गाँधी: व्यक्ति से समाज

01-10-2022

गाँधी: व्यक्ति से समाज

डॉ. आरती स्मित (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

‘गाँधी‘, जो जातिगत उपनाम से व्यक्ति विशेष के लिए रूढ़ हो गया। 

‘गाँधी‘ जो व्यक्ति से समाज हो गए। 

‘गाँधी‘ जो विश्वव्यापी पटल पर एक मिसाल छोड़ गए—आत्मोत्कर्ष से समाजोत्कर्ष का और समाजोत्कर्ष से
आत्मगत मोक्ष का। 

समाज के परिप्रेक्ष्य में गाँधी को देखने की कोशिश करने पर, लोक का हर चेहरा—हर वह चेहरा जो दमन, शोषण, अशिक्षा, भूख, ग़रीबी और अपमान की मार से आहत था; जो त्राण पाने के लिए किसी मसीह की राह देख रहा था और हृदय में एक चेहरा अंकित किए था—वह गाँधी को बिंबित कर रहा था। 

गाँधी जो अपने गुजराती समाज के आम बच्चों में से एक दिखते थे; जो बचपन से शरमीले, औसत मेधा वाले, कल्पनाशील, संवेदनशील, हठी और जिज्ञासु थे समाज के औसत बच्चों की ही तरह, मगर उनकी जिज्ञासा की दिशा कहीं न कहीं आम बच्चों की भीड़ से अलग, गंभीर चिंतन की ओर ले जाती है। और चिंतन का विषय तो बचकाना हो ही नहीं सकता। जैसे—4 वर्ष की उम्र में, मंदिर के बाहर भिखारी को भीख देने के प्रसंग में यह सोचना कि “भिखारी क्यों होते हैं? क्या इनके पास कोई काम नहीं? ये कहाँ से आते हैं? क्या इनके पास घर नहीं? इनके बच्चे पाठशाला क्यों नहीं जाते, जैसे कि भैया, करसन और मैं जाते हैं? क्या इनके बच्चे भी भीख ही माँगेंगे?” आदि-आदि। 

इसी प्रकार, बीमार होने के प्रसंग में यह चिंतन, “जब भैया, करसन और मैं बीमार पड़ते हैं तो अँग्रेज़ डॉक्टर बुलाए जाते हैं, जो जूते भी नहीं उतारते और पिताजी से ‘हॅलो गांडी‘ कहकर हाथ मिलाते हैं। पिताजी उनसे जूते उतारने भी नहीं कहते और ख़ुशी-ख़ुशी हाथ मिलाते हैं, जबकि रलिता दीदी के बीमार पड़ने पर डॉक्टर नहीं बुलाए जाते। वैध जी से कड़वी दवा मँगाकर दी जाती है। रलिता दीदी के लिए डॉक्टर क्यों नहीं बुलाए जाते?” 

चार से छह वर्ष की उम्र में ऐसे कई विचार, जो व्यक्ति को सीधे समाज से जोड़ते हैं और विमर्श की माँग करते हैं, बालक मोहनदास का मन-मस्तिष्क उनसे होकर गुज़रता था, आंदोलित होता था। इसी प्रकार, 8-9 वर्ष की उम्र में अछूत बच्चे को छू देने के प्रसंग में माँ द्वारा डाँटना और फिर नहला दिया जाना, बाद के दिनों में भी इसी घटना की पुनरावृत्ति और इस तरह की तमाम घटनाओं से गुज़रते मितभाषी और शरमीले बालक मोहनदास के भीतर एक गंभीर चिंतक गाँधी की चेतना नज़र आती है जो वर्ण, वर्ग और लिंग भेद के कारण समाज में व्याप्त कुरीतियों को पूरी तरह न समझ पाने पर भी उनपर चिंतन करता है और मौन विरोध अवचेतन में पलने लगता है। ये प्रसंग। घटनाएँ इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं कि गाँधी बचपन से ही समाज के वंचित, उपेक्षित श्रमिक वर्ग के प्रति संवेदनशील थे। 

