बैसाखियाँ
वीणा विज ’उदित’आधी रात को डैडी जी को जो खाँसी लगी, तो बंद होने का नाम ही न ले| ममी जी घुटनों के दर्द से पीड़ित पास ही लेटी, बस शोर ही मचाए जा रहीं थीं कि वे उठकर कफ़ सिरप ले लें या फिर मुलट्ठी-मिसरी ही मुँह में डाल लें। लेकिन खाँसी जो एक बार छिड़ी, तो डैडीजी बेदम से हो गए। बुढ़ापे की खाँसी कितनी जानलेवा होती है, यह तो अनुभवी ही समझ सकते हैं। ख़ैर, अपने को उठने में असमर्थ पा, ममीजी ने पूरे ज़ोर से रामू-रामू की रट लगाई। जवानी की नींद गहरी होती है, फिर भी रामू को दूर से ममीजी की आवाज़ आती लगी तो वह किसी भावी आशंका के डर से उठकर उनके कमरे की ओर भागा। आते ही उसने कुनकुने पानी में कफ़-सिरप डालकर डैडीजी को दिया। उनके गले एवम् छाती पर विक्स मली, तब कहीं जाकर उनको कुछ आराम मिला। फिर दो-तीन तकिए रखकर उनका सिर टिकाया। इस बीच ममीजी लगातार हिदायतें देती जा रहीं थीं, साथ ही दुआएँ भी। जब उसने देखा कि दोनों अब आराम से लेट गए हैं तो वो भी वहीं कारपेट पर लेट गया कि कहीं उनको फिर उसकी ज़रूरत न पड़ जाए।
सुबह सवेरे जब डैडीजी की आँख खुली, रामू को वहाँ ही सोया देखकर उनकी आँखों की कोर भीग गई। वे गहरी सोच में पड़ गए। उनके मनोःमस्तिष्क पर एक गहरी सी धुन्ध छाने लगी। उसमें वे रिश्तों के मायने ढूँढने लगे। लेकिन कुछ साफ-साफ दिखाई नहीं दे रहा था। डाल के पके फल से वे न जाने कब टूटकर गिर पड़ें। उनके न रहने पर लाली की ममी का क्या होगा? आदित्य तो जो एक बार पढ़ने को घर से निकला तो समझो सदा के लिए चला गया। ब्याहकर बीवी को भी साथ अमेरिका ही ले गया। पहले-पहले हर हफ़्ते फोन आता था, धीरे-धीरे फोन आने की रफ्तार भी धीमी पड़ गई। वे भी क्या करें, आदि का बहुत काम है और हिना भी काम पर जाती है। घर अकेली नहीं बैठ सकती। जब-कभी आदि बात करता है, तो यही कहता है कि कैसी तबियत है? कब आना है? कब टिकट भेजूँ? बता देना। डैडीजी को लगता किसी नाटक के रटे रटाए संवाद बोल रहा हो। लेकिन-
ममीजी का पुत्र-प्रेम तो सागर की तरह कभी न सूखने वाला अथाह जल-प्रवाह है। वे मेरे बच्चे ! मेरे लाल ! तूँ ठीक है न! कहकर सिसकने लगतीं। वो सदैव यही कहता कि वे किसी किस्म की कँजूसी न करें और किल्लत न सहें। वो उनको छोड़कर इसीलिए तो इतनी दूर कमाई करने आया हुआ है। हाड़-माँस के ऐसे रिश्ते भी क्या हुए, जिन्हें बनाए रखने के लिए नाट्कीय बातें करनी पड़ें। ममीजी की समझ में यह सब नहीं आता और वे उसे याद कर के रोने लगतीं।
वास्तविकता को तो झुठलाया नहीं जा सकता। अमेरिका में मैडिकल इतना महँगा है कि दोनों बुजुर्ग बीमारी की हालत में वहाँ जाने कि हिमाकत कैसे कर सकते हैं। फिर रहन-सहन का भी ज़मीन-आसमान का अन्तर है। यहाँ सेवा करने के लिए रामू सदा हाज़िर है। वहाँ सब काम स्वंय करो। बेटे को अपने हाथों खाना खिलाने का मोह-संवरण ममतामयी बीमार माँ कहाँ कर पायेगी वहाँ- सो न चाहते हुए भी थकावट से बीमार हो जाएगी। यही सब सोच कर डैडीजी बेटे को स्पष्ट शब्दों में कह ही देते कि तुम लोग आ जाना जब समय मिले। हम दोनों का आना संभव नहीं है। इसके उपरान्त वे कुछ समय तक निराशा से घिर जाते। भावी असुरक्षा उन्हें अवसादग्रस्त कर देती। यही बातें उन्हें भीतर ही भीतर सालती रहतीं। ऐसे समय रह-रह कर वे एक कंधा तलाश करते जिसपर सिर रख कर वे चैन पा सकें।
दरिया की रवानगी आगे ही आगे है| कभी दरिया भी पीछे मुड़कर देखता है कि जिन किनारों को वो पीछे छोड़ आया है वो कायम भी हैं या नहीं| जिन पत्थरों की गोद में खेलकर उसने जीवन जीया, निरंतर आगे बढ़ना सीखा वो किसी बिजली के गिरने से टूट तो नहीं गए। प्रेम भी ऐसा ही बहता दरिया है। माँ-बाप अपने बच्चों के प्यार में तड़पते हैं, उनके बच्चे समय आने पर अपने बच्चों के लिए बेचैन रहते हैं—और यही सिलसिला सदा से चलता आ रहा है। यही सोच कर डैडीजी अपने भीतर छायी निराशा की धुन्ध में भी रोशनी लाने का यत्न करते। हर शाम को अँधेरा घिरते ही उसकी परछाईयाँ उन्हें अपने ऊपर रेंगती हुई उस अँधेरे में उनके अस्तित्व को लपेटती हुई लगतीं। कारण–एकाकीपन व असुरक्षा !!!
