अंगदेश के उपेक्षित बलिदानी 

15-08-2022

अंगदेश के उपेक्षित बलिदानी 

डॉ. आरती स्मित (अंक: 211, अगस्त द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

घटनाएँ इतिहास समृद्ध करती हैं और व्यक्ति घटनाओं को जन्म देता है। अपने-अपने समय और अपने-अपने क्षेत्र में अपने अपने शौर्य व बलिदान से कालखंड के विराट हृदय पर हस्ताक्षर अंकित करनेवाले सेनानियों की लंबी फ़ेहरिस्त में कुछ के बलिदान बिना किसी भेदभाव के गुमनामी के अँधेरे में क़ैद हो गए। 

प्राचीन अंगदेश (अब, बिहार और झारखंड का हिस्सा) के पूर्वांचल के सेनानियों के नाम सूचीबद्ध करने एवं सम्मानित करने की कोई बड़ी पहल राष्ट्रीय या प्रादेशिक स्तर पर नहीं की गई है। उपेक्षा की इस पीड़ा का विस्तार तब हुआ जब स्थानीय लोगों ने इतिहास को खंगालना शुरू किया और उनके ही प्रयासों से कई उपेक्षित स्थल जीवंत हो चुके हैं तथा कई उम्मीद का दामन थामे अब भी उजाले का इंतज़ार कर रहे हैं, क्योंकि सरकारी उपेक्षा अब भी यथावत है। सर्वविदित है कि 21 अक्तूबर 1943 ई॰ को नेताजी सुभाषचंद्र बोस के द्वारा ‘आज़ाद हिंद फौज’ की स्थापना की गई, जिसके सेक्रेटरी जनरल (स्व॰) आनंदमोहन सहाय बने। इस नेतृत्व को सँभालने के बीस वर्ष पूर्व सन् 1923 ई॰ में जापान में ‘आज़ाद हिंद फौज’ की नींव रखनेवाले अंगपुत्र श्री सहाय (पुरानी सराय, नाथनगर, भागलपुर, बिहार) अपेक्षित सम्मान से वंचित ही रहे। 

आज राष्ट्र नेताजी सुभाषचंद्र बोस को श्रद्धा-सुमन अर्पित करता है, किन्तु उनके निकटतम सहयोगी, संस्था के मज़बूत स्तंभ श्री सहाय को स्मृति-पुष्प भी नहीं चढ़ा सकता। क्या इसका कारण उपेक्षित अंगक्षेत्र है, जो वैदिक युगों से अपमान और उपेक्षा का हलाहल पी रहा है या फिर उपेक्षित तिलकामाँझी, जो देश का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी होने के गौरव से अब तक वंचित है। सभ्यता को अनुकरणीय संस्कृति से विभूषित करने की बात हो या अंगद्वीप और चंपा राज्य की स्थापना कर अंग की ध्वजा फहराने की मिसाल या कि स्वतंत्रता संग्राम में पहाड़िया व संथाल जनजातियों के द्वारा स्व-बलिदान से अलख जगाए रखने का कार्य, षडयंत्रों ने सदैव उनके शौर्य की सत्यता को भूमिगत करने की कोशिश की और सफल भी हुए। हाँ, स्थानीय जनों के प्रयासों ने स्थलीय साक्ष्य ज़रूर खड़े किए जिनके चलते घटनाएँ इतिहास के पन्नों से तिरस्कृत रहकर भी सजीव हैं। चाहे वह 1781 ई॰ में तिलकामाँझी द्वारा संग्राम का आह्वान हो, 1783 ई॰ का भीषण पहाड़िया विद्रोह हो, 1784 ई॰ में भागलपुर के प्रथम अँग्रेज़ कलक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड की तिलकामाँझी के विष-बुझे तीर से हत्या कर क्रांति का आग़ाज़ करने की घटना हो, 1785 ई॰ में अँग्रेज़ों द्वारा क्रूर यातना देने के पश्चात आवाम के बीच तिलकामाँझी को बरगद के पेड़ पर फाँसी देने की घटना हो या 1854-1855 में सुलगते विरोधों का ‘संथाल हूल’ के रूप में प्रकट होने की घटना। 