माँ पुतलीबाई और पिता करमचंद गाँधी की सीख उन्हें सत्य और अहिंसा का मार्ग दिखाती है तो विद्यालय में घटित अति साधारण प्रतीत होने वाली घटनाएँ उन्हें अन्याय के विरुद्ध खड़ा रहने की ताक़त देती हैं। हर हाल में सत्य पर अडिग रहने की दृढ़ता बचपन के हठीले स्वभाव से आती है तो सहनशीलता ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक से। ‘श्रवण कुमार’ नाटक ने सेवा भाव की नींव रखी तो भागवद्गीता, रामायण, उपनिषद सहित बाइबिल आदि धर्मग्रंथों, शाकाहार से अध्यात्म मार्ग का ज्ञान करानेवाली पुस्तकों, सहित टॉलस्टाय की ‘दि किंगडम ऑफ़ गॉड इज़ विदिन यू’ और जॉन रस्किन की ‘अन टू दि लास्ट’ नामक पुस्तकों ने सर्वधर्म समभाव और समाज के अंतिम व्यक्ति के प्रति न्याय भावना को बढ़ाया। 

सभी जानते हैं, फिर भी दुहराना अपेक्षित है कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व की निर्माण प्रक्रिया माँ के गर्भ से शुरू होकर, परिवार, मुहल्ला/पड़ोस, विद्यालय और संगी-साथी से होते हुए पुस्तकों और उनके साथ ही परिवेश के बढ़ते दायरे तक पहुँचती है। ये सभी व्यक्तित्व-निर्माण की वे सीढ़ियाँ हैं जिसे पार करके ही व्यक्ति युवा होता है—एक परिपक्व व्यक्तित्व जिसे अपने कार्य-व्यवहार से अब सब कुछ लौटाना होता है, जो उसने परिवार और समाज से लिया था। और, तभी उसकी ऋण-मुक्ति होती है। 

गाँधी के जीवन की यात्रा करने पर वे तमाम बातें, तमाम प्रसंग जो उनके जीवन के टर्निंग पॉइंट लगते हैं या उनके सामाजिक व्यक्तित्व की झलक दिखाते हैं, उन सबकी नींव तो उनके प्राथमिक शाला जाने से पूर्व ही पड़नी शुरू हो गई थी और छात्र जीवन में पूर्णता के निकट पहुँच गई जब वे इंगलैंड से लौटे थे। उसके बाद तो जो भी हुआ, वह ऋण-मुक्ति के एक दौर की तरह प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे विराटता को प्राप्त करता गया। मेरिट्सबर्ग की रेलयात्रा की घटना या पेडकोर्फ़ की बग्घी वाली घटना अन्याय के मौन विरोध को सँजोते, सहनशीलता की परीक्षा देते हुए सत्य पर अडिग रहने की दृढ़ता का स्व मूल्यांकन करना मात्र नहीं था, यह गाँधी द्वारा बचपन से दबी चिनगारी को हवा देना था जो बीच के कालखंडों में राख के ढेर में छिपी थी। निश्चय ही इन घटनाओं ने बैरिस्टर गाँधी के भीतर के उस गाँधी को सचेत किया जो दक्षिण अफ़्रीका के नेटाल और जोहान्सबर्ग के इतिहास में सत्याग्रह का नवीन और अद्भुत पृष्ठ जोड़ गया। इतना ही नहीं, बोअर युद्ध और ज़ुलू विद्रोह में घायलों की सेवा का बीड़ा उठाए, रणभूमि में बरसती गोलियों के बीच में से स्ट्रेचर पर घायलों को उठाकर साथियों के साथ पच्चीस से चालीस किलोमीटर तक उनका चलते जाना भी, वैश्विक स्तर पर समाज को सेवा-भाव का अर्थ समझाता है। 

