अँधेरी सुरंग में . . . 

01-01-2024

अँधेरी सुरंग में . . . 

डॉ. आरती स्मित (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

“ओह! आख़िर कब तक क़ैद रहना पड़ेगा? होली तो गई ही समझो। स्कूल, कॉलेज, ऑफिस–सब धड़ाधड़ बंद हो रहे हैं? जीवन की साँसें बंधक बनती जा रही हैं।” 

“ठीक कहते हो। सबसे अधिक दिक़्क़त तो तरकारी-भाजी की हो रही है। सोसाइटी के भीतर तो एक-एक चीज़ के लिए इतनी लंबी लाइन लगती है कि आधी साँस वहीं चुक जाती है। पहले गोपाल ला दिया करता था तो कभी दिमाग़ में भी नहीं आया कि ऐसे भी दिन देखने पड़ेंगे!” 

“मगर, अब तुम सोसाइटी के भीतर कहाँ हो? तुम्हें ऐसे ही खुल्ले-खुल्ले अव्यवस्थित कालोनी में रहने का शौक़ हुआ, फिर सोसाइटी का शोक क्यों?” 

“सोसाइटी के बाहर कम से कम रेहड़ी वाले भूले-भटके एक चक्कर लगा जाते हैं। मगर अब घुटना साथ नहीं देता कि जब-तब सीढ़ियाँ उतर जाऊँ। लीला ला दिया करती थी। अब तो रोना ही है . . .” 

खुली रसोई में बने डाइनिंग स्पेस में लगी डाइनिंग कुरसी पर बैठी, टेबल पर सब्ज़ी का डलिया रखकर उसमें से मिर्ची चुनती हुई बोली। नज़र उठाकर देखा तो चाय आधी पी गई थी, आधी उदास पड़ी-पड़ी ठंडी हो चुकी थी। प्रो. मल्होत्रा कहीं खोए हुए थे। वॉग के फाइवर के ब्लू फ़्रेम में लगे महँगे प्रोग्रेसिव ग्लास के भीतर आँखें अधमुँदी-सी जान पड़ीं। 

“कहाँ खो गए? चाय पड़ी-पड़ी ठंडी हो गई। दूसरी बना दूँ?” 

“नहीं, रहने दो,” फिर दीवार घड़ी पर नज़र फेंकते हुए पूछ बैठे, “कामवाली नहीं आई?” 

“मैंने ही मना कर दिया सुगनी को, वह भी तो दूर बस्ती से आती है। जवान-जहान है, उसे तो रोग का पता न भी चले, मगर हम बुड्ढे?” 

“लगता है, आजकल समाचार अधिक सुनने लगी हो,” चश्मे के भीतर से स्थिर आँखों में हलचल हुई, होंठों पर मुस्कान तैर गई। पत्नी को यों ही छेड़ने में उन्हें मज़ा आता था और सुवर्णा ऐसी भोली कि उसे सीधे अर्थ में लेकर जवाब देती जाती। 

“सही कह रहे हो। न देखूँ तो जानूँगी कैसे? तुम तो रिटायरमेंट के बाद लिखने-पढ़ने में अधिक व्यस्त रहने लगे, मेरा जी नहीं लगता।” 

“क्यों, तुमने भी तो कितनी सुंदर पेंटिंग्स बनाई हैं। ये हुनर मेरे पास कहाँ?” 

“अभी ऐसे माहौल में रंग भी बेरंग-से लगते हैं या गहरे अवसाद भरे।” 

सुवर्णा की आवाज़ भीगी-सी जान पड़ी तो प्रो. मल्होत्रा अब और बैठे न रह सके। कुरसी से उठे और दो क़दम आगे बढ़कर पत्नी की कुरसी के पास, बिल्कुल सटकर खड़े हो गए। सुवर्णा ने सिर उठाकर देखा। 

“सुवि! तुम अनुमति दो तो मैं काम में कुछ हाथ बँटाऊँ। तुमने तो कभी कुछ करने नहीं दिया। अब तो समय ही समय है। न कहीं जाना, न आना। निठल्ला-सा बैठा रहता हूँ। मिलकर काम करेंगे तो काम भी जल्दी हो जाएगा और हम साथ-साथ बातें भी करते रहेंगे।” 

“नहीं, ज़्यादा काम नहीं है। हो जाएगा।” 

“डरती हो कि कहीं तुम्हारा काम बढ़ा न दूँ।” 

