आईने के सामने अपने आपको निहारती लेखा अपने रूप सौन्दर्य पर स्वंय ही मुग्ध हुए जा रही थी। अपनी कदली स्तम्भ सी सुन्दर अनावृत टाँगें और स्कॉर्फ के बंधन से मुक्त लम्बी केशराशि को देखकर वह स्वयं को किसी सिनेतारिका से कम नहीं समझती थी। उसकी सहेलियाँ भी तो उसे कभी किसी सिनेतारिका तो कभी किसी सिनेतारिका के नाम से बुलाती थीं। परिस्थितियाँ और परिवेश किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं और उसके अनुरूप ही उसमें स्वभाव व चरित्र को गढ़ने लग जाते हैं। लेखा की चाल ढाल में भी एक ग़रूर छलकने लगा था। छरहरा बदन उस पर से लम्बा कद उसे भीड़ में भी एक पहचान दे जाता था। उसकी अदाओं में लोच व चेहरे पर एक दमकती आभा बिखरी रहती। होंठों की मुस्कान के साथ उसकी आँखें भी मुस्कुरा उठतीं। तभी तो वह एकांत में भी शरमा गई जिससे सारे शरीर का रक्त उसके चेहरे पर चढ़कर सिंदूर बिखेर उठा। स्कूल में प्रतिदिन उसकी प्रशंसा के पुल बाँधे जाते फलस्वरूप खुशी के मारे उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। आज के युग में युवावर्ग की प्ररेणा का स्त्रोत फिल्मी एक्टर्स ही हैं। बाजारवाद उसको बहुत बढ़ावा दे रहा है जिससे इनका आर्कषण बढ़ता ही जा रहा है। युवक युवतियों में यह छूत की बीमारी की तरह फैलता जा रहा है। फिर सिनेतारिकाओं वाले सारे गुणों से सुसज्जित वह इस के प्रभाव से अछूती कैसे रह पाती। दिन रात इन्हीं ख्यालों में गुम रहती कि कैसे वह उस स्वप्नलोक की दुनिया का हिस्सा बन सके। अपने ख्वाब पूरे कर सके। 

बाबूजी बहुत कड़क स्वभाव के थे अम्मा उतनी ही नरम व सदा उनसे सहमी रहतीं। वृन्दा दीदी शादी के बाद मायके रहने आई हुई थीं। आयुष बी. काम. कर रहा था लेखा बी. ए. प्रथम वर्ष में थी और छोटा आरूष अभी आठवीं में पढ़ता था। वृन्दा दीदी से लाड़ लड़ाते हुए लेखा ने जब कहा  “दीदी सब लड़कियाँ मझे छेड़ती हैं कि तू तो हीरोईन है। घर में बैठी क्यों समय बर्बाद कर रही है। तुझे तो बम्बई में फिल्म इन्डस्ट्री में होना चाहिए। ”तभी दीदी किसी भावी आशंका से सिहर उठी। उम्र के इस नाज़ुक पड़ाव पर बिन परों के ऊॅची उड़ान भरने ओैर फलस्वरूप औंधे मुँह गिर के ज़ख्मी होने के किस्से आम थे। सो कुछ सोचकर वृन्दा ने उसे समझाया कि वह इन बेकार की बातों पर ध्यान न दे। बल्कि पढ़ लिखकर कुछ बनकर माँ बाबूजी का नाम रौशन करे। लेकिन........लेखा के दिमाग में जो कीड़ा घुस गया तो निकलने का नाम नहीं। उसके दिमाग में एक विचार कौंधा। उसी के अनुरूप उसने प्रगल्भता से एक प्रोग्राम की रूप रेखा मन में बनाई। जिसकी भनक किसी को भी नहीं लग पाई। कार्तिक की ओस भीनी रात्रि के प्रथम पहर में जब अम्मा चौंका समेटने में व्यस्त व घर के बाकि सब लोग सोने का उपक्रम करते बिस्तरों में घुस चुके थे उसने एक बैग में कुछ कपड़े व पैसे रखकर चोरी से पिछले दरवाजे से घर को त्याग एक अन्जानी मंजिल की ओर कदम बढ़ा लिए। उसे ज़रा भी आभास नहीं हुआ कि वह एक पतली तार के पुल पर भागने जा रही है। जिस पर भागने से किसी भी कारण से गिरना ही उसका अन्त है। फिर वो चाहे पुल की तार के टूटने से या कदम बहकने से हो। उसके भीतर एक उद्दाम आवेग.... एक पैशन था। फिल्मों में हीरोईन बनने की लालसा... एक तूफान ला देने वाला मोहक आकर्षण। चोरी से भागने के कारण वह भयभीत थी कि कहीं कोई उसे देख न ले। उसने दीदी की साड़ी पहन ली थी व उसके पल्ले से अपने आप को अच्छी तरह ढाँप लिया था। पहली बार अपनी रगों में.... अपने खून के कतरे कतरे में वह ऐसा उद्दाम आवेग महसूस कर रही थी मानो एक विशाल जलप्रपात राह में आए रोड़ों व चट्टानों को परे धकेलता हुआ समूची शक्ति  व तेजी से आगे बढ़ता चला जाता है। तभी तो वह भी अपनी मंज़िल की ओर उसी समग्रता से बढ़ चली थी। 