गाँधी की दृष्टि में ‘नेटाल इंडियन काँग्रेस का उद्देश्य तब पूरा हुआ जब वे धर्म, जाति, लिंग, वर्ग भेद मिटाने के साथ ही दलित, शोषित श्रमिक वर्ग को संगठन से जोड़ पाए। दक्षिण अफ़्रीकी भारतीयों की मनोव्यथा को आत्मसात कर, समाधान ढूँढ़ने, पगड़ी का सम्मान करने और स्वाभिमान की रक्षा करते हुए अधिकारों के प्रति जाग्रत करने का जो बड़ा काम गाँधी ने किया, वह उनकी अंत: प्रेरणा का प्रभाव था। सत्य और अहिंसा ने उनकी अंत: चेतना, अंत: शक्ति को उभारा; अंत: चेतना ने दूरदृष्टि और अंत: शक्ति ने उनकी काँपते मन को स्थिर, संतुलित वाणी दी। वे दक्षिण अफ़्रीकी भारतीयों को को एकसूत्र में बाँधकर और संगठित शक्ति का उपयोग कर नेटाल की गोरी सरकार पर दबाव बना पाए; उनके हिंसात्मक व्यवहार का उत्तर अहिंसात्मक तरीक़े से देते हुए अँग्रेज़ी सरकार के समक्ष अपनी माँग रख पाए। 

गाँधी के कई अँग्रेज़ मित्र हुए, मगर व्यक्तिगत लाभ के लिए कभी उनसे सहयोग नहीं लिया, यहाँ तक कि अँग्रेज़ मित्रों के कहने पर भी उन्होंने अपने बच्चों का दाख़िला अँग्रेज़ी स्कूल में नहीं दिलवाया। उनकी दृष्टि में यह मित्रता के नाम पर स्वार्थ साधना था, दूसरी ओर उनका यह प्रबल हठ था कि जो सुविधा वहाँ के सभी भारतीयों को उपलब्ध नहीं है, उसका लाभ वे अपने या परिवार के लिए नहीं लेंगे। वे अपवाद नहीं बनना चाहते थे। समाज के लिए आत्मोत्सर्ग के साथ ही पूरे परिवार को उत्सर्ग कर देना इतना आसान नहीं। इतना ही नहीं, अपने ऊपर हुई हिंसा के विरुद्ध शिकायत दर्ज़ न करवाने का उनका निर्णय भले ही उनके मित्रों को विचित्र लगता रहा, मगर गाँधी का उद्देश्य साफ़ और स्पष्ट था। वे समाज के अंग के रूप में, समाज के साथ खड़े होकर, समाज के लिए माँग करते थे; समाजोत्थान/समाजोद्धार और समाजोन्नयन उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य बन गया था, अलग बात है कि उनके समाज की व्याप्ति सुरसा के मुँह की तरह होती जा रही थी। 

अपने घर का अस्पताल की तरह उपयोग त्रस्त जनता को राहत देना, पीड़ितों की सेवा करना गाँधी की सादगी और सेवा का एक अभिन्न अंग था, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो। यहाँ गाँधी कभी थ्योरो के सिद्धांत के साथ खड़े तो कभी स्वामी विवेकानंद के पार्श्व में खड़े नज़र आते हैं, विशेषकर, समाज में व्याप्त भूख, ग़रीबी, अशिक्षा बाल-विवाह और स्त्री–पुरुष में असमानता जैसे मुद्दों पर निर्णय सुनाते तथा कार्य करते हुए वे विवेकानंद से प्रभावित प्रतीत होते हैं। स्वामी विवेकानंद ने जिन सेवा और शैक्षिक कार्यों को आरंभ किया था, गाँधी उन्हें व्यापक फ़लक पर पहुँचाते नज़र आते हैं। परस्पर मुलाक़ात और वैचारिक आदान-प्रदान न होने पर भी संभवत: पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से वे विवेकानंद के लेख पढ़ते होंगे। 