पत्नी की आँखों में झाँकते हुए वे बोले तो वह भी मुस्कुराने लगी। बढ़ती उम्र के साथ प्रेम का प्याला भरता ही गया। बच्चों ने बाहर जाते हुए साथ चलने की ज़िद की मगर दोनों ने एक स्वर में मना कर दिया। अपना देश, अपना घर और परस्पर समर्पण और प्रेम से रचा-बसा, सुगंधित उनका जीवन कहीं अजनबी देश में खो न जाए, इससे दोनों को डर लगता था। सुवर्णा थोड़े दिनों के लिए जाने तैयार भी हो गई, मगर प्रो. मल्होत्रा के बिना नहीं। अब भी दोनों एक-दूसरे के लिए ही जी रहे थे और एक-दूसरे से ऊर्जा पा रहे थे। प्रो. मल्होत्रा अस्सी वर्ष में भी उतने ही स्मार्ट और सौम्य दिखते, सुवर्णा उनसे दो वर्ष छोटी थी, मगर शरीर ज़रा ढलने लगा था। इस उम्र में भी पति की सेहत की फ़िक्र में लगी, पोषक आहारों की जानकारी लेती रहती थी। वही पकाती जो उनके लिए ठीक हो। आज भला कैसे उनसे काम करवाती! पति को प्यार से निहारती हुई बोली, “जब तुम्हारी किताब पढ़ती हूँ और उससे भी अधिक जब उस पर लिखे लोगों के लेख पढ़ती हूँ तो सारी थकान दूर हो जाती है। तुम चिंता न करो, यह समय भी टल जाएगा। लीला लौट आएगी, फिर मुझे काम ही क्या रह जाएगा! तुम बस अपने लिखने-पढ़ने पर ध्यान दो।” 

“हम्म!” 

“चाय बना दूँ?” 

“तुम पियोगी?” 

“पी लूँगी।” 

“फिर बना लो। मैं ज़रा बालकनी में, धूप में बैठता हूँ।” 

पत्नी का कंधा थपकाते हुए प्रो. मल्होत्रा कुछ क्षण रुके, फिर पलटकर कमरे की तरफ़ मुड़े जिधर से बालकनी जाने का रास्ता था। मार्च का पहला सप्ताह शुरू हो चुका, मगर अब भी हवा में नमी थी ही। इसलिए बालकनी में धूप आने पर वे थोड़ी देर धूप में बैठना और आँखें मूँदकर कुछ मनन करना पसंद करते। सुवर्णा जानती थी, उन्हें वहीं अपनी रचना का प्लॉट सूझता है, इसलिए और पत्नियों की तरह प्रश्न नहीं करती थी कि ‘वहाँ क्या है? मैं यहाँ अकेले मर-खप रही हूँ, तुम्हें . . .’ उसे औरतों के ऐसे बकवास से बड़ी चिढ़ होती, इसलिए उसे पड़ोस में कहीं जाना और गप्पें लगाना कभी रास न आया। अब भी उसने सहमति में सिर हिलाया और चाय बनाने उठने लगी। 

♦    ♦    ♦

‘उँगलियाँ साथ नहीं दे रहीं। पता नहीं, कैसे अधूरी किताब पूरी करूँगा? कर पाऊँगा भी या नहीं? सुवि मेरी अगली किताब की प्रतीक्षा कर रही है, उससे कुछ कह भी नहीं सकता। परेशान हो जाएगी। डॉक्टर के पास जाने की ज़िद करेगी, फिर रुआँसी होगी कि अभी घर से बाहर जाना आफ़त मोल लेना है। सुवि न होती तो राम जाने, मेरा क्या होता!’

“चाय यहीं ला दूँ?” 

“अरे वाह, चाय बन भी गई! नहीं, अंदर ही चलते हैं। तुम कितनी बार परेशान होगी!” 

उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश की, मगर आँखों में दर्द की लहर दस्तक देने लगी। 

“क्या बात है समर्थ?” सुवर्णा ने ठिठककर नाम लेकर पुकारा तो वे थोड़े हैरान हुए और बहुत ख़ुश भी। “कुछ नहीं, चलो-चलो नहीं तो इतनी मेहनत से बनी चाय फिर ठंडी हो जाएगी।” 

“तुम टाल रहे हो।” 

“नहीं यार! बस, सोच रहा था, तुम न होती तो मुझ निठल्ले का क्या होता!” 

“तुमने कितने दिनों बाद पुराने अंदाज़ में बात की है। कॉलेज के दिन याद आ गए।” 

“तुमने भी तो कितने सालों बाद मुझे नाम लेकर पुकारा। पुराने दिन याद आ गए। सच तो यह है, मैं नौकरी और तुम घर की ज़िम्मेदारियों में–हम दोनों इस तरह उलझे रहे कि ख़ुद को भूल ही गए। तुमने हर हाल में मुझे सँभाले रखा, नहीं तो . . .” 

