तलाश

डॉ. आरती स्मित (अंक: 198, फरवरी प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

’अजीब-सा सन्नाटा! सन्नाटे में घुटती हुई कई आवाज़ें! कौन है? कौन है वहाँ? . . . आधी रात को उठता धुएँ का गुबार! उधर तो मज़दूर बस्ती है। कहीं आग तो नहीं लगी? . . . ये घुन-सुन कैसी? कुछ आवाज़ें भी! देखूँ क्या? मगर इस धुप्प अँधेरे और निगल जानेवाली नीरवता में क्या दिखेगा–मिलेगा भला? मगर वे सिसकियाँ और जूतों की आवाज़!!” 

वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। कल भी वह यों ही चौंक कर जगी थी और आज भी। ‘ . . . आज को किस समय में बाँधू?’ उसने मोबाइल उठाकर समय देखा—3 एएम . . . 2 अक्टूबर! ‘हो सकता है लोग कल के जश्न की तैयारी में लगे होंगे। मैं नाहक ही . . . ’ सोचती हुई वह देर तक यों ही बैठी रही। अलसाई-सी। देर तक बाहर की ओर कान लगाए रखने के बाद भी जब कोई आवाज़ सुनाई नहीं पड़ी तो उसे पक्का विश्वास हो गया कि सपना ही होगा। टेबुल पर पड़े शीशे की बोतल से गट-गट कर पानी मुँह के भीतर उड़ेल लिया और लेट गई। 

खों-खों कर खाँसती हुई वह फिर उठ बैठी। कमरा धुएँ से भरा था। विषैला धुआँ! वह बाहर की तरफ़ भागी। लॉन की तरफ़। घुप्प अँधेरे में भी दूर कुछ चमक रहा था। चिंगारी है या लपट? ज़रूर मज़दूर बस्ती में ही आग लगी है। रेलवे लाइन की बग़ल की मिट्टी पर कपड़ों का वितान ताने कमरे बना लिए हैं उन लोगों ने, आग धधकने में भला क्या समय लगेगा? मगर आग लगी कैसे होगी? कहीं पूरी बस्ती जलाकर ख़त्म करने का इरादा तो नहीं? समय के रंग-ढंग ठीक नहीं! वह इलाक़ा भी तो ऐसे हाथ में गया, जो ग़रीबी नहीं, ग़रीब को ही दीवार में चुनवा दे। बेचारे वर्ग और वर्ण . . . दोनों की मार सह रहे! . . . आग की लपट-सी वह आकृति? . . . क्या किसी का शव फूँका गया! मगर रात को तो मुरदे जलाए नहीं जाते . . . और उतनी दूर उठता धुआँ मेरे कमरे में कैसे?’ वह अभी ठीक से सोच भी नहीं पा रही थी कि किसी के चलने की आहट पाकर चौकन्नी गई। ‘कोई आ रहा है! कौन होगा? इतनी रात गए इधर क्या करने आया होगा? कहीं उसे पता तो नहीं चल गया कि मैं अकेली हूँ घर में! हे राम!’ 

परछाईं बस्ती की तरफ़ से आती हुई लॉन के सामने वाली सड़क से गुज़रती हुई आगे बढ़ गई। बस्ती अब धुएँ में डूबी थी। ‘आग बुझ चुकी शायद! बस्तीवाले सही-सलामत बचे भी या नहीं, सुबह पता करूँगी। मगर वह परछाईं! चौकीदार तो नहीं था। पुलिसवाला भी नहीं! क्या करूँ? पुलिस को फ़ोन लगाऊँ? हो सकता है आगजनी के मामले में उस परछाईं का कोई हाथ हो! . . . वरना इतनी रात गए उधर कोई क्यों जाएगा और इतनी तेज़ी से क्यों लौटेगा! एक तरफ़ रेलवे लाइन है दूसरी तरफ़ बस्ती!’ 

मुझे यक़ीन नहीं हो रहा, मैं सड़क पर बढ़ी जा रही हूँ। घंटे भर पहले इस तरफ़ शोले उठ रहे थे। अब भी अँधेरा पसरा है! यह तो बस्ती के नज़दीक जाकर ही पता चलेगा कि क्या हुआ? ’परछाईं हवा में उड़ती-सी जाने कहाँ लोप हो गई!’ उसका मन दहला। ‘सुबह होने को है, फिर भी सड़क विधवा की सूनी माँग में मली गई राख की तरह नीरव और स्याह है। जाने क्या हुआ होगा वहाँ? ज़रूर उसका हाथ होगा, जिसकी परछाईं देखी थी। काश! देख पाती तो रोहित से बताती भी . . . नहीं रोहित से नहीं!’ उसने सोच को लगाम दी और क़दम की गति बढ़ा दी। 

“दीदी! बच गए हम सब! लेकिन न खाने को कुछ बचा, न पहनने को। हम उजड़ गए दीदी! गैस सिलेंडर भी फट गया। हम बच गए . . .” पूनम अपने चारों बच्चों को आग़ोश में समेटे बिलखती रही। 