गाँधी के सामाजिक जीवन की विडंबना यह रही कि उन्होंने दूसरे देश में, जिसे वे ‘ईश्वरविहीन देश’ कहते थे, वहाँ कुछ अपरिपक्व नियम प्रयोग के तौर पर बनाए, उसपर अमल किया और विश्व भर में अनूठा ‘फ़िनिक्स आश्रम’ और दूसरा ‘टॉलस्टाय आश्रम’ स्थापित कर समतामूलक समाज की परिकल्पना को सच और सफल रूप में संचालित करके दिखा दिया; अपने देश में भी अपने अनपढ़ भाई-बहनों को स्वावलंबन, शिक्षा और सत्याग्रह का महत्त्व समझा पाए, किन्तु अपने बुद्धिजीवी साथियों और अनुयायियों की बुद्धि में अपनी बात न अँटा पाए। उनके बौद्धिक साथी यह भूल गए कि गाँधी किसी भी सत्य को तभी स्वीकारते हैं, जब प्रयोग करते हैं और सफलता पाने के बाद ही समाज को उस सत्य को स्वीकारने की सलाह देते हैं। गाँधी किसी भी सिद्धांत को भेदते हुए अर्थ की तह तक जाते थे, व्यावहारिकता की कसौटी पर उसके अर्थ के ब्रह्मत्व की अनुभूति करते थे, फिर उजागर करते थे। समाज के प्रत्येक वर्ण और वर्ण की पीड़ा आत्मसात करते-करते वे व्यक्ति से समाज हो गए थे। देश का कोई कोना शायद ही बचा हो जिसकी पीड़ा आत्मिक स्तर पर उन्होंने न भोगी हो और उनके उन्मूलन का प्रयास न किया हो। इस अधनंगे फ़क़ीर ने अपने भीतर समूचा भारत समाहित कर लिया था। वह भारत जो किसानों, भूमिहीन मज़दूरों, महिला श्रमिकों, बुनकरों, जुलाहों तथा अन्य श्रमजीवियों का देश था। गाँधी उन सबके थे और वे सब गाँधी के थे। उन सबका शारीरिक, मानसिक, शैक्षणिक, आर्थिक —सामाजिक उत्थान ही गाँधी का ध्येय था। ध्येय था समतामूलक समाज की स्थापना का। सेवाग्राम, साबरमती, अनासक्ति आश्रम गाँधी का स्पंदन महसूसने वाले प्रसिद्ध स्थल हैं। कौसानी में आज भी प्रार्थना सभा और सात्विक भोजन की परंपरा क़ायम है किन्तु ऊर्जाविहीन उस वायुमंडल में जाने कैसी निराशा व्याप्त है। गाँधी की कर्मठता का अनुसरण कहीं क्यों नहीं! यह एक बार रुककर सोचने को विवश करता है। 

गाँधी को महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भले ही पहली बार ‘महात्मा’ लिखकर संबोधित किया हो किन्तु उन्हें महात्मा मानने और इसी रूप में जयघोष करने वाले चंपारण का किसान समाज है, जिन्होंने 1917 में पहली बार बिना उपद्रव मचाए, बिना कोई हिंसा किए, अपनी मौन उपस्थिति दर्ज़ की और अदालत के लिए किसानों का यह व्यवहार न सिर्फ़ नया बल्कि हिला देने वाला था। एकता और अहिंसा का बल किसानों ने भी महसूस किया और ‘महात्मा गाँधी’ नाम के जयघोष से आसमान गूँज उठा। समाज का यह रूप गाँधी के लिए भी नया था। गाँधी को नाम से ही अंतस से भी महात्मा बनाने वाला चंपारण का कृषक-मजदूर समाज ही था। गाँधी वास्तव में भूख, ग़रीबी, अस्वच्छता, और अशिक्षा और उसपर से दमन के कारण उत्पन्न भयावह स्थिति की झलक चंपारण में ही पा सके थे जब उन्हें पता चला कि उस गाँव की एक महिला के पास दूसरी साड़ी ही नहीं, जिसे वह नहाकर पहन सके और उनसे मिलने आ सके। इस सूचना ने गाँधी के अंतस को व्यथा के इस तीखे एहसास से भर दिया कि उस दिन से उनकी पगड़ी और तन पर से कुरता उतर गए, सिर्फ़ एक धोती में अपने शरीर को हर ऋतु में साधने का संकल्प सचमुच तपस्वी का संकल्प ही था। उस दिन से ही सूखे मेवे की जगह मूँगफली ने ले ली।

