ज़ख़्मी कविता! 

01-12-2023

ज़ख़्मी कविता! 

डॉ. आरती स्मित (अंक: 242, दिसंबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

ख़ून सनी
ज़ख़्मी कविता! 
कब तक
मांस का लोथड़ा
बटोरती रहोगी
और
गिनती रहोगी
अमानवीयता के चिह्न? 
 
धरती के आँसू
रेत बन चुके हैं
 
तुमने देखा नहीं
रेत की बोली लगाते
वे सौदागर
वे ही सौदागर
अभी अभी बैठे थे
झक सफ़ेद गुलाब लिए
बरसाए थे काग़ज़ी फूल
शब्दों के
जो उनके नहीं थे
 
वे हाथ उनके हैं
विनाश लिखते उनके हाथ
बटन दबाते उनके हाथ . . . 
वे हाथ
छीन लेते हैं बचपन
छीन लेते हैं साया पीपल का
छीन लेते हैं आँचल
घर का
कर देते हैं सूराख़
बारूदी धुएँ से घुटते
नीले आकाश के सीने में
 
वे हाथ
ताली बजाते हैं
चुटकी बजाते हैं
उँगली दिखाते हैं
सिहर उठती है
धरती की बची-खुची देह
और
सिर झुकाए खड़े रहते हैं
 
जुड़े हुए कमज़ोर हाथ
सोचते हुए
शक्तिशाली होने की तरक़ीब . . .। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
पत्र
कविता
ऐतिहासिक
स्मृति लेख
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कहानी
किशोर साहित्य नाटक
सामाजिक आलेख
गीत-नवगीत
पुस्तक समीक्षा
अनूदित कविता
शोध निबन्ध
लघुकथा
यात्रा-संस्मरण
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में