पूनम का आशियाना अब मलबे का ढेर था। 

“सुनील देर रात ड्यूटी से लौटा। खाया-पिया। सोते–सोते दो बज गए। कभी ऐसा नहीं हुआ कि पूरी बस्ती बेसुध हो जाए,” पूनम का विलाप ज़ारी रहा। 

“हमरा परिवार तो खुल्ले में सोता है। हम भी बेहोशी के नींद में रहे। पूनम के झोपड़ा के पीछे से आग दहका बेटी,” रुकमी काकी ने बात आगे बढ़ाई। 

रुकमी काकी वहीं, बस्ती के बाहर अंडा बेचती है। खेलगाँव से लौटते हुए वह गाहे-ब-गाहे उससे ढेर सारे उबले अंडे ख़रीद लिया करती और बस्ती के बच्चों को ही खिला दिया करती थी, कभी घर से कुछ ले जाती। इसलिए सभी उससे हिले-मिले थे। आज दुख की घड़ी में उसे सामने पाकर सबकी पीड़ा बह निकली। 

“ई काम जान-बूझ कर किया गया। उसका झोपड़ा के पीछे लौकता नहीं है रात को,” देवराम सिर पर हाथ धरे कहता रहा। 

“कय दिन से बाबू लोग यहाँ खाली कराने का बात कहे रहे थे। हम कहाँ जाएँ? एक त कोरोना का मार है। रिक्शा चला कर दू ठो पैसा कमाते थे तो बाल-बच्चा एक शाम भर पेट खाता था। भला हो झाड़ू वाले सरकार का जो बंदी में दोनों बखत खाना दिया, मगर उ त देखने नइ आता है न कि उससे खिलाने का ठेका लिया आदमी हमको भर पेट खाना देता भी है कि नइ।” 

“हाँ, अब सरकार के एतने काम बा कि बस्तिये बस्ती लौकते फिरे। अरे, ऊ त ओतनो किए रह, हमनी जेकरा भोट देके जिताइल बानी, ऊ झांकबो नइ कर लस,” लाजवंती एक साथ कई बोली के शब्द मिलाकर आदतन बीच में टोक पड़ी। 

“देवंती कहाँ है?” 

“ऊ त घर गई है। बेटा है यहीं, हमरे पास। ओकर भी नौकरी छूट गया। उप्पर से आग रहा-सहा कसर पूरा कर दिया। अब कैसे क्या होगा?” रुमीला अटक-अटक कर बोली। 

उसने आग की चपेट में आई बस्ती पर गहरी नज़र डाली, फिर सामने खड़े रैन बसेरा की ओर ताका। 

“यहाँ कोई नहीं रहता?” 

“केयर टेकर है दीदी! लोग भी आते हैं, बीच-बीच में। लेकिन जो बड़ा लोग लिया है न, क्या त बोलता है . . . एनजीओ वाला मालिक हम लोग को भीतर ढुकने से मना किया है,” चहकती ममता का स्वर आज ठंडा पड़ा था। 

“ओह! इस आगजनी की पुलिस को सूचना दी?” 

“जाएँगे ई मरद लोग! लेकिन दीदी! बिना पेट मिलले कोय आग लगा सकता है क्या? दस बरस से इहे जगह पर हैं, कभियो कोय घटना नइ घटा। अब त रोज कुछ न कुछ। कोय नइ सोचता है, ई गरीब कहाँ जाएगा, कैसे जिएगा?” 

“मेरे साथ चलो, कुछ खाने-पीने को दे दूँ। बाद में फिर देखते हैं, क्या हो सकता है!” उसने लाजवंती की तरफ़ देखकर कहा। 

“दीदी! आपका मालिक भी त पुलिसवाला है। उनसे कहिए न!” 

“मालिक?” 

“ओ घरवाला दीदी!” ममता ने अर्थ का ख़ुलासा किया तो वह हँसे बिना नहीं रह सकी। 

“मेरे घरवाले का इस इलाक़े में ड्यूटी नहीं है। बिना परमिशन कोई किसी के इलाक़े की छानबीन नहीं कर सकता। फिर भी कहूँगी। तुम लोग चिंता मत करो,” आश्वासन देते हुए स्वर काँपे। रोहित से बस्ती वालों की मदद के लिए कहना तो दूर, यह बताने से भी मन हिचकता रहा कि यहाँ आने की बात भी बताई जाए या नहीं। कैसे शाहीन बाग़ और सिंघु बॉर्डर पर जाने से रोक दिया। पुलिसवाले की बीबी है तो क्या ऐसे किसी जगह पर वह जा नहीं सकती, जहाँ जनता दुख में हो या विरोध प्रदर्शन कर रही हो! यह कैसी विवशता है उसकी और कैसी विडंबना! रोहित से प्रेम विवाह इसलिए तो नहीं किया था कि उसकी नौकरी के कारण अपने ज़मीर की न सुने। वह पलटी और चल पड़ी। पीछे-पीछे ममता भी। 
 
