‘मैराथन दौड़’ है। 

गिरीश और मैं फोन के सहारे समय काट कर प्रसन्न हो जाते थे। बेटी शमा भी बिहार के रिमोट इलाक़े से अब फोन ही करती थी उसके दोनों बच्चे पढ़ रहे थे स्कूल में, वह भी व्यस्त थी। और अपने छज्जू के चौबारे पर हम दोनों उम्र काटने में लगे थे। तीन बेडरूम का घर, बच्चों के अनुरूप बनवाया था और अब सजा-सँवरा, साफ़-सुथरा रहता था। कुछ दिनों में चद्दरें बदल देती थी, और दोपहर को सो जाती थी जिससे उन कमरों को भी जीवित साँसों का एहसास हो सके और वह भी ज़िन्दा रह सकें। 

गिरीश की छाती और दमे की बीमारी ने अब भयंकर रूप ले लिया था। इलाज चल रहा था पंप भी लेते थे लेकिन जब खाँसी छिड़ जाती तो लगता दम ही निकल जाएगा। एक दिन बोले, “कमरे ख़ाली पड़े हैं तुम दूसरे कमरे में सो जाया करो कम से कम तुम्हें तो चैन की नींद मिले। मेरे कारण तुम्हारी भी नींद ख़राब होती है।”

गिरीश की बात मान लेने से अब घर के दो बेडरूम साँस लेने लग गए थे। मुझे लगा दीवारें और फ़र्नीचर हँसकर मुझे वेलकम कर रहे हैं शायद एक न्त से वो भी घबरा गए थे। मुझे आदत है ना दीवारों से बात करने की तो शायद उनकी अपेक्षाएँ भी यही हैं। मैं तो अपने पौधों से भी बातें करती रहती हूँ। अपने इर्द-गिर्द सभी में प्राणवायु बहती नज़र आती है मुझे। 

कभी-कभार शमा सर्दी की छुट्टियों में बच्चे लेकर जब आती है तो सारा घर चहक उठता है। गर्मियों में तो वे किसी न किसी हिल स्टेशन पर चले जाते हैं। हमें भी साथ बुलाते हैं लेकिन गिरीश की खाँसी और अपने घुटनों के कारण हम नहीं जाते हैं। हाल यही है कि अपने देश में होते हुए भी बच्चे परदेसी हो जाते हैं तो परदेस वालों से क्यों अपेक्षाएँ रखना? हम दोनों का समय कट रहा है ना छज्जू के चौबारे पर! 

शिरीष ने ख़ुशख़बरी सुनाई कि आप दादा-दादी बनने वाले हो। मैं टिकटें भेजता हूँ आप दोनों आने की तैयारी करो। मैं तो ढेरों सपने सजाने लग गई और शिरीष को बोला की बहू का ख़ूब ध्यान रखना। 

वह बोला, “अरे माँ उसकी माँ है ना यहाँ, रख रही है उसका ध्यान! आप चिंता मत करो। बस आने की तैयारी करो।”

गिरीश ने तो पक्की ज़िद पकड़ ली। बोले, “मैं तो नहीं जाऊँगा। तुम चली जाना। उसे बोलो कि एक ही टिकट भेजे।”

“अरे आपको किसके सहारे छोड़ कर जाऊँगी? मेरा भी जाने का सवाल ही नहीं उठता,” लेकिन भीतर ही भीतर मैं रो रही थी अपनी मजबूरी पर और हम दोनों ही आख़िर नहीं जा पाए। 

अपने कमरे में बैठी अपनी दीवारों से मैं बातें करती रहती हूँ भीतर ही भीतर! वही मेरी सहेलियाँ हैं। सोचने लगती हूँ तो वर्तमान से बहुत पीछे रह जाती हूँ। वहाँ से लौटती हूँ तो आगे निकल जाती हूँ। वर्तमान के केंद्र में विचारधारा भ्रांत होकर घूमती है। समय ने जीवन के रुख़ बदल दिए हैं। विचारों की गहराई से मैं स्वयं भयभीत हो जाती हूँ। गिरीश की खाँसने की प्रक्रिया जब रुकती नहीं, तो बेबस उनको धीरे-धीरे सुलगता हुआ देखती हूँ। जिसकी आँच केवल मुझ तक ही पहुँच पाती है। लगता है ना जाने कब . . .?—कब इस आँच ने एक ज्वालामुखी का रूप धारण कर अपने खौलते लावे से सब कुछ राख कर देना है! 

मन में झंझावात चलते रहने से दिन आकुलता में कट रहे थे। मन छलनी हो रहा था। हम दोनों पर अवसाद ने घेरा डाल दिया था। गिरीश के लगातार खाँसने से दवाइयों का कोई असर दिखाई ना देने पर, उनकी पीठ मलने के बहाने मैं पीछे की ओर हो जाती। जहाँ बहती आँखों को वे देख ना पाएँ। उसके बाद जब उनकी आँख लगती तो मैं दूसरे बाथरूम में जाकर ज़ार-ज़ार रोती। विलाप करती रहती। भरी दुनिया में आँसू पोंछने वाला कोई नहीं था। कलेजा टूक-टूक हो रहा था। घुटनों के दर्द ने‌ भी ख़ूब सताया हुआ था। 

अक्सर बहुत कुछ ऐसा भी होता है जीवन में जो शेष होकर भी अशेष ही रह जाता है। तब उस अधूरे को पूरा करते-करते ही इंसान जीवन निकाल देता है। काश! हमने घर बनाने में सारा पैसा ना लगाया होता तो आज घुटने बदलवा सकते थे। बेटे से कहने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पा रही थी। बेगानी लड़की ना जाने क्या समझे —डरती थी मैं! उधर गिरीश साँसों से लड़ाई कर रहे थे कि एक ज़ोर की खाँसी और उनका चेहरा मेरे हाथों में! बेबस आँखें मेरी आँखों के भीतर गहरे उतर रही थीं, जिससे मेरी आँखें फैलकर अदृश्य में फटे जा रही थीं और र र र उसके बाद सब शांत! 

ऐसा शांत-एकांत जहाँ हर तनाव से मुक्ति मिल गई हो। तन और मन दोनों ही कुंठा मुक्त हो गए हों। ऊहा-पोह और चिंताओं से भरे उद्विग्न चित्त में इतनी शान्ति! 

बहुत कुछ कहने सुनने को था पर अब बहुत देर हो गई थी। शब्द ज़मीन में गड़ से गए थे। . . . पेड़ बन गए थे! और मेरे बहते आँसू उनकी सूखी जड़ों को सींच रहे थे। मेरी आवाज़ किसी गहरी खड्ड में ज़ख़्मी हुई पड़ी थी। मेरे अल्फ़ाज़ की लाशें उठाने वाला भी तो वहाँ कोई नहीं था। 

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