शर्माजी ने अपने बेटे महीप के लिये 500/- में एक क्रिकेट का बल्ला ख़रीदा और दुकान से बाहर निकलकर थोड़ी दूर जाकर अपने मित्र वर्माजी का इंतज़ार करने लगे।
तभी उन्होंने देखा कि बारह-तेरह साल के दो बच्चे स्कूल की यूनीफ़ॉर्म पहने पीठ पर बस्ता टाँगे साईकिल से आये और उनमें से एक बच्चे ने साईकिल वहीं खड़ी की और साथी से बोला, वीनू, मैं अभी आया।" यह कहकर वह दौड़ के पान की दुकान पर गया और जल्दी से गुटखा लेकर वापिस आ गया। फिर वहीं खड़े होकर गुटखा खाने लगा। खाते-खाते बाक़ी बचा गुटखा वह साथी को देते हुये बोला, "ले वीनू , तू भी खा ले।"
वीनू ने बुरा मुँह बनाया और झट से बोला, "मैं नहीं खाता गुटखा। ये बहुत नुक़सानदायक होता है । इससे पेट, गला और मुँह ख़राब हो जाते हैं। कैंसर भी हो सकता है। मेरी बात मान लो तुम भी नहीं खाया करो।"
उसका साथी चुपचाप सुनता रहता है।
"शाबाश बेटा! तुम बहुत ही समझदार बच्चे हो। गुटखा कभी नहीं खाना चाहिये। तुम्हारी इस समझदारी के लिये मेरी तरफ़ से ये ईनाम," कहते हुये शर्माजी ने उनके बेटा के लिये जो अभी-अभी बल्ला ख़रीदा था, वह वीनू को दे दिया।
फिर गुटखा खाने वाले बच्चे को समझाते हुये बोले, "बेटा, मैं भी तुमसे यही कहूँगा कि गुटखा मत खाया करो। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत... बहुत... बहुत ही हानिकारक होता है।"
"जी, अंकल जी, ग़लती हुई। अब कभी नहीं खाऊँगा," वह बच्चा माफ़ी माँगते हुये बोला।
तभी वर्माजी आ गये। वीनू पर नज़र पड़ी तो उससे बोले, "बेटा! यहाँ क्या कर रहे हो? ये बल्ला किसका है?"
"पापा! मैं घर ही जा रहा हूँ।"
"और ये बल्ला?" उन्होंने फिर पूछा।
"मैं गुटखा नहीं खाता। ये जानकर इन अंकलजी ने मुझे अभी-अभी ईनाम में दिया है," वीनू बोला।
शर्मा जी ख़ुशी ज़ाहिर करते हुये वर्माजी से बोले, "आपका बच्चा तो बहुत समझदार है। गुटखा नहीं खाता।" फिर तनिक रुककर बोले, "चलो, पहले मेरे बेटा के लिये दूसरा बल्ला ले लें। वह भी गुटखा नहीं खाता। फिर बातचीत करते हैं।"
"आपके बच्चे के लिये बल्ला मेरी तरफ़ से। वह भी तो गुटखा नहीं खाता, इसीलिये,"- वर्माजी मुस्कुराये और शर्माजी के साथ दुकान की ओर बढ़ गये।