बेटी लाली अपनी गृहस्थी में मान-सम्मान पा रही है, ससुराल में उसकी प्रशंसा होती है जानकर डैडीजी-ममीजी गौरवान्वित होते। कभी-कभी ममीजी उदास हो जातीं तो हर किसी से उसकी ही बातें करती रहतीं। जब कभी बच्चों को लेकर वो मायके आती तो घर-आँगन चहक उठता। उनके पास बैठकर वह उनसे दुख-सुख साँझा करती व उनपर स्नेह उड़ेलती। वक्त को भी पंख लग जाते। उन सब के जाते ही घर में कितने ही दिनों तक उनकी गूँज सुनाई देती रहती। शुरू हो जाता इंतज़ार ! उनके दोबारा आने का।
रामू दिल से बहनजी की सेवा करता एवम् बच्चों के आने से खुशी-खुशी खूब काम करता। लाली ने देखा कि वह माता-पिता को रोज़ काढ़ा बना कर देता व उनके पाँव भी दबाता है। सच कहो तो पूरा घर ही उसी ने सँभाला हुआ था। ढेर सारी बिमारियों के चलते ममीजी उसे डाँटतीं, तो डैडीजी कहते, “रामू को न डाँटा कर भागवान!” लेकिन रामू ने उस डाँट को कभी डाँट नहीं समझा था। उस गुस्से के पीछे छिपे नरम व प्यार भरे दिल की उसे पहचान थी। वह तो हर रिश्तेदार की असलियत भी खूब पहचानता था। आदि की पुरानी घड़ी व कपड़े मिलने पर वह बहुत गर्व महसूस करता था। रामू दिल का नरम व नियत का साफ़ था, यह डैडीजी ने कई बार परख लिया था। उन्हें उस पर भरोसा था।
लाली के बेटे के मुंडन हैं, फोन आया। रामू को लेकर ममी-डैडीजी तीन दिन पहले ही कार से आगरा पहुँच गए। अमेरिका से आदि अकेला ही आया था, सीधे आगरा पहुँचा। बहुत धूमधाम से फंक्शन सम्पन्न हुआ, साथ ही आदि के आने से सभी हर्षित थे।
वापसी में आदि रामू के साथ आगे ही बैठ गया। आदि का हाल-चाल पूछने की बजाय डैडीजी को न जाने क्या सूझी कि लगे रामू की तारीफों के पुल बाँधने। ऐसे में आदि अपने को हयूमिलेटेड अर्थात नीचा महसूस करने लगा। उसे लगा - उसकी मज़बूरियों को नज़रन्दाज़ कर जान-बूझकर डैडीजी उसे नौकर के समक्ष जलील कर रहे हैं। यूँ कतरा-कतरा जलील होने से तो अच्छा है वो अपना अस्तित्व ही मिटा दे। उसकी रीढ़ की हड्डी अचानक अकड़ गई। न जाने उसे क्या हुआ कि उसने फुल स्पीड जाती हुई गाड़ी को एकदम से अपना पैर अड़ाकर ऐसी ब्रेक लगाई कि पीछे से आता ट्रक बाईं ओर से जहाँ ममीजी बैठी थीं, वहाँ आकर लगा। रामू भी गड़बड़ा गया, लेकिन उसने भैयाजी की यह हरकत अपने तक ही सीमित रखी। भैयाजी भी बुरी तरह घायल हो गए थे, वो भी बाईं ओर बैठे थे।
अस्पताल में होश आने पर डैडीजी ने देखा कि रामू का खून ममीजी को चढ़ाया जा रहा है। डॉ. ने बताया कि केवल रामू का ब्लड-ग्रुप ममीजी से मेल खाया था और वो सीरियस थीं। उधर आदि की बाँह पर पलास्तर चढ़ा हुआ था व आँख पर टाँके लगे हुए थे। डैडीजी ईश्वर की न्यारी लीला पर हैरान थे कि सगा बेटा पास होते हुए भी माँ को खून नहीं दे सका। उनकी आँखों की कोरों से आँसू बहने लगे। हृदय से सैंकड़ों मूक आशीर्वादों की झड़ी लग गई।
रामू स्वस्थ था। वह भैयाजी के पास उनका हाल पूछने गया तो शर्मिंदगी से आदि की आँखों से आँसू बह निकले व उसने दूसरे हाथ से रामू के हाथ पर अपना हाथ रख दिया। रामू ने मुस्कुराकर दोनों पलकें बंद कर के सिर हिलाकर उसे विश्वास दिलाया कि वह निश्चिंत रहें-उनकी ग़लत हरकत उसके अंदर दफ़न हो गई है। यह राज़ कभी नहीं खुलेगा।
रामू आज सचमुच पूरे परिवार की बैसाखी बन गया था। ममीजी से खून का रिश्ता बनने से सबको उसमें अपनत्व लगा। लाली का परिवार भी पहुँच गया था। डैडीजी ने तो भावना के स्तर से ऊपर उठकर अपनी वसीयत में भी फेर-बदल कर डाला। जिस कँधे की उन्हें तलाश थी वह केवल रामू का ही है–यही उनके बुढ़ापे की बैसाखियाँ हैं। अब वहाँ क्षोभ के लिए कोई स्थान नहीं था। आदित्य के लिए अमेरिका में रहकर यह सब करना असंभव था सो वह कुंठा-मुक्त हो गया था। और डैडीजी निश्चिन्त !
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