दिन भर काम में सर खपाती अम्मा चाहे जितनी भी थकी होतीं रात को सोने से पूर्व अपने सारे बच्चों को नज़र भर कर देखने के बाद ही बिस्तर पर लेट पातीं। अपनी बगिया को फलते फूलते देख कर वे ईश्वर का धन्यवाद करतीं। उन्हें लेखा कहीं दिखाई नहीं दी। सारा घर देखने के पश्चात् वे ऊपर छत पर देखने गईं लेकिन वहाँ गहन सन्नाटा था। वे किसी अनहोनी के डर से घबरा गईं। उनके हाथ पाँव फूलने लगे। बाबूजी से बात करना अर्थात् घर में हंगामा खड़ा करना। तो फिर.... वे क्या करें। वे दबे पाँव वृन्दा के पास गईं और उसे हिलाकर चुपचाप रसोई की ओर पकड कर ले गईं। वृन्दा भी मॉ के साथ हैरान सी एकदम चुप सी खड़ी हो गई। जब अम्मा ने उसे लेखा के कहीं भी न होने की खबर सुनाई तो उसका माथा एकदम ठनका। अम्मा के पूछने पर कि उसे किस सहेली के घर ढूँढें वृन्दा ने छूटते ही कहा कि अम्मा वह सहेली के घर नहीं... बहुत खतरनाक रास्ते पर निकल गई है। सुनकर अम्मा घबराहट में रोने लग गईं। तभी वृन्दा का दिमाग तेज तेज काम करने लगा। उसने अम्मा से कहा,  “अम्मा तुम एकदम शोर न करो। हिम्मत से काम लेना पड़ेगा। अभी लेखा को घर छोड़े अधिक समय नहीं बीता है। तुम बाहर की बैठक से अपने किराएदार शुक्लाजी को बिन आहट किए बुला लाओ। मैं कुछ पैसे लेकर आती हूँ। उनको साथ लेकर मैं स्टेशन पर पता करती हूँ। तुम पीछे से शान्ति पूर्वक प्रार्थना करना कि हम अपने अभियान में सफल हों। हमें देर हो तो घबराना नहीं उसका मतलब समझना कि हम उसे लेकर आ रहे हैं।”

अम्मा को शुक्लाजी पर भरोसा था। उम्र में ४० के करीब शुक्लाजी अम्मा को जिज्जी बुलाते थे। उनका परिवार गाँव में था लेकिन बैंक में नौकरी के कारण वे शहर में रहते थे। अम्मा छोटे भाई सदृश्य उनका ख्याल रखती थी। शुक्लाजी सीधे सादे व शान्त प्रकृति के थे। उनपर भरोसा किया जा सकता था तभी इस विपदा की घड़ी में उन्हें चुपचाप बुलाकर अम्मा ने सब कुछ समझाकर वृन्दा के साथ कर दिया। दोनो सीधे रेल्वे स्टेशन गए। टिकट खिडकी पर जो बाबू बैठे थे वृन्दा ने छूटते ही उनसे पूछा कि फलां फलां डील डौल की अकेली लड़की ने आधा घंटा पहले कोई टिकट खरीदी थी क्या। उनके प्रश्न पर  बाबू ने बताया कि एक जवान  सुन्दर सी लड़की ने दस बजे की गाड़ी की बम्बई की एक टिकट ली थी। वृन्दा ने घड़ी देखी अभी साढ़े दस ही बजे थे। उसने बाबू से पूछा कि पहला स्टॉपेज कब आएगा उस गाड़ी का.. तो वे बोले कि भीतर इन्कवायरी से पूछो। शुक्लाजी स्टेशन मास्टर के पास चले गए। वृन्दा भी साथ हो ली। वे भले आदमी थे। वृन्दा का दिमाग बहुत तेजी से घूम रहा था। उसका मन तो पहले से ही भरा था। स्टेशन मास्टर से बात करते ही वह रो पड़ी। वह बोली,  ‘हमारी बहन अभी बम्बई के लिए रवाना हुई है।  पीछे से पिताजी को दिल का दौरा पड़ गया है। उसे अभी ही रोकना ज़रूरी है कृपया आप बताएँ क्या करें। ’इस समय वृन्दा यह सोच रही थी कि यदि लेखा को हम पकड नहीं पाए तो बम्बई शहर में पहचने पर उस अकेली लड़की का जो बुरा हाल होगा... उसकी कल्पना मात्र से उसके रोएँ सिहर उठे। और घर में बाबूजी का तो हार्ट फेल होना निश्चित ही है। जवान लड़की के घर से भागने पर जो बदनामी होगी उसके कारण समाज में मह दिखलाने के लायक भी नहीं रहेंगे। वह भी अपने ससुराल में कैसे सबका सामना करेगी। यही सब सोच सोचकर उसके आँसू नहीं थम रहे थे। 