“और तुमने? . . . जिन्हें पालने-पोसने में उम्र लगा दी, वे पंख खोलकर उड़ गए।” 

“तो? . . . क्या मैं क़स्बे से आकर यहाँ इस महानगर में नहीं बस गया। साल में कितनी बार जा पाया घर? तुमने भी तो चाहा था, माँ-पिताजी हमारे साथ रहें, क्या वे माने? . . . तुम्हारे बच्चों ने भी तो चाहा कि हम उनके साथ रहें, तो हम भी अपना बसा-बसाया घर छोड़कर जाने को तैयार नहीं हुए। . . . और छोड़ भी कैसे देते, इस जगह से हमारी पचपन साल की यादें जुड़ी हैं। इस महानगर की हवा कितनी भी प्रदूषित हो गई हो, मगर अपनेपन की महक बसी है साँसों में, सब छोड़ा नहीं जाता।” 

“जानती-समझती हूँ। दोष नहीं दे रही। सक्षम को गुज़रे आज बीस साल हो गए। मैं तो तिनके-तिनके बिखर गई थी। तुम ही थे, जो मुझे यमराज से छीनकर वापस ले आए। मेरे लिए तो डॉक्टर के डॉक्टर तुम हो।” 

“उस समय शुभम् और श्वेता भी तो आए थे। विदेश की अपनी तेज़ भागती ज़िन्दगी होती है, फिर भी उन्होंने बिना ज़्यादा विचार किए रिज़र्वेशन लिया और आ गए। क्या ये कम सहारा था? मुझे भी बल मिला था। अब इस समय तो उनका न आना ही ठीक है।” 

“सही कह रहे हो। . . . समर्थ, मैं सोच रही हूँ सुगनी की सैलरी न काटूँ। बेचारी का सारा काम छूट गया है।” 

“ठीक सोच रही हो। . . . लीला कब तक लौटेगी?” 

“अब ये मौत का तांडव बंद हो तो वह भी कुछ सोचे। उसका फोन आया था। हमारा हाल पूछ रही थी। चिंता में थी, इस घर का काम कैसे होगा।” 

“लीला को तुमने बेटी बनाकर रखा, यह लगाव उसी का फल है।” 

“तुमने भी तो . . .” 

 सुवर्णा की बात ख़त्म भी न हुई थी कि प्रो. मल्होत्रा के कान दूर से आती एक आवाज़ सुनकर खड़े हो गए। 

“ज़रा बालकनी से आता हूँ,” कहकर अपनी चाल को थोड़ा और तेज़ करते हुए उस तरफ़ बढ़े। आवाज़ पास आती जान पड़ी . . . 

“लेमू लेsss।” 

‘ये आवाज़ इस कालोनी में तो पहले कभी नहीं सुनी। वह भी इस समय जब पुलिस रेहड़ीवालों को भी डंडे से खदेड़ रही है। कौन है, जिसकी शामत आई है? कोई बाहरी होगा बेचारा, जानता नहीं होगा! पेट की आग जो न कराए’। सोच की लगाम खींचते हुए उन्होंने अपनी गरदन को ज़रा ढीला छोड़ते हुए नीचे की तरफ़ झुकाया और आवाज़ की दिशा में देखने लगे। आवाज़ धीरे-धीरे स्पष्ट होती जा रही थी। 

“ये-ये चिल्ला रहा है . . . इतनी तेज़ और स्पष्ट आवाज़ में!” वे आश्चर्य से बुदबुदाए और टकटकी बाँधे उसे देखते रहे जब तक वह उनके मकान के क़रीब न आ गया। अपने दाहिने हाथ की कोहनी पर एक मलियाया झोला टाँगें, घिसे हुए कहीं-कहीं से फटे चप्पल घिसटता, कई छेदों से सजा मैला-कुचैला बनियान और पैर से बाहर चीकट पायजामा पहना वह दुबला–पतला, आधी हड्डी का मानुष अपनी धुन में चिल्लाता, आगे बढ़ा जा रहा था। 

“ऐ सुनो! सुनो! रुकोsss” प्रो. साहब ने ज़ोर देकर पुकारा। पति की इतनी तेज़ आवाज़ सुनकर सुवर्णा चौकी और रोटी तवे पर छोड़कर पति के पास जाने लगी। प्रो. साहब अपनी धुन में ऊपर से ही बात किए जा रहे थे। 

“क्या बेच रहे हो?” 

