छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–39
वीणा विज ’उदित’
इस बार सर्दियों में भारत माता के चरण छूने और नतमस्तक होने हम कन्याकुमारी के दर्शन को जा रहे थे। बहुत अरमान था विवेकानंद रॉक्स देखने का, वह भी पूरा होने जा रहा था। कन्याकुमारी तक सीधे हम रेल गाड़ी से जा रहे थे। 2 टायर का डब्बा हमारा घर जैसा बन गया था। अब तक के सफ़र में यह सबसे लंबा सफ़र था। दक्षिण भारत जाने की आदत सी बन गई थी अब।
घर से हर बार की तरह गुड़ पारे, पिन्नी, बेसन के लड्डू और बिस्कुट बनवा कर साथ रख लिए थे। इसके अलावा दक्षिण भारत पहुँचे नहीं कि टोकरी में वड़े लेकर ट्रेन में वड़ा बेचने वालों की आस शुरू हो गई थी। शायद नारियल के तेल में तले होने के कारण उनका स्वाद कुछ अलग ही था। वह भी हम ख़ूब स्वाद से खाते रहे।
हम सब बहुत उत्साहित थे। होटल में सामान रखकर, तैयार होकर हम सीधे भारत के चरणों में बिछी काली चट्टानों पर पहुँचे और उन पर चढ़कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे। भारत माता की जय! जय हिंद! देश भक्ति की भावना से हम सब ओतप्रोत थे। मेरे मुख से वंदे मातरम् गान निकल रहा था . . .!
सबसे बड़ा अचंभा था उन चट्टानों के पाँव पखारते जल को देखना। भारत माता के मस्तक पर सजे हिमालय से ही तो हम आए थे। सिर से पाँव तक पहुँच कर बहुत गर्व हो रहा था। नीली छतरी वाले का कोटिश धन्यवाद किया कि उसने हमें ऐसा मौक़ा दिया। यहाँ पर सूर्योदय और सूर्यास्त अद्भुत दिखाई देता है। समुद्र के भीतर से आग के गोले को जन्म लेते या ऊपर आते देखना संपूर्ण जीवन में शक्ति संचारित कर देता है। उसी प्रकार संध्या काल में सूर्य का सागर में धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोना विस्मित कर देता है।
काली चट्टानों के तीनों ओर तीन रंगों का पानी और तीन रंगों की रेत थी—काली, ब्राउन व सफ़ेद! हर तरह का पानी हाथ में ले लेकर हम चट्टानों के ऊपर डाल रहे थे मानो माँ के पैर धो रहे हों। एक आत्मिक संतुष्टि का बोध था। माँ के पैर पखारने ही तो आए थे हम। वहाँ कन्याकुमारी के मंदिर के भी दर्शन करने गए, जो माँ पार्वती का रूप माना गया है—सकी बड़ी मान्यता है। प्रचलित गाथाओं के अनुसार, कहते हैं राजा भरत की कुँवारी कन्या ने यहाँ बाणासुर का वध किया था इसीलिए इसे शक्तिपीठ माना गया है।
वापस आने पर बच्चों ने 3 रंग की रेत के पैकेट एक दुकान से ख़रीदे। प्रिंसिपल को दिखाने के लिए। लेकिन प्रिंसिपल मिस्टर दुबे बेहद ख़ुश होकर बोले कि सारे स्कूल को जानकारी देनी चाहिए। बड़े बेटे मोहित ने फिर वहाँ के बारे में मॉर्निंग एसेम्बली (morning assembly) में जानकारी दी और रेत की क़िस्में दिखाई थीं। यह बातें सब को अविश्वसनीय लगीं, पर यही सच है।
विवेकानंद रॉक मेमोरियल
कन्याकुमारी में तट से एक छोटे जहाज़ में, जो लहरों पर ख़तरनाक तरीक़े से डोल रहा था और जिस में बीच-बीच में लहरें उछलकर पानी डाल जाती थीं। डरते हुए हम श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य विवेकानंद को समर्पित “विवेकानंद रॉक मेमोरियल” पर पहुँचे! यह समुद्र तल से 17 फ़ीट की ऊँचाई पर एक छोटे से द्वीप के पर्वत की चोटी पर स्थित है। इसके चारों ओर बंगाल की खाड़ी वाले समुद्र की ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थीं।
वहाँ पर बहुत बड़ा मेडिटेशन सेंटर भी था भीतर की ओर। जब सब लोग भीतर घूम रहे थे तो मैं वहाँ थोड़ी देर के लिए मेडिटेशन करने बैठ गई। बरसों से यह मेरी ख़्वाहिश थी, जिसे मैं हक़ीक़त का जामा पहना रही थी। हैरानी की बात है कि बाहर चट्टानों से टकराती लहरों का शोर भीतर मेडिटेशन सेंटर में आता ही नहीं। वहाँ पूर्ण शान्ति थी।
कहते हैं ना तुम ख़्वाब देखो तो सही, फिर परिस्थितियों के साथ-साथ कायनात भी तुम्हारा साथ देती है उसे पूरा करने में। वहाँ बैठते ही अश्रु जल धाराओं से मेरे गाल भीग रहे थे। ईश्वर का धन्यवाद करते मैं थक नहीं रही थी। मेरी बचपन की ख़्वाहिश अब पूरी हो गई थी। मेरे आदर्श थे स्वामी विवेकानंद क्योंकि उनका कहना था “Prayers can move the mountains and । solemnly believe it”.