‘ये टीवी चैनल्स! बिकाऊ मीडिया! इनसे उम्मीद ही क्या की जा सकती है! कैसे रात की घटना को मसाला दे-देकर ढीठ और दलाल, पक्ष और विपक्ष अपने-अपने रंग देकर नागरिकों तक पहुँचाते नज़र आ रहे। रोहित को बताऊँ, मैंने भी रात के तीसरे पहर देखा था सब . . . देखी थी बस्ती आग की लपटों में बदलते और . . . अच्छा! तो यह दूसरी घटना है। कल रात की ही दुर्घटना! चिता बेचारी लड़की की थी।’ मीडिया ने दलित लड़की के बे-आबरू होने, उसकी हत्या और आगजनी की चर्चा तो ज़ोर-शोर से की, मगर मीडिया ने ऐसी ही दूसरी घटना पर ज़ुबान क्यों सिल ली है? उसने मज़दूर बस्ती जलाए जाने की चर्चा क्यों नहीं की? दोनों दो दिशा की घटना एक साथ एक समय में! अजीब इत्तिफ़ाक़ कि मैं बस्ती का दर्द झेल आई हूँ, मगर शायद सत्ता और मीडिया के लिए ऐसी दुर्घटना मामूली है। क्या मालूम ये लोग उसे ही जेल में डाल दें जो सच और शक ज़ाहिर करना चाहे, जैसे कि बेगुनाह पत्रकारों और समाजसेवियों को डाला। रोहित भी तो उनके हाथों कठपुतली बना है। क्या इसी समय के लिए पुलिस की नौकरी की थी कि अफ़सर और नेताओं के इशारे पर नाचते रहो। नहीं! उससे कुछ भी नहीं कह सकती। वह ख़ुद ही खीझा रहता है आजकल। मन जाने कैसा-कैसा होने लगा है! हे प्रभु!’ 

“क्या हुआ? तबियत ठीक नहीं?” रोहित ने टोका। 

“रात नींद नहीं आई तो ज़रा सिर दर्द है।” 

“कल की रात मेरे लिए भी बहुत भारी थी रेशमा!” 

“क्या हुआ?” 

“सुन नहीं रही इन सालों की बहस! वैसे ये कमीने पूरा सच बोलते ही कब हैं! न बोलते हैं, न बोलने देते हैं। अड़ जाओ तो सिर्फ़ नौकरी ही नहीं छीनते, और भी बहुत कुछ . . .” अपनी रौ में बोलता रोहित एकाएक चुप हो गया। 

“क्या बात है? अगर बताना चाहो तो . . .” उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया। 

“लड़की दलित जाति की थी। वहशी छोकरे ऊँची नाक वाले। रौंदा तो रौंदा, ज़ुबान तक काट दी। जाने भीतरी बात क्या है? मगर तन और मन का दर्द झेलती वह बच्ची आधी रात को चल बसी . . . और आधी रात को फ़रमान ज़ारी हुआ कि लाश को परिजन को न दिया जाए। उसे पुलिस ही ठिकाने लगा दे . . . मेरा शरीर काँप रहा है। आत्मा चीत्कार कर रही है। उस . . . उस लाश को पेट्रोल से जलाया गया। जहाँ परिजन के हाथों मुखाग्नि होनी थी, वहाँ पुलिस के हाथों अपमान भरी विदाई हुई। मैंने यह ख़ाकी वर्दी इसलिए नहीं पहनी थी कि अवाम को ख़ाकी वर्दी से डर लगे। वह हमें सत्ता का कुत्ता समझें। दुम हिलाने वाले कुत्ते! कभी गर्व था अपनी नौकरी पर अब क्षोभ है . . . घिन आती है। मर कर जाऊँगा तो क्या जवाब दूँगा पुरखों को . . . ।” रोहित की आँखों में दर्द बेचैनी की लहर साफ़ नज़र आ रही थी। वह आगे बढ़ी और रोहित के सिर को सीने में छिपा लिया। इससे पहले कब उसने इस तरह उसे स्नेह के आँचल में ढँका होगा, उसे याद नहीं आया। 

“तुम कई दिनों से सिंघु बॉर्डर जाना चाह रही थी!” अचानक रोहित ने बात की दिशा बदल दी। 

“हाँ, मगर!” 

“मेरी वजह से कब तक अपने मन, अपने ज़मीर का कहा अनसुना करोगी। तुम्हारी भी अपनी ज़िन्दगी है। नहीं, अब और नहीं रोकूँगा तुम्हें। शाहीन बाग़ जाने से रोका, बॉर्डर जाने से रोका, हर उस जगह जाने से रोका, जहाँ ख़तरा था, जहाँ तुम्हारे जाने से मुझे कटघरे में खड़ा किया जा सकता था, मगर अब नहीं। अब और नहीं!” 

वह रोहित को देखती रह गई। भीतर जमा धुआँ छँटने लगा। जिस रोहित से उसने प्यार किया था, आख़िरकार वह मिल ही गया। चार बरस बाद ही सही। 

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