तय है

नरेंद्र श्रीवास्तव (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

(पूर्णिका)

 

 झूठ का विस्तार हुआ है। 
सच ज़्यादा लाचार हुआ है॥
 
झूठ, झूठ की सीमा लाँघे। 
सच ही तार-तार हुआ है॥
 
झूठ चतुर है बहकाने में। 
सच पे अत्याचार हुआ है॥
 
बात बनाए झूठ चीख के। 
सच पर जम के वार हुआ है॥
 
झूठ सदा सिर चढ़ के बोले। 
सच घायल कई बार हुआ है॥
 
तय है बेड़ा ग़र्क़ झूठ का। 
सच का बेड़ा पार हुआ है॥

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