आवाम के बीच क्रांतिकारियों को पेड़ से लटकाकर फाँसी देना अँग्रेज़ों की रणनीति का एक हिस्सा था, जिसकी पहली भेंट तिलकामाँझी चढ़ा, बाद में अनेक क्रांतिकारियों को इसी रास्ते मौत का आलिंगन करना पड़ा। जैसे–1828 ई॰ से 1888 ई॰ तक चलनेवाले ‘बहावी आंदोलन’ का मुख्य केंद्र पटना (बिहार) था। पटना के विलायत अली और इनायत अली उस आंदोलन के प्रतिनिधि थे, जिन्हें बांकीपुर मैदान में फाँसी पर चढ़ा दिया गया था। उनके साथ ही ग़ुलाम अब्बास, जुम्मन, उंधु, हाज़ी जान, रमजान, पीर बक़्श, बहीद अली, ग़ुलाम अली, असगर, मुहम्मद अख़्तर, नंदलाल एवं छोटू यादव को भी फाँसी पर लटकाया गया। सूचना एवं जन संपर्क विभाग, पटना द्वारा 1984 ई॰ में प्रकाशित लघु पुस्तिका1 में उल्लिखित तथ्यों के अनुसार, इन क्रांतिकारियों को तात्कालिक कमिश्नर टेलर ने वर्तमान एलिफ़िंसटन सिनेमा के सामने एक बड़े पेड़ पर लटकाकर फाँसी दिलवाई थी, ताकि जनता में दहशत की भावना भर जाय। स्वतंत्रता संग्राम के हर उतार-चढ़ाव के साथ भागलपुर का जज़्बाती रिश्ता जुड़ा है और क़रीब हर आंदोलन में इस शहर की चीत्कार शामिल है, चाहे वह पहाड़िया या संथाली की हो या कि ग्रामीण व नगरवासी की। स्वाधीनता संग्राम का दूसरा दौर सन् 1918 ई॰ के आसपास शुरू हुआ। दिसंबर 1918 ई॰ में भागलपुर के अनेक आंदोलनकारियों को षड्यंत्र रचने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। इसी क्रम में अनाथ बंधु चौधरी की गिरफ़्तारी के विरोध में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ज़बर्दस्त विद्रोह किया, तब उन्हें भागलपुर से बंगाल भेज दिया गया। इसी प्रकार रॉलेट एक्ट और जलियाँवाला बाग़ कांड से भागलपुर के युवा-रक्त में ज़बर्दस्त उबाल आया, उस समय छात्रवर्ग का नेतृत्व (स्व॰) दीपनारायण सिंह ने किया था। सन् 1922 में आयोजित औद्योगिक प्रदर्शनी के अवसर पर यहाँ के देशप्रेमियों ने कांग्रेस–ध्वज फहराकर ब्रिटिश हुकूमत को ललकारा। गाँधीजी के द्वारा चालित असहयोग आंदोलन में भी इस प्रदेश ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 1923 ई॰ में सेठ जमनालाल बजाज ने भागलपुर के कई स्थानों का दौरा किया। एक ओर आंदोलन को गति देने और दूसरी ओर उसे गर्माहट देने की नीयत लिए (स्व॰) आनंदमोहन सहाय मई 1923 ई॰ में भागलपुर से जापान रवाना हुए और वहाँ ‘आज़ाद हिंद फौज’ के लिए ज़मीन तैयार की। यह इतिहास की पहली घटना है कि देश की स्वतंत्रता हेतु कोई भारतीय नवयुवक विदेशी धरती पर सेना संगठित करता है। सन् 1930 ई॰ में अहमदाबाद में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने जब आंदोलन के शुभारंभ हेतु गाँधीजी को अधिकृत किया तो भागलपुर से 770 नाम सूची में शामिल हुए। 

आज़ादी के लिए संघर्षरत भागलपुर की धरती पर बिहपुर आंदोलन आर्तनाद बनाकर उभरा। 1 जून 1930 ई॰ को आंदोलनकारियों पर डंडे बरसाए गए; कांग्रेसी झंडे को जला दिया गया। पुलिस ने कांग्रेस कार्यालय, खादी भंडार एवं चरखा संघ पर अधिकार कर लिए और अनेक नेताओं की सम्पत्ति लूट ली। तमाम अत्याचारों के बावजूद गाँधी–इर्विन समझौते तक आंदोलन की प्रखरता बनी रही। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कराते हुए सुल्तानगंज एवं कहलगांव के अनेक काश्तकारों ने ‘चौकीदारी कर’ देना बंद कर दिया। 30 सितंबर 1930 ई॰ की रिपोर्ट के अनुसार सत्याग्रह आंदोलन के 1650 कार्यकर्ता गिरफ़्तार कर लिए गए। इसी समय स्वामी सहजानंद के द्वारा चालित ‘किसान आंदोलन’ किसानों को अलग उत्तेजित कर रहा था। इस सक्रियता के दमन के लिए बड़ी संख्या में संबद्ध लोगों की गिरफ़्तारी हुई। इसके विरुद्ध सन् 1936 में यहाँ की जनता ने खुली बग़ावत कर दी। 