“लेमू!” 

“दिखाओ!” 

“ओ, नींबू!” उसके काँपते हाथ में नींबू देखकर वे हँसे। “रुको आता हूँ।” कहते हुए वे मुड़े तो सामने पत्नी को प्रश्न मुद्रा में खड़े देखकर हैरान हुए। 

“आप जाएँगे?” 

“हाँ, तो?” 

“उसने मास्क भी नहीं लगाया है। ऐसी क्या ज़रूरत आ पड़ी नींबू की?” 

“मैं तो लगाकर जा रहा हूँ न! हैंगर से धुले मास्क निकालते हुए बोले और पत्नी के जवाब का इंतज़ार किए बिना कमरे की दराज़ खोलकर पाँच सौ का नोट निकाला और जेब के हवाले करते हुए आगे बढ़ गए। 

‘हे भगवान! ये भी सनक गए हैं। कभी घर-बारी किया नहीं, अब चले हैं बाज़ार करने। अभी जबकि बूढ़ों को घर में बंद रहने की हिदायत दी जा रही है, पाँच सौ का नोट लेकर नींबू ख़रीदने गए हैं। भूल जाते हैं, अस्सी पार करने में कुछ महीने रह गए हैं, तो ज़रा सँभलकर रहें। . . . प्रभु! रक्षा करना’। उसने अनिष्ट की आशंका दूर भगाने के लिए ईश्वर को याद किया। 

‘देर हो रही है। रोटी भी ठंडी हो रही है। कहाँ रह गए?’ बालकनी से नीचे झाँकती सुवर्णा चिंतित होने लगी। 

‘सोचा था, खाना खाकर ज़रा कमर सीधी कर लूँगी, मगर इनको भी कहाँ से नींबू ख़रीदने की सूझी है। कभी-कभी बिल्कुल ज़िद्दी बच्चे बन जाते हैं। . . . सक्षम भी तो ऐसा ही था। आज होता तो बावन साल का होता! अपनी ज़िद में चला गया। कहता था, ख़तरों के खिलाड़ी को डर कैसा! कम से कम हमारे डर को ही समझ लेता! . . . अच्छा ही किया जो शादी नहीं की थी, वरना . . . अरे, कहाँ रह गए समर्थ? ओह! क्या करूँ? किसे पुकार कर कहूँ, ज़रा नीचे देख आए! मोबाइल भी तो साथ नहीं ले गए!’ चिंता और परेशानी उसके ललाट पर रेखा बनकर उभर आईं। 

♦    ♦    ♦

“कितने नींबू हैं?” 

“गिना नाइ।”

“मुझे सारे नींबू दे दो।” 

“नाइ!” 

“अरे भई, मुफ़्त में थोड़े ही माँग रहा हूँ। पैसे ले लो।” 

“नाइ! दस का तीन देगा। ओ ऐसा ही बेचने को बोला है।” 

“कौन?” 

“ओ, हमारा दादा।” 

“दादा? अब तक ज़िन्दा हैं?” 

“हमसे दो बच्छर बड़ा है तो। दादा दादा, भाई भाई! क्या बोलता है उसको . . . बड़ा भाई! दादा!” बोलता हुआ वह बंगाली मुस्कुराया। “अच्छा, केतना लेमू देगा?” 

“सौ रुपये के 30 हुए तो सौ रुपये के दे दो।” 

“गिनो!” 

 . . .

“ये लो पाँच सौ रुपये। चार सौ तुम अलग रख लो और एक सौ नींबू बेचकर जहाँ रुपये-पैसे रखते हो, वहाँ रख लो।” 

वह फटेहाल रुपये उलट-पलटकर देखता रहा, फिर पूछ बैठा, “इसमें से केतना लौटेगा? लौटेगा तो . . .” 

“अभी तो तुम्हें समझाया न कि सौ रुपये के नींबू बिके, बाक़ी चार सौ रुपये तुम्हारे लिए। उससे एक शर्ट ख़रीद लेना।” 

वह कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा फिर कमर में बँधा एक मटमैला-सा थैलीनुमा बटुआ निकाला। बटुए का रंग ही मटमैला था या गंदगी से अपना रंग खो बैठा, समझना मुश्किल था। उस बंगाली ने, जिसकी उम्र पैंसठ से कम न होगी, दिखता पचहत्तर का था, ने बड़े जतन से उस बटुए का मुँह खोला और वह बड़ा नोट उस बटुए के हवाले कर, उसकी डोरी कस दी और फिर कमर के उसी हिस्से में रख लिया, जहाँ पहले था। उसने आगे पग बढ़ाए, मगर प्रोफ़ेसर मल्होत्रा की आवाज़ सुनकर बढ़ते पग ठिठक गए। 

“सुनो! आज तो तुम्हारे इतने नींबू बिक ही गए, आज घर जाकर आराम क्यों नहीं कर लेते?” 

