संप्रति हिंदी साहित्यकार: सृजन, संघर्ष और अस्मिता का त्रिकोण

15-12-2025

संप्रति हिंदी साहित्यकार: सृजन, संघर्ष और अस्मिता का त्रिकोण

शैलेन्द्र चौहान (अंक: 290, दिसंबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

 

हिंदी साहित्य का इतिहास बड़े गौरव, संघर्ष और वैचारिक ऊर्जा के साथ निर्मित हुआ है। कबीर, मीरा, भारतेंदु, निराला, प्रेमचंद, नागार्जुन, मुक्तिबोध, अज्ञेय, त्रिलोचन, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, अमरकांत, शैलेश मटियानी, विजेंद्र, ऋतुराज, संजीव, केदारनाथ अग्रवाल जैसे वरिष्ठ रचनाकारों ने जिस परंपरा को समृद्ध किया, वह आदर्शतः साहित्यिक गरिमा और सामाजिक संवेदना का वाहक रही है। लेकिन इसी चमकदार परंपरा के नीचे एक ऐसा अँधेरा कोना भी है जिसमें आज का सक्रिय हिंदी साहित्यकार अपने अस्तित्व, सम्मान, प्रकाशन और प्रतिष्‍ठा की लड़ाई लड़ रहा है। 

आज का हिंदी रचनाकार—विशेषकर आम, ग़ैर-प्रायोजित, ग़ैर-सत्ता-सान्निध्य वाला—अपने सृजन की यात्रा में जितना मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक श्रम देता है, उतना ही सामाजिक और संस्थागत उपेक्षा का पात्र भी बनता जा रहा है। उसकी स्थिति कई बार इतनी दयनीय और हास्यास्पद हो जाती है कि उसे अपने ही लेखन के प्रचार और स्वीकृति के लिए हर क़दम पर संघर्ष करना पड़ता है। यहीं से उभरती है वह चुभनभरी व्यंग्यात्मक अनुभूति—“बेचारा हिंदी साहित्यकार”—जो केवल किसी व्यक्ति-विशेष का नहीं, बल्कि समूचे हिंदी साहित्यिक ढाँचे का आईना है। 

सृजन का पहला संघर्ष: प्रकाशन तक पहुँचने की जद्दोजेहद:

हिंदी लेखक अक्सर अपने सृजन से अधिक ऊर्जा पत्रिकाओं के संपादकों को मनाने में ख़र्च कर देता है। आज भी अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के संपादकीय द्वार सामान्य लेखकों के लिए लगभग बंद हैं। नए या अपरिचित लेखक को यह बार-बार सुनने को मिलता है—

  • “आपकी रचना विचाराधीन है . . .” 

  • “अगले अंक की योजना बन चुकी है . . .” 

  • “अच्छी है, पर पत्रिका की थीम में फ़िट नहीं बैठती . . .” 

आख़िरकार, लेखक महीनों प्रतीक्षा करता है, कभी उत्तर मिलता है, कभी नहीं। कई संपादक पक्षपात, मित्र-मंडलीवाद, गुटबंदी या वैचारिक संकीर्णता के आधार पर ही चयन करते हैं। 

लेखक के लिए यह प्रारंभिक चरण ही पहला हतोत्साह है—जहाँ उसका आत्मविश्वास टूटने लगता है। हालाँकि सोशल मीडिया अब परम सहायक बनकर उभरा है। वहाँ सब कुछ त्वरित है। पर बुनियादी समस्या का समाधान वहाँ नहीं है। 

पुस्तक प्रकाशन—जेब काटकर अपनी ही “सांस्कृतिक पूंजी” बनाना:

आज भी हिंदी के अधिकांश लेखक स्व-वित्त पोषित प्रकाशन के लिए विवश हैं। प्रकाशक को पांडुलिपि देने का अर्थ है—प्रकाशन शुल्क, प्रिंटिंग लागत, डिज़ाइनिंग का ख़र्च, कवर और प्रूफरीडिंग का शुल्क (प्रूफ़ रीडर कम ही मिलते हैं। यह कर्म भी लेखक को स्वयं ही करना होता है)। 

कई लेखक अपनी मासिक आय का बड़ा हिस्सा या वर्षों की जमा पूँजी इस उम्मीद में ख़र्च करते हैं कि उनकी किताब प्रकाशित होने के बाद उन्हें साहित्यिक पहचान मिलेगी। दुखद यह है कि पुस्तक छप जाने के बाद भी उसकी वितरण व्यवस्था, प्रचार, बिक्री जैसे बुनियादी कार्य अक्सर लेखक को ही करने पड़ते हैं। 

साहित्यिक बाज़ार में लेखक का स्थान उपभोक्ता या ग्राहक जैसा हो गया है—जहाँ वह अपनी ही रचना के लिए पैसे देकर “उत्पादक” भी है और “ख़रीदार” भी। 

लोकार्पण का तमाशा—सम्मान से अधिक औपचारिकता:

किताब लोकार्पण हिंदी साहित्य का एक ‘संस्कार’ बन चुका है, पर इसकी रूपरेखा अक्सर दुखद और व्यंग्यात्मक होती है। लेखक को—सभागार बुक करना पड़ता है, अतिथियों को बुलाना पड़ता है, जलपान की व्यवस्था करनी पड़ती है, मंच-प्रबंध स्वयं देखना पड़ता है। इसके अलावा पुस्तक पर बोलने वालों का इंतज़ाम भी लेखक को ही करना होता है। 