अगस्त 1942 ई॰ में गाँधी एवं अन्य नेता की गिरफ़्तारी के पश्चात इस ज़िले के छात्र एक बार फिर पंक्तिबद्ध हुए और जुलूस-प्रदर्शनों पर कड़ी पाबंदी के बावजूद 9, 10, 11 अगस्त तक वे संपूर्ण ज़िले में निरंतर प्रदर्शन करते रहे; सरकारी कार्यालयों पर कांग्रेस–ध्वज फहराते रहे। 11 अगस्त को ही पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराते हुए सात छात्र शहीद हुए। इनमें से एक खड़हरा बाँका (पहले ज़िला भागलपुर के अंतर्गत) के सतीश प्र॰ झा भी थे। आंदोलन के दमन के लिए पुलिस ने कई स्थलों पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाईं, जिनके विरोध में विरोध में नवगछिया (भागलपुर) में बग़ावत की लहर फैल गई। 14 अगस्त को एक बड़ा जुलूस उन लाशों के साथ निकाला गया जो नवगछिया पुलिस फ़ायरिंग की गवाह थीं। निषेध के बावजूद 15 अगस्त 1942 को लाजपत पार्क (भागलपुर) में आम सभा का आयोजन हुआ। एकत्रित भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने पहले लाठियाँ फिर गोलियाँ बरसाईं। 

इस उग्र आंदोलन से भयभीत प्रशासन ने स्कूल-कॉलेज बंद करवा दिए। 16 एवं 17 अगस्त को उत्तेजित भीड़ ने पुलिस फ़ायरिंग की परवाह न करते हुए कई रेलवे स्टेशनों, सबौर कृषि कॉलेज एवं नाथनगर रेशम संस्थान पर हमला कर दिया और इसी क्रम में संपूर्ण संचार व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 30 नवंबर 1942 तक भागलपुर में कुल 1573 गिरफ़्तारियाँ हुईं, जिनमें से 1080 लोग जेल भेजे गए। प्रशासन के क्रूर हथकंडे विद्रोह के तेवर दबा न पाए। सियाराम सिंह, दीपनारायण सिंह, महेंद्र गोप, रास बिहारी लाल कैलाश बिहारी लाल, पटल बाबू, सरस्वती देवी, परशुराम सिंह प्रभृत स्थानीय नेता भूमिगत रहकर धन, शस्त्र एवं लोगों को संगठित करते रहे। 10 फरवरी 1943 को भागलपुर के अनेक स्थानों पर तीव्र जनाक्रोश की अभिव्यक्ति हुई। 

इस संदर्भ में यदि सभ्य समाज से दूर अपनी सभ्यता-संस्कृति निभानेवाले पहाड़िया व संथाल जन जातियों के द्वारा दिए गएसहयोग एवं बलिदान का उल्लेख न किया जाय तो अन्याय होगा। हज़ारों वर्षों से अपनी स्वायत्ता हेतु संघर्षरत इन मूलानिवासियों ने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया लिया। बिहार राज्य अभिलेखागार, पटना में सुरक्षित संताल परगना भागलपुर के तत्कालीन अधिकारियों की रिपोर्टों, दोनों स्थानों के स्वतंत्रता सेनानियों की अप्रकाशित डायरियों, राष्ट्रीय आंदोलन के समय पहाड़िया के हितैषी बरपाली, संभलपुर (उड़ीसा) के श्री प्रफुल्ल चंद्र पटनायक, मोहनपुर हाट, देवघर (अब झारखंड) के श्रीकृष्ण प्र॰ साह, केरल के श्री के॰ गोपालन, डांगा पहाड़ (सुंदर पहाड़ी, गोड्डा, झारखंड) के श्री जामा पहाड़ तथा पहाड़िया उत्थान समिति के महासचिव (स्व॰) शिवलाल माँझी के प्रकाशित-अप्रकाशित लिखित विवरण इसके साक्ष्य हैं। 