गाँधी के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो गाँधी ने चंपारण को कितना बदला, इससे भी अधिक महत्वपूर्ण विषय है— ‘चंपारण ने गाँधी को कितना बदला।’ चंपारण ने गाँधी के उन समस्त आत्मगुणों को शिखर पर पहुँचाने योग्य परिस्थिति अपने आप उत्पन्न कर दी। गाँधी आत्मबली हो गए, ऐसे आत्मबली, जिन्हें टक्कर देने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। ग़ौर करें तो इसके बाद ही उन्होंने अपने देश की आज़ादी के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लिए और ‘करो या मरो’ की उच्चतम स्थिति तक पहुँच गए। गाँधी राजनीति से संबद्ध रहनेवाले समाजसेवी के रूप में गए थे, लौटे तो आत्मरूप प्राप्त कर चुके थे। मानवता की रक्षा की चिंता ही उनके चित्त पर शेष थी। स्वस्थ भारतीय समाज के संचालन की प्रक्रिया ही उनकी सोच में समाई थी। राजकुमार शुक्ल अनपढ़ नहीं थे, वे अपनी डायरी कैथी लिपि में लिखते थे, आज़ादी के बाद कैथी लिपि खो गई या जानबूझकर उस लिपि को दरकिनार कर दिया गया, यह अलग विषय है, किंतु राजकुमार शुक्ल देवनागरी या अंग्रेज़ी में नहीं लिखते थे, इस आधार पर उन्हें अनपढ़ कहना या उनके लिखे को नकारना गाँधी की दिनचर्या के प्रामाणिक साक्ष्य को मिटाने जैसा होता। संतोषजनक बात यह है कि बिहार के विधान परिषद के अधिकारी, श्री भैरवलाल जो कैथी लिपि के जानकार हैं, उन्होंने प्रयास करके उसका प्रकाशन देवनागरी लिपि में करवा दिया है। उनके अनुसार मॉरीशस में आज भी गाँधी के विषय में बहुत-सी महत्वपूर्ण जानकारियाँ कैथी लिपि में किसी के पास है और नष्ट हो रही हैं, उन्हें बचाने के लिए, यहाँ लाकर पढ़ने और अनुवाद करने के लिए वे प्रयासरत हैं। प्रसार भारती से संबद्ध अधिकारी मधुकर उपाध्याय कई वर्षों से इस क्षेत्र में बिखरे गाँधी से जुड़े एक-एक पल को चुनने जैसा सुकार्य कर रहे हैं। कारण, गाँधी आज भी चंपारण, उसके आसपास के क्षेत्रों सहित राँची के कुछ भागों में जीवित हैं—केवल संग्रहालय या प्रार्थना में नहीं, जीवन में। समाज ने गाँधी को अपने भीतर ऐसा बसाया कि आज एक सौ दो वर्ष के बाद भी गाँधी उनके आचरण में मुस्कुराते नज़र आते हैं। चंपारण के आसपास थारू जनजाति के लोकगीतों में गाँधी अपने चरखा सहित आज भी मौजूद हैं। लगभग 135 लोक गीत संकलित किए जा चुके हैं।

सन्‌ 1942 में ‘हरिजन’ में गाँधी ने लिखा था, “अगर व्यक्ति का महत्व न रहे तो समाज का भी क्या सत्व रह जाएगा।”

इससे पूर्व 1937 में उन्होंने लिखा था, “सच्चा समाजवाद तो हमें अपने पूर्वजों से प्राप्त हुआ है जो हमें सिखा गए हैं कि ‘सब भूमि गोपाल की है’ इसमें कहीं मेरी और तेरी की सीमाएँ नहीं हैं । ये सीमाएँ आदमियों ने बनाई हैं और इसलिए वे इन्हें तोड़ भी सकते हैं। गोपाल यानी कृष्ण भगवान।”

