विडंबना
नरेंद्र श्रीवास्तव
रोज़
सूरज के आने के साथ
शुरू हो जाता है
जिजीविषा के लिए संघर्ष
और
शुरू हो जाता है
तर्क-कुतर्क का दौर
सद्भाव और सौहार्द की बातें
उलझ जाती हैं
तर्क तो न्यायसंगत होता है,
कुतर्क नोच-नोच के खुरच देता है,
और बहकाकर ले लेता है
अपने आग़ोश में
न्याय अचंभित, उम्मीदें व्यथित . . . हताश
संघर्ष ज्यों का त्यों
सतत . . . अनवरत
यानी
कुतर्क भारी पड़ रहा है,
तर्क निस्तेज।
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