नक़्शे में टँके
ईंट, गारा, छड़, सीमेंट
बनाते हैं मकान
घर कहाँ बन पाता इनसे
'घर'
यह पावन शब्द
अंतस्तल में कहीं
दीप जला जाता है...
माँ की ममता का,
पिता की छत्रछाया का
भाई-बहनों के संग
बालसुलभ शरारतों का
और हर कोने में टँगे
अनदेखे आशीषों का...
पूर्वजों का उपहार!
'घर'
बिंब उकेरता है
दरवाज़े से सटी, खड़ी
या झरोखे से झाँकती
व्यग्र पत्नी का
जो नेह का थाल सजाए
लौटते पति की
निर्निमेष राह तकती है।
'घर'
दृश्य उभारता है
शिशु की किलकारी से
गूँजती छत और दीवारों का;
बच्चों के कोलाहल में
डूबती उतराती माँ का
कहानी सुनाती नानी–दादी का
पीठ की सवारी कराते पिता का
लाठी टेकते, खाँसते बूढ़े दादा का!
‘घर’
अनुगूँज पैदा करता है
मंदिर के घंटे का,
जब आरती के स्वर गूँजते हैं;
पूजा के थाल में
श्रद्धा-पुष्प सजाए जाते हैं
संस्कार के प्रसाद
बच्चों में बाँटे जाते हैं
गीता और रामायण से
धर्म, कर्म और मर्यादा का
सबक सिखाया जाता है।
'घर'
हाँ! यह पावन शब्द
ईंट, गारे, छौनी-छप्पर से नहीं
ममता, क्षमता, नेह और
आशीष के कंक्रीटों से तैयार
आत्मीयता के
एहसास से बना है
जहाँ
हम में से हरएक को
अपने होने का एहसास होता है।
'घर'
हाँ!
घर ही तो
हमें पूर्ण बनाता है।
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