छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–001
वीणा विज ’उदित’धारावाहिक—
वक़्त की ग़र्द में लिपटा काफ़ी कुछ छूट जाता है, अगर उसे याद का जामा पहना के बाँध न लिया जाए। पिछली सदी में चालीस के दशक की बातें हैं, जब मैं कुछ महीनों की थी। पापा लाहौर में उस वक़्त ’ग्लैमर की दुनिया’ (Glamour-World) से जुड़े हुए थे। शायद तभी से वे बीज-तत्व मस्तिष्क में घर कर गए थे, जो मैंने आरम्भ से ही रंगमंच से नाता जोड़ लिया था। विभाजन की त्रासदी तो नहीं झेली थी, लेकिन सब कुछ पीछे छूट गया था, जिसे नियति वहाँ रहने पर रच रही थी।
वह ज़माना स्टेज-शो का था। लाहौर में ही सारा ’ग्लैमर का जगत’ (Glamour-World) सिमटा हुआ था। पापा स्टेज़-शो ऑर्गेनाइज़ करते थे। मशहूर गायक हस्तियों को बुलवाकर उनकी कला को चार-चाँद लगाते थे। सब कलाकार लाहौर आने को लालायित रहते थे। अच्छे सम्भ्रांत घरों की लड़कियाँ तब फ़िल्मों में नहीं आतीं थीं। सो गाने वाली बाइयों व अन्य कलाकारों को सुनने का चलन था। टिकट लेने पर भी हाल खचाखच भर जाते थे।
बनारस, लखनऊ, अम्बाला, कर्नाटक, दिल्ली, बम्बई आदि जगहों से अमीर बाई, ज़ोहरा बाई, हीरा बाई, मुन्नी बाई जद्दनबाई आदि ने लाहौर का रुख़ कर लिया था। पापा बताते थे कि जहाँ ज़ोहरा बाई अम्बाले वाली अपनी भारी-भरकम आवाज़ से शास्त्रीय संगीत में समाँ बाँध देती थी, वहीं कल्याणी बाई का गाया गीत:
“आहें भरीं, पर शिकवे न किए . . .”
लोगों के लबों पर चढ़ गया था।
पापा शे'अरो-शायरी भी करते थे। बुल्ले शाह से तार्रुफ़ भी मुझे उन्होंने ही करवाया था। ख़ैर, वो सुना रहे थे कि अमीर बाई कर्नाटकी ने तो बाद में फ़िल्म “रतन” में नौशाद के संगीत निर्देशन में ऐसा गीत गाया कि आज भी उस गीत की मिठास क़ायम है। वो गीत है:
“ओ जाने वाले बालमवा, लौट के आ-लौट के आ . . .”
इसी तरह जद्दन बाई भी अपनी ठुमरी गायकी के लिए बेहद अदब से जानी जाती थीं। जब भी उनका शो होता था, उनके दोनों बच्चे हॉल में मेरी मम्मी के साथ पहली पंक्ति में बैठते थे।
उनके बच्चे यानी कि बेटी “नरगिस” जो १३ वर्ष की थी (आज के मशहूर अभिनेता संजय दत्त की माँ और सुनील दत्त की पत्नी) और बेटा अनवर हुसैन तब १७ वर्ष का था। (बाद में वे भी अभिनेता बने! वे जाहिदा अभिनेत्री के पिता थे)। तब नरगिस भीतर आते ही मुझ नन्ही बेबी को गोद में ले लेती थीं। (आज का ज़माना होता तो वो सुनहरे पल कैमरे की क़ैद में होते!)