वह चुप रहा। चेहरे पर कोई भाव न था। ठहरी हुई आँखें, दूर तक तलाशती हुईं; मुस्कुराते मगर ख़ामोश, पपड़ाए होंठ; गालों की हड्डियाँ झाँकती हुईं और भाल पर बिना शिकन की, झुर्रियाँ . . . कोई भी उसके मूड का ख़ुलासा करते नज़र नहीं आए तो प्रो. मल्होत्रा ने फिर टोका, “इतनी तेज़ धूप है। तुमने पानी भी नहीं रखा है। कुछ खाया भी है या यों ही हलकान हो रहे हो? घर में और कोई नहीं जो ये काम करे?” 

“अंss हो गया? जाएगा . . . उधर . . . लेमू बेचने।” 

“तुमने मेरी किसी बात का जवाब नहीं दिया?” 

वह फिर मुस्कुराया। निश्छल निर्दोष मुस्कान लुटाता वह अपनी बालसुलभ दृष्टि प्रोफ़ेसर साहब के चेहरे पर टिकाए रहा। स्पष्ट था कि उसे उनकी कोई बात समझ नहीं आई। ग़रीबी की मार के एहसास से परे, मंदबुद्धि वह ऐसे समय में अपनी जान जोखिम में डालकर नींबू बेचने क्यों निकला है, समझा न पाया। 

“अच्छा जाओ।” 

वह “लेमू लेsss“आवाज़ लगाता हुआ आगे बढ़ चला। 

“कोई जानता है इसे?” उन्होंने अपने पड़ोसी मि. गुप्ता के जवान पोते से जानना चाहा, जो अपने मकान के सामने खड़ा होकर उनकी बातें सुन रहा था। 

“नहीं! मगर लॉक डाउन शुरू होने के बाद ही आना शुरू किया है। पाँचों गलियों में नींबू बेचता हुआ घर लौटता है। उसकी आवाज़ दूर से ही सुनाई दे जाती है।” 

“सो तो है, मगर मैंने पहली बार सुनी। वैसे तुम लोगों ने कभी पूछा नहीं कि इस उम्र में इतना बोझा लिए क्यों फेरा लगाता है? ऐसी क्या मजबूरी है?” 

उसने जवाबी वाक्य उगलने के बजाय हाथ से सिर की तरफ़ इशारा किया कि उस फेरीवाले का स्क्रू ढीला है। फिर, हैरानी से प्रोफ़ेसर साहब को देखने लगा जब वे पाँच नींबू अपने हाथ में रखकर, शेष उसकी ओर बढ़ाते हुए बोले, “अभी विटामिन ई और सी लेना ज़रूरी है और नींबू सस्ते में बढ़िया सोर्स है। ये नींबू आसपास बाँट देना और अपने लिए भी रख लेना।” 

वह अवाक् होकर उनका चेहरा देखता रह गया जब तक वे अपने मकान के भीतर न चले गए। 

“ये दादू भी सनक गए हैं,” बुदबुदाता हुआ वह घर के भीतर चला गया। नींबू की पोटली उसकी देहरी पर वैसे ही उदास पड़ी रही। 

♦    ♦    ♦

“लेमू लेsss आदा लेsss” की आवाज़ सुनकर बिस्तर पर लेटे प्रो. मल्होत्रा के कान खड़े हो गए। 

‘आज नींबू के साथ कुछ और भी है। देखूँ क्या? सुवर्णा नाराज़ होगी। मगर . . . मगर मैं उससे बात करना चाहता हूँ, जानना चाहता हूँ उसके बारे में। मुझसे छोटा है, मगर शरीर तो हड्डी का ढाँचा मात्र है। क्या कारण है जो फेरी लगाने से एक दिन नहीं चूकता?’ 

