विडंबना

01-02-2025

विडंबना

नरेंद्र श्रीवास्तव (अंक: 270, फरवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

रोज़ 
सूरज के आने के साथ
शुरू हो जाता है 
जिजीविषा के लिए संघर्ष
 
और 
शुरू हो जाता है
तर्क-कुतर्क का दौर
 
सद्भाव और सौहार्द की बातें
उलझ जाती हैं
 
तर्क तो न्यायसंगत होता है, 
कुतर्क नोच-नोच के खुरच देता है, 
और बहकाकर ले लेता है
अपने आग़ोश में
 
न्याय अचंभित, उम्मीदें व्यथित . . . हताश
 
संघर्ष ज्यों का त्यों 
सतत . . . अनवरत
 
यानी 
कुतर्क भारी पड़ रहा है, 
तर्क निस्तेज। 

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