दमबाज़
दीपक शर्माइधर म्यान्मार इस पहली फरवरी से स्थापित किए गए सैन्य शासन के विरोध में मैं वहाँ की जनता के बढ़ रहे जुलूसों को देखती हूँ तो मुझे अपनी नानी के अधूरे उपन्यास का जन-विरोध याद आ जाता है।
आज जिस प्रकार म्यान्मार के लोग अपनी नवनिर्वाचित नेता आंग सांग यू ची की रिहाई की माँग कर रहे हैं, सन् 1931 में ग्रामीय खेतिहर अपने नेता, ऊ सया सैन को ब्रिटिश सरकार की फाँसी से बचाने के लिए पेगु की सड़कें भर रहे थे।
हथियारों से लैस।
सन् 1954 में लिखा जा रहा मेरी नानी का वह उपन्यास उन दिनों एक स्थानीय समाचार-पत्र में धारावाहिक रूप में छप रहा था। प्रत्येक बृहस्पतिवार के दिन।
धारावाहिक का नाम था- दमबाज़। काल-1930-32। विषय-बर्मा में बसे भारतीयों के वहाँ के मूल निवासियों से बिगड़ रहे संबंध। भूभाग-पेगु।
यह सर्वविदित है कि सन् 1885 के तीसरे एंग्लो-बर्मीज़ युद्ध में प्राप्त हुई अपनी विजय के आधार पर समूचे का समूचा बर्मा ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन गया था जो फिर 1948 ही में स्वतंत्र हो पाया था। इस दौरान सन् 1885 से लेकर सन् 1937 तक ब्रिटिश साम्राज्य ने बर्मा को अपनी भारत सरकार के अधिकार-क्षेत्र के रूप में रखा था और अनेक भारतीय वहाँ ठहरते-बसते थे। अजीम प्रेमजी के पिता तो वहाँ के प्रमुख व्यवसायी थे और उन्हें मुहम्मद हाशिम प्रेमजी, राइस किंग ऑफ़ बर्मा के नाम से जाना जाता था। विपश्ना– गुरु एस.एन गोयंका तो वहीं जन्मे पले थे। भारत वह सन् 1969 में आए थे।
नानी ने अपना उपन्यास 26 मई, 1930 के दिन भारतीय व बर्मीज़ के बीच हुए मार-काट से शुरू किया था। रंगून की बंदरगाह पर जब भारतीय कर्मी अधिक वेतन की अपनी माँग माने न जाने पर हड़ताल पर चले गए थे तो जहाज़ के मालिक ने देशी बर्मीज़ को उनका काम दे दिया था। मगर काम का बोझ बढ़ जाने पर मालिक ने भारतीयों की माँग मान ली थी और उन्हें बड़े वेतन पर फिर रख लिया था। देसी बर्मीज़– वेद को यह अच्छा नहीं लगा था और भारतीयों पर हमले शुरू हो गए थे। परिणाम, भारतीय मूल के 120 लोग मारे गए और 900 घायल हुए।
उस मार-काट की छाया लंबी रही थी और दिसंबर 1930 से ब्रिटिश शासन के विरोध में गठित ऊ साया सैन का आंदोलन ब्रिटिश शासन के साथ-साथ भारतीयों को भी खदेड़ने का लक्ष्य रख बैठा था।
ब्रिटिश सरकार के प्रति बर्मीज़ का रोष चावल के बढ़े दामों ने बढ़ाया था। पेगु उस समय अपनी धान की खेती के लिए संसार भर में जाना जाता था और चावल- मिलें उसे कूट-काटकर पॉलिश्ड अवस्था में जब तैयार करतीं तो ब्रिटिश सरकार विश्वव्यापी महामंदी का लाभ उठाकर उसे ऊँचे दामों पर निर्यात कर देती। बर्मा को वंचित रखते हुए।
उन राजनैतिक गतिविधियों के बीच नानी का बर्मीज़ नायक व्ह ते ऊ साया सैन द्वारा संयोजित गैलन आर्मी; गरुड़ सेना में भर्ती होने की बजाय नायिका, कामिनी के पिता की मालिकी में उनकी चावल-मिल में धान से चावल चाहने लगा था। कामिनी के सान्निध्य के लोभ में।
किंतु अभी सबसे हाल की नानी की किश्त में व्ह ते ने मालिक की चावल-मिल जलाने आए बर्मीज़ को गौतम-बुद्ध के अहिंसा-पाठ का वास्ता देकर अभी लौटाया ही था कि नानी की लेखनी को विराम लग गया।
पूर्ण विराम।
कारण, पेगु शहर के विश्व-प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर, श्वै मौदो पैगोडा के अंतरराष्ट्रीय चर्चा में आने पर उस स्थानीय समाचार पत्र ने अपने प्रकाशन में नानी की वह किश्त उस समाचार में जोड़ दी थी, जिसमें नानी ने उस मंदिर की महत्ता तथा स्वरूप का वर्णन दिया था। उसके इतिहास सहित।
