पूर्णिका

01-03-2024

पूर्णिका

नरेंद्र श्रीवास्तव (अंक: 248, मार्च प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

शायद . . . 
ये जो तुम सब कह लेते हो। 
शायद सब कुछ सह लेते हो॥
 
दुनिया जैसे बन कर वैसे। 
तुम धारा में बह लेते हो॥
 
बाहर चाहे हँस-बतिया लो। 
भीतर ग़म में रह लेते हो॥
 
दुखियों के दुख सुन के दौड़ो। 
झट से बाँहें गह लेते हो॥
 
औरों के सपनों के ख़ातिर। 
ख़ुद के सपने ढह देते हो॥

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