नरगिस का असली नाम “फातिमा रशीद” था। छह वर्ष की उम्र में “तलाशे हक़” में बाल कलाकार की अदाकारी करने से उनका फ़िल्मी नाम “बेबी नरगिस” पुकारा जाने लगा था।
पापा बोले, “तुम्हें एक वाक़या सुनाता हूँ। उस वक़्त ख़ासा चर्चा में था। उन दिनों महबूब खान लाहौर आए थे। उन्होंने जवानी की दहलीज़ पर पैर रखती नरगिस को अपनी नई फ़िल्म ’तक़दीर’ में बतौर हिरोइन लेने की तजवीज़ पेश की। यह सुनकर जद्दन बाई (जो मुझे अपना अज़ीज़ मानती थीं), बोलीं कि किशन भाई इनसे कह दो कि अगर हमार बिटिया हिरोइन बनेगी, तो वो उसमें हमारी पसंद की ठुमरी पे नाचेगी ज़रूर। महबूब खान इस बात पर बेहद परेशान हुए। बोले, भाई, ऐसे कैसे होगा? लेकिन वो ज़िद पर अड़ी रहीं। तब मैंने उन्हें कहा कि आप एक बार बोल तो सुन लें। वो मान गए। इस पर जद्दनबाई ठनक कर बोलीं, कि वो बोलती हैं और ये लिखें। लो जी, उसी वक़्त वहाँ दवात और क़लम मँगाई गईं। वो भोजपुरी में लगीं बोलने:
’बाबू दरोगा जी कौने क़ुसूर . . .’
न मेरे पल्ले कुछ पड़ रहा था, और न ही महबूब साहब के। पर कमाल ये हो रहा था कि वो लिखते जा रहे थे। बाद में इसी ठुमरी में संगीत के हिसाब से कुछ फेर बदल करके—क्या नाम था उसका? ’पीलीभीती’ . . . हाँ, अशोक पीलीभीती ने अच्छे से गीत बनाया। और उस ठुमरी को शमशाद बेगम से गवाया। हिरोइन बनी नरगिस ने उस ठुमरी पर नाच भी किया। फ़िल्म इंडस्ट्री में पहली बार एक भोजपुरी गीत किसी फ़िल्म में गाया गया था। और यह ठुमरी लोकप्रिय भी बहुत हुई।”
पापा बहुत शौक़ से अतीत को खंगालते थे मेरे साथ। फिर वहीं पहुँच जाते थे, कुछ खो से जाते थे। अरे हाँ, उन्होंने बताया कि फिर ऐसा दिन भी आया, जब लोगों ने स्टेज पर पैसे भी फेंके। १९४४ में बहुत लोगों की तक़दीर ने पासा पलटा था। ज़ोहरा बाई अम्बालेवाली अपनी आवाज़ में शास्त्रीय संगीत से समाँ बाँध देती थी। उन्होंने १९४४ में “रतन” फ़िल्म में एक गाना गाया, जो हिट हो गया था:
“अंखियाँ मिला के, जिया भरमा के
चले नहीं जाना ओओओ चले नहीं जाना”
वापिस लाहौर आकर, जब यही गीत ज़ोहरा बाई ने स्टेज़ पर सुनाया तो ऑडियेंस झूम उठी थी। यही वो दिन था जब लोगों ने स्टेज पर रुपयों की बरसात की थी।
ऐसे ही ढेरों अफ़साने अतीत से बाहर आने को उतावले हैं। बाक़ी फिर . . . . . .।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कहानी
-
- अनकही
- अन्तहीन जीवनधारा
- आत्मगर्भिता
- कलयुगी तपस्वी ‘यूनिकॉर्न’
- कलफ़ लगी साड़ी
- काँटों की सेज
- तीन चौके
- तुरपाई
- धुएँ की लकीर
- पंछी का रुदन
- पूर्ण विराम
- बैसाखियाँ
- मूक क्रंदन
- मृग मरीचिका
- मैग्नोलिया जैसी खिली
- मोह के धागे
- यूनिकार्न
- रक्तबीज दानव
- रूप की गाज
- रेखाओं की करवट
- लौह संकल्प
- शेष होकर भी अशेष
- समय के पंख
- समाधान
- हथेली पर सूरज
- आप-बीती
- स्मृति लेख
-
- छुट-पुट अफसाने . . . एपिसोड–23
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–001
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–002
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–003
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–004
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–005
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–006
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–007
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–008
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–009
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–010
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–011
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–012
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–013
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–014
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–015
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–016
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–017
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–018
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–019
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–020
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–021
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–022
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–24
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–25
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–26
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–27
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–28
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–29
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–30
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–31
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–32
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–33
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–34
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–35
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–36
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–37
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–39
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–40
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–41
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–42
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–43
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–44
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–45
- छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–46
- छुट-पुटअफसाने . . . 38
- यात्रा-संस्मरण
- लघुकथा
- कविता
- व्यक्ति चित्र
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- विडियो
-
- ऑडियो
-