चाहत की तक़दीर निराली
नरेंद्र श्रीवास्तवदिल, दिमाग़, आँखों में चाहत, क़िस्मत की पर है मजबूरी।
पूरी होती चाह कहीं पे, कहीं नहीं, तो कहीं अधूरी॥
मिलन ख़ुशी लगती पूनम-सी,
विरह वेदना लगे अमावस।
दूरी तपती जेठ मास-सी,
मिलन लगे जैसे ऋतु पावस॥
मिलने का उल्लास बसंती, है बिछोह की चुभन ततूरी।
जीवन है अनमोल भले ही,
चाहत की तक़दीर निराली।
कहीं मिलन की ख़ुशियाँ बरसें,
कहीं विरह से जीवन ख़ाली॥
कहींं शाम अँसुवन से भीगी, कहीं शाम दमके सिंदूरी।
काश कि ऐसा करता रब ये,
हर दिल के अरमान चहकते।
गीत गूँजते चहूँ मिलन के,
नहीं विरह से ख़्वाब दहकते॥
नहीं रात नागिन-सी लगती, खलती न साँसों से दूरी।
फूल और कलियाँ बाग़ों की,
आसमान के चाँद-सितारे।
सावन की बूँदें मस्तानी,
फागुन के रंगमय नज़ारे॥
करो कामना मिलकर सब ये, सबकी चाहत भी हो पूरी।
नहीं प्यार में तड़प कहीं हो, रहे कहानी नहीं अधूरी॥
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