असहयोग आंदोलन हो या नमक सत्याग्रह या व्यक्तिगत सत्याग्रह—पहाड़िया समुदाय ने बढ़-चढ़कर भागीदारी दी। साहेबगंज के श्री द्वारिका प्र॰ मिश्र ने सुंदर सिंह पहाड़िया, चमरु पहाड़िया, राधा पहाड़िया, सूरज पहाड़िया, मैसा पहाड़िया, रामा पहाड़िया, रेशा पहाड़िया, आदि के सहयोग से उस समुदाय के युवकों को राजनीतिक रूप से संगठित किया। राष्ट्रीय जागरण की पृष्ठभूमि में पहाड़िया राष्ट्रवाद की मुख्यधारा से एकीकृत हो गए और गाँधीजी के आह्वान ‘भारत छोड़ो’ पर आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते हुए 1942 के आंदोलन को प्रखर किया। जामा कुमार पहाड़िया, डोमन लाल पहाड़िया एवं मैसा सिंह पहाड़िया के नेतृत्व में डेढ़ सौ पहाड़िया नवयुवकों का दल गठित हुआ। इन्होंने संताल परगना के कई स्थलों पर शराब की भट्टियों और बंगलों को जला डाला। विद्रोह के समय इन्होंने सरकारी भवन, पुलिस थाने, डाकघर, पुल, रेल लाइन, टेलीग्राफ आदि बड़ी संख्या में नष्ट किए। स्व॰ मोतीलाल केजरीवाल ने 1942 के आंदोलन का उल्लेख गंगा सिंह पहाड़िया, कार्तिक गृही, बड़ा धरमा पहाड़िया, छोटा धरमा पहाड़िया, माल पहाड़िया आदि स्वतंत्रता सेनानियों का संक्षिप्त विवरण भी दिया। गुट्टी बेड़ा पहाड़ (बोड़ियो प्रखंड) के मैसा पहाड़िया व बड़ा चंद्र पहाड़िया ने 1942 के आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिए। 15 अप्रैल 1989 को भागलपुर के वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र प्र॰ सिंह से हुई वार्ता में उस वृद्ध सेनानी ने स्मृति ताज़ा करते हुए कहा, “हम गंडी (गाँधी) को कभी नहीं देखा पर इतना जानता था कि वो अँग्रेज़ों को भगाना चाहता है। बस इसी बात पर हम भी कूद पड़ा।”2

आंदोलन को प्रखर करने के लिए साथियों के साथ बड़ा चंद्र पहाड़िया पहाड़ से मीलों नीचे उतरते और तोड़-फोड़ मचा, अँग्रेज़ों की नींद हराम कर फिर पहाड़ में गुम हो जाते और ऐसा वे दिन-रात में कई-कई बार करते। अफ़सोस कि इस स्वतंत्रता सेनानी की शनाख़्त तक नहीं हो पाई, सम्मान और पेंशन तो दूर की बात है। 14-15 अगस्त 1947 को जब सारा देश ख़ुशियाँ मना रहा था यह उपेक्षित सेनानी एक तिरंगे को छूने को तरस गया, बाद में भी जब कभी पास से झंडोत्तोलन देखने की साध लिए मैदान आए, सभ्य समाज के द्वारा सिवाय तिरस्कार के कुछ न मिला। अब तो वे काल-कलवित हो चुके होंगे। 