वृन्दा की हालत व उसकी बात सुनकर स्टेशन मास्टर ने स्नेह से कहा,  “बिटिया आप धीरज रखो। अभी आपकी बहन को रोक लिया जाएगा। आप नाम बता दो। हम चलती गाड़ी में हर डिब्बे में अनाउन्समेंट करवा देंगें कि इस नाम की लड़की को पहले स्टॉपेज पर ही उतार लिया जाए उनके पिता सीरियस हैं। आप चिन्ता न करो। साढ़े ग्यारह बजे एक पैसेंजर गाड़ी उधर ही जा रही है आप दोनों एक बजे तक वहाँ पहुँच जाओगे। फिर चाहे तो टैक्सी से या किसी और गाड़ी से वापिस आ जाना।” वृन्दा व शुक्लाजी को लगा कि उनकी हर मुश्किल का हल हो गया। भावावेश में वृन्दा ने स्टेशन मास्टर के दोनो हाथों को पकड़कर भीगे नयनों से उनका धन्यवाद किया व लेखा का नाम उन्हें बताया। तभी स्टेशन मास्टर ने अगले स्टेशन के स्टेशन मास्टर से स्म्पर्क स्थापित किया और तत्काल चलती गाड़ी में घोषणा करवा दी। पूरे ग्यारह बजे गाड़ी के वहाँ पहुँचते ही लेखा को वहाँ उतार लिया गया। उसे वहाँ के स्टेशन मास्टर ने अपने ‘ऑफिस’ में ही बैठा लिया। यहाँ खबर मिलते ही दोनों की जान में जान आई। 

आज एक बहुत ही भयानक घटना होने से पहले ही टल गई थी। जिसके अन्जाम सोचकर ही अब वृन्दा की रूह काँप जाती थी। अपनी सूझ बूझ शुक्लाजी का सहयोग और ईश्वरस्वरूप स्टेशन मास्टरजी की मार्गदर्शिता ने उसके परिवार को एक विकट परिस्थिती से बचा लिया था। दोनों ने टिकट लेकर पैसेंजर गाड़ी पकड़ी। मानो कोई विशेष मिशन पर जा रहे हों। समय था कि बीतने को ही नहीं आ रहा था। तभी शुक्लाजी ने कहा,  ‘बेटी आपने आज बेटी होने का हक अदा कर दिया है। यदि आप यहाँ न होतीं तो क्या होता मैं तो इसके आगे सोच ही नहीं पाता ह। धन्य हैं जिज्जी जिन्होंने आपको जन्म दिया। आज के युग में ऐसी घटनाएँ सरे आम हो रही हैं। सारा माहौल ही बिगड़ा हुआ है। लेखा भी पश्चाताप कर रही होगी अवश्य ही। ’ वृन्दा चुपचाप हूँ हाँ करती रही। उसे तो यही लग रहा था कि सफर इतना लम्बा कैसे हो गया। मानो सारी उम्र से वो गाड़ी में बैठी है और गाड़ी है कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। आखीरकार जब गाड़ी आधी रात को प्लेटफार्म पर रुकी तो इक्का दुक्का पैसेंजर वहाँ उतरे जो मजदूर जैसे थे। सामने ही वहाँ के स्टेशन मास्टर इनकी प्रतीक्षा में खड़े थे। उन्होंने मुस्कुराकर इन दोनों का स्वागत किया व अपने ऑफिस में ले गए। वहाँ लेखा सिर झुकाए साड़ी में लिपटी एक कुर्सी पर बैठी थी। दीदी को देखते ही वह रो पड़ी एवम् घबराई सी दीदी की बाँहों में समा गई। ऊपर से नीचे तक उसका सारा बदन काँप रहा था जिसे दीदी ने प्यार से भींच लिया था। उसमें दीदी से नज़रें मिलाने का साहस नहीं था। वृन्दा ने भी उसे ऐसे प्यार किया मानो उसके मृत शरीर में पुनःप्राण संचार होने का करिश्मा हो गया हो। किसी ने भी किसी से कोई बात नहीं की। सबके भीतर का मौन बोल रहा था। और मौन की भाषा सब समझ रहे थे। 

पिछले पहर के सन्नाटे में चोरों की भॉति जब यह लोग घर म घुसे तो अम्मा दरवाजे की ओट में सारे देवी देवता मनातीं... अनिष्ट को टालतीं... आँखों से गंगा जमुना बहातीं राह में पलकें बिछाए बैठीं थीं। लेखा को वापिस आई देख उसे अपनी गोद में खींचकर बेतहाशा उसे प्यार करने लगीं। जैसे उनकी खोई हुई अमूल्य निधी वापिस मिल गई हो। 

रातरि की गहन कालिमा में लेखा के स्वच्छ निर्मल चेहरे पर जो कालिमा पुतने वाली थी वह अगली प्रातःआकाश मंडल में दिवाकर के उदित होने के पूर्व पौ फटते ही ओस से धुली फूल की पंखुड़ी सी पवित्रता लिए थी। घर की यह सुबह भी हर दिन जैसी ही थी। शूल सी चुभती रात्रि की दास्तां अनकही रह गई थी। 
 

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