अपने वो पास नहीं हैं

15-07-2022

अपने वो पास नहीं हैं

नरेंद्र श्रीवास्तव (अंक: 209, जुलाई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

घर, आँगन, गलियाँ, चौबारा, वैसे ही हैं आज भले। 
पर अपने वो पास नहीं हैं, जिन गोदी में बढ़े-पले॥
 
बाबूजी, अम्मा के बिन अब, 
सूना-सूना घर पाते। 
दादी, दादा, बुआ, ताऊ, 
यादों में आ तड़पाते॥
लाड़ करें वो डाँटें-डपटें, रह-रह उनकी याद खले। 
 
नहीं पड़ोसी अम्मा दिखती, 
न छोटू के दद्दू जी। 
आतीं नज़र न फुल्लो बुआ, 
न नफीस के अब्बू जी॥
नहीं बताशे वाला कल्लू, दिखे न नत्थू हाथ मले। 
 
नहीं खेलता कंचे कोई, 
न पिट्ठू, न नदी-पहाड़। 
भूले लँगड़ी, लुक्का-छिपी, 
खेल चोर-पुलिस, व्यापार॥
होती न चौपड़ अब दिनभर, न गिल्ली-डंडा नीम तले। 
 
मामा, मौसा, चाचा, ताऊ, 
दादा, नाना, बब्बा जी। 
सब देते थे रुपये मुझको, 
भरता मेरा डब्बा जी॥
मैं रुपए दूँ बच्चों को अब, वैसा ही ये रूप ढले। 
 
आया दौर समय का ऐसा, 
मैं भी हुआ सयाना हूँ। 
मेरे भी थे दादा, नाना, 
मैं अब दादा, नाना हूँ॥
उँगली थामे चला कभी मैं, अब बच्चों की थाम चले। 
 
चंदा-सूरज, धरती-अंबर, 
वैसे ही, पहले जैसे। 
बस चेहरे ही बदल गये हैं, 
कैसे थे, अब हैं कैसे॥
समय चलेगा इसी गति से, बाक़ी सब बदले-बदले। 
पर, अपने वो पास नहीं हैं, जिन गोदी में बढ़े-पले॥

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