शहर की भी बात करें तो जून 1945 ई॰ से अखिल भारतीय स्तर पर राजनीतिक घटनाक्रम में ज़बर्दस्त उबाल आया, जिसमें भागलपुर ने खुली शिरकत की। 15 अगस्त, सन् 1947 को स्वाधीनता का पहला उत्सव स्थानीय सैंडीस कंपाउंड में तत्कालीन कमिश्नर पी॰एन॰ साही द्वारा तिरंगा फहराकर मनाया गया। किन्तु इस उत्सव को देखने के पूर्व ही अधिकांश सेनानी काल के गाल में समा चुके थे। जो मुट्ठी भर बचे, उन्हें प्रशासन और इतिहास—दोनों ने नज़रअंदाज़ कर दिया। गाँधी, नेहरू, मालवीय, बोस, तिलक तो याद किए जाते हैं किन्तु उनके विचारों को परवान देनेवाले अंगदेश के ये परवाने हाशिये पर चले गए। अंगदेश की मिट्टी में दबी घटनाओं को कुरेदने और इतिहास की क़ब्र में झाँकने की ज़हमत उठाई जाए तो शायद राष्ट्र को स्व॰ आनंद सहाय एवं उनकी बेटी भारती चौधरी की जाँबाज़ शिरकत नज़र आए; स्व॰ दीपनारायण सिंह को इतिहास में अपेक्षित जगह दी जाए; मीर मुबारक और मीर मुर्तजा जैसे जहाज़ के दोनों खलासी की क़ुर्बानी सम्मानित हो तथा ‘गाँधी स्मारक निधि’ के पन्ने पर उल्लिखित श्याम सुंदर सिंह (जिन्होंने मात्र तेरह वर्ष की आयु से ही कांग्रेस के कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी निभाई) ज़िन्दगी के अंतिम पड़ाव तक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में अपनी पहचान दर्ज़ करा पाने में असमर्थ रहे। गाँधी के साथ एक वर्ष तक और विनोबा के साथ उनकी मृत्यु-पर्यंत अपनी लकुटी ठकठकाने वाले श्याम सिंह मौत के आग़ोश में सोने तक सम्मान की तलाश में भटकते रहे, अफ़सोस तलाश अधूरी ही रह गई। दुर्भाग्य है कि बड़ा चंद्र पहाड़िया व श्याम सुंदर सिंह प्रभृत सेनानियों के पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेटकर श्मशान यात्रा पर जाना था, किन्तु गुमनामी की क़ब्र ही नसीब हुई। 

पटना सचिवालय के सामने शहीद स्थल पर अवस्थित सात सपूतों की प्रस्तर प्रतिमाओं में से एक शहीद सतीश प्र॰ झा के बदहाल परिजन की ख़बर तक नहीं ली गई। बाँका ज़िले के खड़हरा ग्राम-निवासी शहीद सतीश प्रसाद का आवास जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़ा है और परिजनों को सिर छिपाने के लिए इंदिरा आवास की ज़रूरत पड़ गई। विडम्बना है कि इन शहीदों की प्रतिमाओं पर जितने मूल्य के पुष्प अर्पित किए जाते रहे हैं, उसकी आधी राशि भी उनके परिवार को दिया जाता रहा होता तो वे बेघर नहीं होते; अघोषित तौर पर वह मकान स्मारक बन जाता और भावी पीढ़ी के लिए देशप्रेम का प्रेरणा-स्रोत। अंगदेश के वासी इस क्षोभ को न पाल रहे होते कि इस माटी के बलिदानी सदैव उपेक्षित रहे हैं। 

इसी प्रकार गोरी सरकार की नींद हराम करनेवाले शहीद महेंद्र गोप (ग्राम-रामपुर, बाँका) का जीवन-लक्ष्य ही स्वतंत्रता-संग्राम रहा। गिरफ़्तार होने तक वे निरंतर संघर्षरत रहे। अंतत: गिरफ़्तार किए जाने के पश्चात भागलपुर सेंट्रल जेल में फाँसी पर लटकाए गए। शहीदों की सूची उनके नाम को तो उजागर करती है किन्तु उनका परिवार किस हाल में है—कोई ख़बर नहीं! लंबी चुप्पी के बाद स्थानीय जनों ने उनके गाँव रामपुर में एक स्मारक बनवाया और काफ़ी जद्दोजेहद के बाद चांदन नदी पर निर्मित पुल को उनके नाम से विभूषित कर पाने में सफल हुए। किन्तु ऐसे शहीद युवा पीढ़ी के लिए प्रेरक बने, इसकी प्रशासन की ओर से कोई व्यवस्था नहीं की गई है—इस विडम्बना को झेलती अंगदेश की धरती कराह उठती है—चीत्कार करती है—और करुणापूर्ण आक्रोश में चीख पड़ती है कि तिलकामाँझी से लेकर अब तक—और कब तक इस धरती के बलिदानी उपेक्षा का दंश सहते रहेंगे—कब तक?

संदर्भ:

  1. स्वतंत्रता संग्राम में बिहार का योगदान; प्रकाशक, सूचना एवं जन संपर्क विभाग, पटना; 1984 ई॰ 

  2. राजेन्द्र प्र॰ सिंह: तिलकामाँझी (बड़ा चन्द्र पहाड़िया:एक गुमनाम सेनानी) पृ॰ 44 

  3. स्थानीय लोगों के साक्षात्कार

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