वे धीरे से उठे। डाइनिंग टेबल पर रखे फलदान में से दो सेव लिए, शर्ट की जेब टटोली और इत्मीनान से सीढ़ियाँ उतरने लगे। फेरीवाला मकान के क़रीब आ चुका था। आज इस मकान के क़रीब आने के बाद उसके पैरों की गति मंद हो चली थी। अब हर रोज़ वह इस मकान के पास कुछ ठहरकर आगे बढ़ता था। लॉक डाउन पूरी तरह तो ख़त्म नहीं हुआ था, मगर सब्ज़ी वाले आने लगे थे और वह भी दो बार चक्कर लगाने लगा था। 

“आज ये नया क्या लेकर आए हो?” 

“आदा” 

“ये क्या चीज़ है भई? दिखाओ ज़रा।” 

“ओहो अदरक!” उसके हाथ में अदरक देखकर वे हँसे। वह भी हँसा। 

“आदा . . . अद रक हमारा बौन बोला, साहब को देकर आना।” 

“बॉन?” 

“बौन अंssss राखी बाँधता है बौन” 

“ओ अच्छा, बहन।” 

“हाँ, हाँ!” वह ख़ुश होता हुआ बोला। 

“उसने कहा। मगर वह तो मुझे जानती नहीं!” 

“ओ टाका दिया था न, ओस दिन . . . तो ओसको दे दिया था।” 

“क्यों, तुम्हें शर्ट ख़रीदने बोला था न?” 

“ओ ओससे और लेमू और आदा लाया,” वह मुस्कुराया। चेहरे पर सुकून था। 

“क्या तुम्हारा बेटा नहीं है?” 

“बिया नाइ किया तो। दादा बी नाइ किया। हमारा बौन सामान लाता है, हम बेचता है। . . . आदा ले लो।” 

“कितने हुए?” 

“त्रीस टाका पा भर का।” 

“लो। . . . और यह भी रखो। खा लेना।” 

रुपये जेब में रखते हुए उसने सेव को ध्यान से देखा, फिर सहमति में सिर हिलाता हुआ सेव को भी झोले में डाल लिया। एक भरपूर निगाह प्रो. साहब पर डाली और मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ गया। प्रो. मल्होत्रा भी दरवाज़े की तरफ़ मुड़ गए। एक बेनामी रिश्ता दोनों के बीच गहराता जा रहा था। सुवर्णा भी महसूस करती थी, इसलिए अब टोकटाक करना बंद कर दिया था। वह देख रही थी, उससे चीज़ें ख़रीदकर और कुछ खाने-पीने को देकर जब वे लौटते तो उनके चेहरे पर तुष्टि का भाव होता। अब सीढ़ी चढ़कर आने के बावजूद थकान नहीं जताते बल्कि मुस्कुराते रहते हैं। आज उसने पूछ ही लिया। 

“आप हर दो-चार दिन पर उस फेरीवाले से कुछ न कुछ ख़रीदते रहते हैं। . . . ज़रूरत न हो, तब भी!” 

“तुम जानती हो कि इससे मुझे ख़ुशी मिलती है।” 

“हम्म, वह तो देख रही हूँ। मगर उसी से ऐसे लगाव का कोई कारण भी तो हो।” 

“है न! बुढ़ापे का गहरा संबंध। मेरे पास घर है, अच्छी पेंशन है, सुविधापूर्ण जीवन के लिए संसाधन हैं तो सीढ़ी उतरने से भी कतराता हूँ। उसके पास दो जून का खाना नहीं है, तो जाड़ा हो या गर्मी काम करता है, मगर काम करते हुए दुखी नहीं होता। तन पर कपड़े नहीं है, पैर में फ़िट चप्पल नहीं। हड्डी का ढाँचा मात्र है, मगर उसकी मुस्कान में देवता बसते हैं। सीधा सच्चा मेहनती इंसान! सुवर्णा! मैं उसे कुछ देने नहीं, कुछ पाने जाता हूँ। मुझे वह अदम्य ऊर्जा और जिजीविषा की साकार प्रतिमूर्ति नज़र आता है। और उससे मिलकर बात करके वही ऊर्जा अपने भीतर भरता हूँ और मेरी उँगलियाँ क़लम पकड़ने को बेचैन होने लगती है। काश! उसके लिए कुछ बेहतर कर पाता!” 

