राहें और भी
नरेंद्र श्रीवास्तव
“अम्मा! आप फिर आज यहाँ दुकान लगाने लगीं। मैंने कल मना किया था। यहाँ मैं दुकान लगाता हूँ,” फल बेचने वाले ने मिट्टी के दीये बेचने वाली उस बुज़ुर्ग महिला से खिसियाते हुए कहा।
“बेटा! आठ-पन्द्रह दिन की तो बात है। त्योहार बाद तो मैं यहाँ से चली जाऊँगी। यहाँ छाया रहती है इसलिए यहाँ दुकान लगाना चाहती हूँ। वहाँ पूरे दिन धूप में बैठी रहूँगी तो मुझे बहुत परेशानी होगी। आपके पास तो छतरी है बेटा। आपको परेशानी नहीं होगी,” बुज़ुर्ग महिला ने दया-याचना के साथ समझाने की कोशिश की।
वो मैं कुछ नहीं समझने वाला।
“आप . . .” फल वाला उस बुज़ुर्ग महिला से आगे कुछ कहता तभी एक दूसरा सब्ज़ी का ठेला लगाने वाला लड़का बोला, “अम्मा! आप यहाँ दुकान लगा लीजिए। यहाँ भी छाया है। मैं कहीं दूसरी जगह दुकान लगा लूँगा।”
“पर बेटा, तेरे पास तो छतरी नहीं है। तुम धूप में रहोगे तो तुम्हें भी तो परेशानी होगी,” बुज़ुर्ग महिला बोली।
“अम्मा! मेरी चिंता छोड़ो। मैं अभी 22 साल का लड़का हूँ। मुझे कोई परेशानी नहीं होगी और फिर आठ-पन्द्रह दिन की ही तो बात है। त्योहार बाद मैं फिर अपना सब्ज़ी का ठेला वहीं लगाने लगूँगा,” सब्ज़ी बेचने वाला वह लड़का बोला।
“जीते रहो बेटा। भगवान भला करे,” कहकर वह बुज़ुर्ग महिला अपनी दुकान समेटने लगी।
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