लोकार्पण का यह उद्योग अब ऐसी स्थिति में पहुँच गया है जहाँ साहित्य की जगह समारोह ने ले ली है। लेखक को अपने ही आयोजन में आयोजक, वित्तकर्ता और कभी-कभी स्वयं दर्शक भी बनना पड़ता है। यह पूरा तंत्र लेखक को यह एहसास कराता है कि सम्मान भी ख़रीदना पड़ता है। 

समीक्षा के लिए गिड़गिड़ाना—भारी अस्मिताहीनता का क्षण:

सबसे पीड़ादायक स्थिति तब आती है जब लेखक अपनी ही पुस्तक पर समीक्षात्मक टिप्पणियों के लिए आलोचकों, वरिष्ठ लेखकों, संपादकों के आगे गिड़गिड़ाता है। 

हिंदी दुनिया में समीक्षा की राजनीति अत्यंत जटिल है—आलोचक बिना स्वार्थ के शायद ही कुछ लिखते हैं। समीक्षा ‘मित्रता’ आधारित होती है। आलोचक-पत्रकारों का एक सर्कल तय करता है कि किस पुस्तक पर लिखा जाना है। युवा और सीधे-सादे लेखक की पुस्तक को अक्सर “इग्नोर” किया जाता है। समीक्षा के लिए प्रतीक्षा कई-कई वर्षों तक चलती है। 

कई बार तो लेखक को यह भी सहना पड़ता है कि आलोचक कहते हैं—

  • “अभी समय कहाँ है . . .” 

  • “आपने इतना आग्रह क्यों किया . . .” 

  • “हम ख़ुद कहेंगे तो लोग कहेंगे कि तुम पैसे देकर लिखवा रहे हो . . .” 

लेखक यह सब सुनते हुए केवल इसलिए स्वयं को निचोड़ता है ताकि उसकी किताब पर दो शब्द छप जाएँ, और उसे ‘उपस्थिति’ का एहसास मिले। 

संपादकों के निहोरे—स्वीकृति का विनयशील आतंक:

पत्रिकाओं के संपादकों के पास समीक्षा भेजना अपने आप में एक अलग परीक्षा है। संपादक समीक्षा प्रकाशित करने से पहले यह देखते हैं कि लेखक किस धड़े में है, किस वैचारिक समूह से जुड़ा है, किसने उसकी किताब का सुझाव दिया, समीक्षा करने वाला व्यक्ति किसे मानता है। 

यहाँ समीक्षा का मूल्य अक्सर रचना-आधारित नहीं, बल्कि साहित्यिक शक्ति-संतुलन से तय होता है। 

लेखक इस संतुलन में स्वयं को सर्वाधिक कमज़ोर पाता है और उसे लगता है कि वह एक अनंत विनम्रता की ग़ुलामी में फँस गया है। 

अंत में—सबसे बड़ा व्यंग्य: “क्या आप मर गए हैं?”: 

समीक्षाएँ, टिप्पणियाँ, लोकार्पण, पत्रिका-संपर्क, प्रकाशन से जूझते हुए जब लेखक अपने ऊपर लिखने का आग्रह करता है, तो उसके हिस्से में यह करारी चोट भी आ सकती है—

“क्या स्वर्गवासी हो गए हो, जो अपने ऊपर लिखवाने की इतनी चिंता है?” 

यह वाक्य केवल एक हास्य-व्यंग्य नहीं, बल्कि हिंदी साहित्यिक संरचना की क्रूरता है। 

जैसे कहना चाह रहा हो—

“जीवित लेखक का महत्त्व नहीं। मृत्यु के बाद ही तुम्हारी रचना बड़ी बन सकती है।” 

यह मानसिकता हिंदी साहित्य में गहरे धँसे उस मूल्य-संकट को दर्शाती है जहाँ—जीवित रचनाकार का महत्त्व कम, मृत लेखक का मूल्य अधिक, विचारों से अधिक “यश” की राजनीति, लेखन से अधिक “छवि” की प्राथमिकता। 

समस्या केवल लेखक की नहीं—पूरा तंत्र बीमार है:

इस स्थिति के लिए अकेले लेखक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। पूरा हिंदी साहित्यिक तंत्र एक गहरे संरचनात्मक संकट से गुज़र रहा है—

प्रकाशन संस्थानों की नीतियाँ: व्यावसायिकता और साहित्यिक मूल्य का संतुलन बिगड़ चुका है। गुणवत्ता की जगह नेटवर्क और लाभ-क्षति प्रमुख हो गए हैं। 

पत्रिका संस्कृति का संकुचन: पहले अनेक सारगर्भित पत्रिकाएँ थीं; आज वे निजी धड़ों का मंच बन गई हैं। निष्पक्ष संपादन लगभग समाप्त हो चुका है। 

आलोचना की निष्पक्षता का अभाव: समीक्षा-लेखन अब वस्तुनिष्ठ न होकर “गुटों का विस्तार” बन चुका है। 

सामाजिक सम्मान का अवमूल्यन: साहित्यकार सामाजिक रूप से सम्मानित नहीं रह गया। उसकी आर्थिक स्थिति भी लगातार कमज़ोर हुई है। 

यह पूरा तंत्र लेखक में कई तरह की अंतर्द्वंद्व, स्थितियाँ पैदा करता है—आत्मसम्मान का क्षरण, अपनी रचना के प्रति असुरक्षा, मूल्यांकन के अभाव में अवसाद, सृजन की ऊर्जा का क्षय समाज और पाठकों से दूरी। 

विडंबना यह है कि लेखक अब सृजनकर्ता भी है और ‘स्वयं अपना प्रचारक’ भी। यह दोहरी भूमिका लेखक की सृजनात्मकता नष्ट कर देती है और उसे चाटुकारिता और अवसरवाद में दीक्षित होने की ओर धकेल देती है। 

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