उम्र का वह दौर परफ़ेक्ट था चलने के लिए। अब इस उमर में हम इतना नहीं चल सकते क्योंकि वहाँ बहुत चलना पड़ता है। ख़ूब नारियल पानी पिया नारियल खाया और कन्याकुमारी घूमने के बाद अब हम केरल की ओर चल पड़े थे। और त्रिवेंद्रम के लिए ट्रेन में बैठ गए।
त्रिवेंद्रम (Kerala)
त्रिवेंद्रम में मेरी बहन की ननद शशि रहती थी। उनके पास ही जा रहे थे हम। शशि के तीन बेटे थे और मेरे तीनों बच्चे सब आपस में मस्त हो गए थे। वहाँ एक दिन हम त्रिवेंथापुरम चिड़ियाघर देखने गए। यह दुनिया में बहुत बड़ा और काफ़ी पुराना चिड़ियाघर माना जाता है, इसे पैदल नहीं देखा जा सकता। हम जीप में साँझ ढले थके-मांदे जब वहाँ से बाहर निकले तो सामने वहाँ रेहड़ी पर लाल, पीले, हरे केले बिकते देखे। इतनी क़िस्में देखकर हम चकित थे। और उन्हें खाने की लालसा हो आई। लाल केले 2”-3” इंच के भी थे और बहुत मीठे थे।
दूसरे दिन हम “पद्मनाभास्वामी मंदिर” गए। इसके प्रवेश द्वार को “गोपुरम” कहते हैं जो 100 फुट ऊँचा है और 40 फुट ज़मीन के भीतर है। पद्मनाभास्वामी अर्थात् नाभि से निकले कमल पर ब्रह्मा। वहाँ भीतर दर्शन करने के लिए धोती पहन कर जाना पड़ता है। मैं साड़ी पहनती हूँ इसलिए मैं तो आराम से गई। लेकिन हमारे साथ मर्द और बेटे कपड़े बदलने को तैयार नहीं थे, इसलिए वह लोग भीतर नहीं गए।
मज़ेदार बात यह है कि हमें मलयालम आती नहीं और उनको हिंदी आती नहीं। अपने ही देश में लगता है हम विदेश में हैं। ख़ैर, इसलिए वहाँ के दुकानदार अंग्रेज़ी के दो चार शब्द बोलते हैं। सो, जहाँ हम खड़े थे, दुकानदार ने इशारे से पूछा, “where?”
इस पर रवि जी बोले, “पंजाब!”
वह हैरानी से बोला, “भिंडरावाले . . .?”
यह सुनते ही हम सब हैरान कि इसे पंजाब का इतना ही ज्ञान है। हमने “हाँ” में सिर हिला दिया।
मैं भीतर जाकर देखती हूँ, भीतर छोटा-सा मंदिर था, बीच में एक खंभा था। इसमें शेषनाग शैया पर श्री विष्णु भगवान लेटे हैं। खंभे से दूसरी ओर देखने पर उनकी नाभि से निकले खिले कमल पर ब्रह्मा जी विराजमान हैं। ऐसा मंदिर उत्तर भारत में या मध्य भारत में मैंने कभी नहीं देखा था। यह मंदिर 7 मंज़िला है। बहुत ही सुंदर कारीगरी के मध्य में हर मंज़िल पर एक दरवाज़े जितना झरोखा था।
और हैरानी की बात है कि सूर्य उदय होने पर बारी-बारी हर झरोखे से सूर्य नीचे आता दिखाई देता है। लगता है, 16 वीं शताब्दी में बहुत ही कुशल इंजीनियर और आर्किटेक्ट्स ने यह मंदिर बनाया होगा!
भारत के मंदिरों में बहुत अजूबे देखने को मिले। गर्व होता है भारत की कलाकृति और संस्कृति पर।
केवल किताबों में ऐसी तस्वीर देखी थी। (अभी कुछ वर्षों पूर्व वहाँ के सोने के आभूषणों से भरे ख़जाने के बारे में बहुत कुछ पढ़ा। जो उस मंदिर के नीचे था समुद्र तट की ओर। कहते हैं इसका एक गर्भ गृह अभी भी बंद पड़ा है) इसे दुनिया का सबसे धनाढ्य मंदिर माना जाता है। त्रिवेंद्रम के “कोवलम बीच” पर भी बच्चे फिर पानी में मस्ती करने उतर गए और मौसम भी उनका साथ दे रहा था।
कोचीन
त्रिवेंद्रम से हम भारत के पश्चिम तट अरब सागर की ओर लक्षद्वीप सागर के साउथ वेस्ट में “कोचीन” पहुँचे। इसे Ernakulam भी कहते हैं। वहाँ पर कश्मीर की तरह हाउसबोट तो नहीं थीं। हाँ, पानी में गोल झोपड़ी नुमा बेंत के बुने हुए घर की नाव चलती है। टूरिस्ट लोग उन्हीं में रहना पसंद करते हैं। और सैर के लिए भी जाते हैं। वहाँ से मैं अपनी रसोई के लिए स्टील की मटकी ख़रीद कर लाई थी बहुत सुंदर। जो मैंने पहले कहीं नहीं देखी थी।
यहाँ मल्लाहों की पानी में नौका रेस होती है। नौकाएँ भी दोनों छोर पर सुंदर तरीक़े से डिज़ाइन वाली बनी होती हैं। वहाँ बंदरगाह पर जहाज़ भी बहुत देखे। Cochin का shipyard famous है। लेकिन बीच देखते ही बच्चों ने समुद्र में यहाँ भी स्नान किया और मस्ती की।
इस तरह तमिलनाडु के बाद केरला का टूर करके ढेरों मीठी यादें लिए हम लौट आए थे। आंध्र प्रदेश, राजस्थान, वेस्ट बंगाल . . . यह सब यात्राएँ आपको बाद में सुनाऊँगी। अगली बार आपको रोमांचित कर देने वाला कश्मीर का संस्मरण सुनाती हूँ . . .।
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बहुत सुन्दर रचनाये
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