पिता के नाम पत्र 

01-06-2022

पिता के नाम पत्र 

डॉ. आरती स्मित (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

प्यारे बाबा! 

सादर प्रणाम! इधर लम्बे समय से तुम्हारी कोई ख़बर नहीं मिली। पिछले तीन वर्षों से बेतार तार भेजते रहे तुम, आना-जाना भी करते रहे तो इत्मीनान बना रहा। मगर इस बीच कोई संकेत-पत्र भी नहीं भेजा तुमने तो पत्र लिखना अनिवार्य हो गया। सोच में पड़ी हूँ, भेजूँ तो किस पते पर? लिफ़ाफ़े को पते की दरकार होती है। क्या पता लिखूँ? . . . और कैसे बताऊँ तुम्हें तुम्हारी प्रिया की हालत? 

बाबा! तुम तो माँ से बेइंतहा मुहब्बत करते रहे, कभी जताना न आया, फिर भी हम सबने महसूस किया था कई बार, तुम्हारे जाने के बाद महसूस रही है माँ हर घड़ी और गिन रही है घड़ियाँ बुलावे की। तुम दूर होकर भी सँभालते रहे थे उसको, हम सब महसूस रहे थे, मगर इधर कुछ दिनों से तुम्हारी चौतरफ़ा ख़ामोशी कुछ और ही कह रही है। तुम्हें जाते-जाते अपना ही नहीं, माँ का वर्तमान और भविष्य भी दिख गया था क्या? तभी तो भविष्य के प्रति उसके विश्वास को तोड़ने के बजाय सिर्फ़ मुस्कुरा दिया करते थे। तीन वर्ष में सारे सपने, सारी उम्मीदें चकनाचूर हो गईं उसकी। साँस लेती चलती-फिरती लाश को एक आसरा था तुम्हारा, मगर तुमने मानो मुँह ही मोड़ लिया और वह रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर पड़ी। क्या उठ पाएगी? या तुम्हारी ही तरह . . . न-न बाबा! ऐसा न होने देना! तुमने तो सबकी पीड़ा–सबके दुर्भाग्य की गठरी अपने काँधे रख ली और विदा हो गए। वह नहीं सह सकेगी! बिखरे रेत को अब किसका आसरा? वह हाथ तो तुम थे . . . तुम्हीं थे। तुम्हारी कही एक-एक बात, एक–एक संकेत रूप लेने लगे हैं। सुना था ‘घरनी से घर होता है’। लेकिन वहाँ तो तुम्हारे निर्मोही होते ही घर मकान में तब्दील हो गया। आँगन उदास हो गया। रसोई सिसकने लगी। चहकन का प्याला ही टूट गया। माँ वर्तमान में अतीत हो गई। उसकी उपस्थिति की खनक शून्य में खो गई। वह है, मगर नहीं है। और हमने यह भी सुना था, ‘मायका माँ से होता है’। हम बेटियाँ तो तुम्हारे जाते ही अनाथ हो गईं। मायका उजड़ गया। तुमने सबकी झलक पा ली थी। सब जान-समझ चुके, भविष्य के कोहराम को रोकने में असमर्थ रहे और पहले से इस कोहराम का संकेत देने का ख़तरा तुम मोल लेना नहीं चाहते थे, नहीं चाहते थे कि माँ की आँखों में संतान के प्रति उम्मीदों का जो प्रिज़्म झिलमिलाता है, वह समय से पहले अँधेरे के हवाले हो जाय! शायद इसलिए समय के हाथों छोड़ दिया था सब कुछ। 

बाबा! समय एक बार फिर वक्र चाल चल रहा है। उसके लक्षण ठीक नज़र नहीं आते। अतीत का वही पन्ना एक बार फिर पुराने रूप में फड़फड़ा रहा है। तुम्हारी नई दुनिया का सुख-दुःख मुझे क्या, हममें से किसी को नहीं मालूम, फिर भी कहती हूँ, बहुत होते हैं तीन वर्ष . . . जब समय जीवन को बोझ बना दे . . . जब केवल साँस ज़िन्दा होने का प्रमाण दे और जीवित होने के मायने शेष न रहें तो अपने उस प्रिय को बिछोह से उबार लेने में ही प्रेम की उदात्तता अभिव्यक्त होती है। . . . तुम ठीक समझे, मैं माँ की ही बात कर रही हूँ। उसे तुम्हारा साथ चाहिए बाबा! अभी या कभी उसे तुम्हारे सिवा कोई नहीं सँभाल सकता। उसके चेहरे का नूर तुम हो और गर्व भी। सँभाल लो एक बार फिर . . . 

तुमने तो जाते-जाते मुझे संकेत और मौन की भाषा की शक्ति समझा दी। तो संकेत को विस्तार से समझना और निर्णायक क़दम उठाना। भले ही यह पत्र तुम्हें ढूँढ़ न पाए, मगर मेरे मौन को तुम बेतार तार से जुड़कर सुनते रहे हो हमेशा। इस बार भी ध्वनि की अनुगूँज तुम्हें ढूँढ़ लेगी, इसका विश्वास है। अपना प्यार-दुलार बनाए रखना और मिलने आते रहना। 

तुम्हारी ही 
लाडो

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