सन् 1930 की पाँच मई ही के दिन पेगु में आए एक भयानक भूचाल ने इस में स्थापित गौतम बुद्ध की भव्य प्रतिमा को गंभीर रूप से क्षति पहुँचाई थी। और यह संयोग ही था कि सन् 1954 के उन्हीं दिनों में उसका मूल-निरूपण हुआ था और गौतम-बुद्ध के वे दो बाल भी उसमें पुनर्स्थापित किए गए थे जिसने उसे पुनः धार्मिक जीवनाधार दे दिया था। परम पावनता लिए। 181 फीट लंबी, लेटी हुई सजीव दिखाई देने वाली मोन मूल के गौतम बुद्ध की उस प्रतिमा का निर्माण 994 ई.पूर्व में हुआ था किंतु सन् 1757 में पेगु के ध्वस्त हो जाने पर वह आँखों से ओझल हो गई थी किंतु सन् 1881 में वह फिर एक जंगल-वर्धन के नीचे से आन प्रकट हुई थी।
जैसे ही यह समाचार प्रकाश में आया, सारा बाज़ार नाना की आढ़त में उमड़ पड़ा।
बर्मा में मेरे नाना लगभग 15 वर्ष बिता चुके थे। 1917-1927 के वर्ष ब्रिटिश सेना में ली गई अपनी तैनाती के अंतर्गत तथा उससे अवकाश ग्रहण करने के उपरांत आगामी 4 वर्ष चावल-मिल के मालिक के रूप में। वह मिल उन्होंने पेगु ही में लगाई थी और जब मिल के बाहर धान-खेतीहरों के नारे तेज़ होने लगे थे तो सन् 1932 में वह मेरी नानी और माँ के साथ कस्बापुर लौट आए थे। स्थायी रूप में यहीं अपनी आढ़त जमाने के निमित्त।
मेरी माँ मुझे जन्म देते समय 1936 ही में स्वर्ग सिधार ली थीं और मुझे मेरी नानी ने पाला था। मेरे पिता घर जमाई थे। मेरे पिता से नाना का परिचय उसी आढ़ती के सिलसिले में हुआ था। यहाँ वे मुंशीगिरी सँभाले हुए थे जब मेरे नाना को उनकी व्यापारिक बुद्धि भा गई। इतनी कि दो माह के अंदर ही वह उन्हें घर के अंदर ले आए। मेरी माँ के दूल्हे के रूप में।
कोई नहीं जानता था नानी ही उस धारावाहिक की जननी थीं। वह छद्म नाम से लिखती थीं– ‘विस्मिता’ ताकि मेरे नाना और मेरे पिता यह तथ्य जान न पाएँ। बेशक घर के नीचे बनी आढ़त में एक राष्ट्रीय समाचार-पत्र आया करता था किंतु पास-पड़ोस में उसके उपलब्ध होने की संभावना तो थी ही।
धारावाहिक की किश्तें उस स्थानीय समाचार-पत्र में मैं पहुँचाया करती थी। स्कूल में वॉलीबॉल खेलने हर मंगलवार की शाम जब मैं अपनी साइकिल पर घर से निकलती तो पहले एक लिफ़ाफ़ा उस समाचार-पत्र के दफ़्तर पर छोड़ने जाती। लिफ़ाफ़ा मुहरबंद रहा करता। मेरी नानी द्वारा सील किया हुआ। लाख को पिघलाकर।
नाना तक जैसे ही उस धारावाहिक की ख़बर पहुँची, वह उस स्थानीय समाचार-पत्र के दफ़्तर पहुँच लिए और नानी के धारावाहिक की पिछली सभी किश्तें उठा लाए।
इधर वे उनकी निगाह से गुज़रीं तो उधर वह नानी को घेर लिए, “सोच ले। उस मुख़बिरी की बात पब्लिक के सामने खोलेगी तो मुझसे बुरा कोई न होगा।”
“कैसी मुख़बिरी? कैसी पब्लिक?” नानी अनजान बन बैठीं।
“मैं ही सब जानता हूँ। तू कुछ नहीं जानती। मैं ही भेद खोल रहा हूँ? तू भेद सीने में छिपाए है?”
“यह ताना-तिश्ना किसे दे रहे हैं? जो अपनों के भेद रखने के हक़ में थी या जो बेगानों को भेद देने के?" नानी आपा सँभाल नहीं पाईं।
परिणाम क्रोधवंत नाना ने नानी की गर्दन पर ऐसा घूँसा जमा दिया कि उनकी हड्डी क्या, पसली क्या, सब दरक गईं।
उसी दम नानी का दम अटक गया और वह मर गईं। आश्चर्य की बात यह थी कि उस धारावाहिक के अचानक बंद हो जाने का संबंध मेरी नानी की मृत्यु के संग स्थापित करने सभी कस्बापुर निवासी नितांत असफल रहे।
सभी के लिए आकस्मिक वह मृत्यु दैव-योग थी, जिसे सन् 1932 की ब्रिटिश पुलिस द्वारा अजान एक बर्मीज़ चावल गाहने वाले की एक मुठभेड़ के अंतर्गत हुई हत्या से कुछ भी लेना-देना नहीं था।
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