वे कमरे में बायीं ओर लगे स्टडी टेबल के पास रखी कुर्सी पर बैठे रहे। पलकें स्वतः मुँद गईं। चिंतन के द्वार खुल गए और उसमें से बाँध के रुके पानी की तरह विचारों का तेज़ प्रवाह रोके न रुका तो उन्होंने आँखें खोली, ख़ुद को व्यवस्थित किया और कहानी लिखने के लिए डायरी खोली। शीर्षक लिखा . . . ‘फेरीवाला’। 

वह बंगाली नींबूवाला रोज़ की तरह आवाज़ लगाता हुआ आता और प्रो. साहब उससे प्रायः मिलते नींबू, अदरक ख़रीदते और कुछ देर बातें करते। उनकी कहानी का नायक अब उनकी आँखों के सामने ही नहीं, उनके भीतर भी मुस्कुराने लगा था। 

♦    ♦    ♦

“क्या बात है, परेशान दिख रहे हो? आज खाने के बाद आपने आराम भी नहीं किया,” सुवर्णा कुरसी के पीछे खड़ी होकर उनके सिर पर बचे-खुचे दो-चार बालों पर हाथ फिराती हुई पूछ बैठी। सामने मेज़ पर क़लम खुली पड़ी थी। काग़ज़ आगे कुछ और लिखे जाने का इंतज़ार करता नज़र आया। 

“वह बंगाली फेरीवाला कई दिनों से आ नहीं रहा। कहीं उसे भी कोरोना ने . . .” वे अपनी ही सोच से इनकार करते हुए सिर हिलाने लगे, “न! न! उसे कुछ नहीं होगा। वह तो वैसे मुसीबत भरे समय में भी आता रहा। अब तो लॉक डाउन भी ख़त्म हो गया है।” 

“ख़त्म नहीं हुआ, बस, थोड़ी ढील दी गई है। और कोरोना का क़हर अब भी ज़िंदगियों पर टूट ही रहा है। फिर वह तो . . .।” 

“शुभ-शुभ बोलो सुवि!” बेचैनी की गहरी परत प्रो. मल्होत्रा के चेहरे से चिपक गई। 

“मेरा कथानायक इतना कमज़ोर नहीं! शरीर से नहीं आत्मबल से चलता है वह . . . वह पैंसठ साल का युवा नायक जिसे अपनी जान की परवाह नहीं है, जो लॉक डाउन में भी झुके हुए कंधे पर थैला टाँगकर नींबू बेचने का साहस जुटाता है और तब भी महँगा बेचने की नहीं सोचता। ऐसा ईमानदार और कर्मठ . . . नहीं, उसे कुछ नहीं होगा, वह वापस आएगा . . .” वे पलकें मूँदें बुदबुदाते रहे। 

“तुम्हारे यक़ीन की जीत हो। आमीन!” वह वैसे ही सिर पर उँगलियाँ फिराती हुई बोली। पति की उदासी या परेशानी उसे अक़्सर बेचैन कर जाती। 

“चाय पियोगे?” 

“तुम पियोगी?” 

“तुम्हारे साथ पी लूँगी। वैसे भी चार बज चुके। आज थोड़ी देर पहले ही सही,” वह मुस्कुराई। 

पत्नी का यह मौन समर्पण और सहयोग प्रो. मल्होत्रा को भिगो गया। पत्नी का हाथ थामकर उसे सामने कर, कुछ देर टकटकी लगाए देखते रहे, फिर पत्नी की आँखों में उभरे सवाल का जवाब देते हुए बोले, “कभी-कभी सोचता हूँ, बेटे का जाना सह पाया तो तुम्हारी वजह से! तुमने हमेशा मुझे सँभाला है। सच भी यही है, तुम्हारे बिना जीना भूल चुका हूँ। मेरी क़लम आज तक ज़िन्दा है तो तुमसे पाई ऊर्जा के कारण . . . क्या कहूँ, तुम मेरे जीवन की ऐसी अजेय नायिका हो, जिसे शब्दों में उतार पाने की क़ुव्वत मुझमें नहीं। मैं . . .” 

“तुम मेरे जीवन में ही नायक बने रहो, हर एहसास शब्दों में उतरने लगे तो फिर एहसास ही क्या! कुछ अनुभूतियाँ मन के कैनवस पर रंग बिखेरती रहें, यही अच्छा। अच्छा, अब चाय बनाकर लाने दो . . . और ये देखो, आ गया तुम्हारा कथानायक।” 

गली के सिरे से लेमू लेsss का आलाप कानों में पड़ते ही वह ख़ुश होती हुई बोली। प्रो. मल्होत्रा फ़ुर्ती से कुर्सी से उठे और खूँटी पर टँगी क़मीज़ की जेब टटोलने लगे। 

“सुवि! ज़रा पचास का नोट पकड़ाना। देखूँ, कहीं वह चला न जाए!” 

“तुमसे मिले बिना नहीं जाएगा। परमानेंट कस्टमर हो भई!” 

