राजनीति के प्रपंच

01-12-2024

राजनीति के प्रपंच

नरेंद्र श्रीवास्तव (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

अंतरिक्ष में पत्नी के साथ विचरण करते हुए प्रभो बोले, “प्रिये, आओ तुम्हें भू लोक में भारतवर्ष के उस राज्य में ले चलते हैं जहाँ चुनावी माहौल है।”

“मैं भी आपसे यही कहने वाली थी, अंतर्यामी।”

कहने की देर थी, भगवन गंतव्य पर पहुँच गये। 

“ये क्या प्रभो, अभी तो आपका कोई त्योहार नहीं है। फिर ये जुलूस?”

“प्रिये, ये मेरा नहीं। चुनावी जुलूस है। ये जो खुली कार में माला से लदे हैं। ये नेताजी हैं। अभी प्रत्याशी हैं और इनके आगे-आगे जो नाच-कूद रहा है और नेताजी का ख़ासमख़ास बन रहा है। यही इन नेताजी को पटखनी देने वाला है। 

“और प्रिये, वो पार्क के उस तरफ़ भीड़ देख रही हो, वह दूसरे दल का जुलूस निकल रहा है। वहाँ भी ऐसा ही नाच हो रहा है। 

“दोनों जुलूस में नाच कूद मचाने वाले कार रूपी रथ में बैठे नेताजी के ख़ासमख़ास होने का स्वाँग कर रहे हैं।”

“यह क्या स्वामी, वह नाचने वाला तो मोबाइल से बात करते हुए कहाँ चला गया?”

“प्रिये, उसे कोई बड़ा ऑफ़र मिला है, इसीलिए वह दूसरे दल में चला गया है। पर, देखती चलो। अभी पिक्चर बाक़ी है।”

“अरे, एक नाचने वाला गया तो यहाँ तो दो नाचने वाले आ गये और पहले वाले से ज़्यादा ज़ोर-शोर से नाच रहे हैं।”

“ये दोनों नाचने वाले उस दल के हैं, जहाँ वह पहले वाला नाचनेवाला गया है।”

“प्रिये, ये दोनों नाचने वाले बार-बार अपना मोबाइल क्यों देख रहे हैं?”

“कहीं से फोन आ रहा है, जिनसे ये बात नहीं करना चाहते।”

“अरे, ये दो पुलिसवाले आकर अपने मोबाइल से दोनों की बात कराने लगे।”

“ऐसा तो होना ही था। फोन लगाने वाले नेता का कोई फोन न उठाये तो दमदार सहारा लेना ही पड़ता है।”

“अब क्या होगा? मेरा रोमांच बढ़ता ही जा रहा है।”

“देखो, ये नाचने वालों की संख्या तो बढ़ती जा रही है।”

“अब वे दोनों नाचने वाले इन सभी नाचने वालों को लेकर उस कार रूपी रथ पर सवार नेताजी के कान में जाकर कुछ कहेंगे। नेताजी यह सुनकर अपने कुरते की जेब से एक काग़ज़ निकालकर उसे सौपेंगे और रथ से उतर जायेंगे। वह काग़ज़ असल में नेताजी का त्याग पत्र होगा। यानी कि अब उन्होंने त्याग पत्र दे दिया है और अब जिसने वह त्याग पत्र नेताजी से लिया था, वह रथ पर सवार हो जायेगा और वो नेताजी वहाँ से कहीं अज्ञात स्थल की ओर निकल जायेंगे।”

. . . ठीक ऐसा ही हुआ। 

अरे एक और चमत्कार। 

वो दूसरा जुलूस भी इसी जुलूस में आकर मिल गया। वाह! 

“बस प्रभो! अब मुझे यहाँ रोमांच नहीं, घुटन हो रही है। शीघ्र यहाँ से ले चलो। ऐसे तो सूखे पत्ते भी नहीं गिरते। जितना ये . . .”

और प्रभुजी वहाँ से वापस हो गये। 

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