सुवर्णा की चुटकी लेने पर मुस्कुराते हुए वे चुपचाप बाहर निकलने लगे, देखा भी नहीं कि सुवर्णा ने पचास का एक नहीं, दो नोट थमा दिए हैं। 

“उससे कहना, पचास रुपये उसके लिए हैं। कहीं कुछ खा ले, फिर हलकान होता रहे,” पीछे से पत्नी की आती आवाज़ ने पैरों की गति कम की। मुट्ठी खोलकर देखा तो . . . पलटकर प्यार से देखा और सधे क़दमों से सीढ़ियाँ उतरने लगे। 

‘बिना कहे सब समझ जाती है। उस नींबूवाले के प्रति मेरा अनकहा प्रेम भी। और यह बंगाली मोशाय भी जाने कहाँ से मेरे जीवन में आ गया! न देखूँ, न बात करूँ तो मन बेचैन होने लगता है।’ सोच को क़दम के साथ मिलाते दरवाज़े तक पहुँचे तो उसे दरवाज़े को घूरता पाया। 

“कहाँ ग़ायब हो गए थे? और आज तुम्हारा झोला कहाँ है?” 

“दादा चला गया . . . उपोर,” उसने हाथ के इशारे को अपनी बात से जोड़ते हुए समझाना चाहा। ‘बौन बाज़ार नाइ गया। काल (कल) से घौर (घर) में फाका . . . खाने को नाइ . . .” उसकी आँखें छलछलाईं। “सुधु एय है . . .” कहते हुए उसने अपनी मैली जेब से तीन नींबू निकालकर हथेली आगे पसार दी। 

“ओह! अच्छा, ये लो सौ रुपये, पचास के नींबू ख़रीद लेना और पचास का कुछ खाने को ख़रीद लो। ख़ाली पेट कैसे काम करोगे!” 

“काम . . . लेमू तो ओही लाता है। ओ तो हिल बी नाइ सकता। ओ बाच जाएगा न बाबू?” 

“क्या तुम्हारी बहन बहुत बीमार है? . . . अस्पताल ले गए थे?” 

वह मुँह से कुछ न बोला। बस, सिर हिला दिया और हाथ के इशारे से समझाने लगा कि उसे बहन की हालत समझ नहीं आ रही है। सपाट चेहरा और सूनी आँखें रुपये पर टिकाए वह बिना कुछ कहे चलने को हुआ। आज उसके क़दम सड़क पर घिसट रहे थे। कंधे बिना बोझ के, बेजान झूल रहे थे। प्रो. मल्होत्रा उसे जाता देखते रहे। आज उन्हें अपना कथानायक निहायत कमज़ोर और हारा हुआ दिख रहा था। एक अंदरूनी चीत्कार उनके कानों को सुनाई देने लगी। वे समझ गए, उसके फेरी लगाते जीवन का क्लाइमेक्स उसकी बहन के जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। उनका जीवन भी तो . . .

प्रो. मल्होत्रा की आँखों के सामने में लंबी अँधेरी सुरंग में प्रवेश करती ऐसी ट्रेन का दृश्य उभर आया जिसकी पटरी जगह-जगह से उखड़ती जा रही थी। वे भारी मन से पलटे। सीढ़ियाँ अचानक ज़्यादा ऊँची और थकाने वाली लगने लगीं। दिमाग़ में हथौड़े बजने लगे। एक आशंका घुसपैठ करने लगी। अँधेरी सुरंग में बिछी असुरक्षा की हताशा बेहद कमज़ोरी का एहसास कराने लगी। भीतर घुसते ही लड़खड़ाकर कुरसी पर जा बैठे। चेहरे पर मायूसी उतर आई। होंठ हिले, “सुवि! मेरा कथानायक जीवन की अँधेरी लंबी सुरंग में प्रवेश कर रहा है . . . जाने इस कहानी का अंत क्या होगा . . .” 

1 टिप्पणियाँ

  • 28 Dec, 2023 09:23 PM

    बहुत ही भावपूर्ण कहानी। इसमें पाठक के लिए काफ़ी स्पेस है। एक बार शुरू करने पर बिना समाप्त हुए रुक नहीं सका। कथानायक ही नहीं, बल्कि पाठक भी एक गहरी अँधेरी सुरंग में चला जाता है। यही किसी कहानी का प्राण है।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
पत्र
कविता
ऐतिहासिक
स्मृति लेख
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कहानी
किशोर साहित्य नाटक
सामाजिक आलेख
गीत-नवगीत
पुस्तक समीक्षा
अनूदित कविता
शोध निबन्ध
लघुकथा
यात्रा-संस्मरण
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में