आज, आज़ाद भारत में गाँधी 102 खंडों, संगोष्ठियों, आलोचनात्मक पुस्तकों और पाठ्यक्रमों से निकलकर थोड़ी साँस गोहाटी के एक पंचायत में ले रहे हैं। पंचायत का नाम स्मरण नहीं। वहाँ पिछले कई पीढ़ियों में ज़मीन को लेकर कभी कोई झगड़ा या मुक़दमा नहीं हुआ। कई पीढ़ियों से एक ही व्यक्ति के नाम पर ज़मीन है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसी ज़मीन को सींचती और उससे उपजे अनाज से ख़ुश रहती है। ज़मीन बढ़ाने की कोई ललक नहीं। वहाँ के ग्रामीण से पूछने पर ग्रामीण का ज़वाब था, “ज़मीन हमारी तो है नहीं। वह तो हरि (भगवान) की है।हम ज़मीन का उपयोग करते हैं, सरकार इसका मालगुज़ारी माँगती है तो हम देते हैं। (ज़मीन का टुकड़ा दिखाते हुए) गाँधी कहकर गए थे कि ‘सब भूमि गोपाल की है। तुम सिर्फ़ इसका उपयोग कर रहे हो, वहीं तक सीमित रहो, उसे बढ़ाने की ज़रूरत नहीं है।’ हम उसी को मानकर चल रहे हैं। हमारे दादा, छोटे दादा के बीच कभी झगड़ा नहीं हुआ, हमारे पिताजी और चाचा लोग का भी नहीं हुआ, हमारा भी भाई में झगड़ा नहीं और हमारा बच्चा भी नहीं लड़ेगा, जितना मिलेगा,उसी पर काम करेगा।” संतोष का ऐसा अनूठा उदाहरण उस ग्रामीण समाज में ही संभव हुआ। गाँधी का ग्राम स्वराज्य यहाँ स्थापित है।

गाँधी ने लिखा था, “मैं जितनी बार चरखे पर सूत निकालता हूँ, उतनी ही बार भारत के ग़रीबों का विचार करता हूँ।”

“मैं चरखे के लिए इस सम्मान का दावा करता हूँ कि वह हमारी ग़रीबी की समस्या को लगभग बिना ख़र्च किए और बिना किसी दिखावे के अत्यंत सरल और स्वाभाविक ढंग से हल कर सकता है। वह राष्ट्र की समृद्धि का और इसलिए उसकी आज़ादी का चिह्न है।”

इस विचार को आज भी राँची के ताना भगत (जिन्हें जात्रा उरांव भी कहा जाता है) समुदाय में जीवंत देख सकते हैं। गाँधी ने स्वतंत्र भारत के लिए जो सपना देखा था, वह उस भू-भाग में साकार हुआ। चंपारण यात्रा के दौरान जब गाँधी वहाँ रुके थे तो इसी बीच उन्होंने राँची के उस इलाक़े का भी दौरा किया था। जिस दिन गाँधी ताना भगत से मिले थे, वह गुरुवार का दिन था, आज भी वे लोग गुरुवार को कोई व्यावसायिक काम नहीं करते। प्रवचन और सामूहिक प्रार्थना की जाती है। उनके खेतों में आज भी पारंपरिक बीज बोए जाते हैं, देसी गाय द्वार पर बँधी होती है। वे हर रोज़ तुलसी चौरा में तिरंगा लगाकर उसकी पूजा करते हैं और भजन की तरह राष्ट्रगान गाते हैं। शाम को तिरंगा उतार लिया जाता है। वे अहिंसावादी हैं। सिर्फ़ धोती पहनते हैं। तन पर खादी का जनेऊ धारण करते हैं। सिर पर गाँधी टोपी पहनते हैं। प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जितनी ज़रूरत है। बिहार (उस समय झारखंड भी शामिल था) के दूरदराज़ इलाके में भी गाँधी के आह्वान पर ये लोग सिर पर खाने की पोटली लिए पैदल निकल जाते थे और गाँधी की भाषण को सुनते थे।

आश्चर्य इस बात का ही नहीं कि ये गाँधी के नाम पर क्यों रोज़ी-रोटी की चिंता किए बिना उनकी बात सुनने आते थे, आश्चर्य इस बात का भी है कि जब गाँधी को इन्होंने देखा-सुना नहीं था, तब भी 1913-14 में शुरू हुए इनके आंदोलन में गाँधी के विचारों की छाप थी। अहिंसा मार्ग पर चलते हुए ही एक साथ ब्रिटिश सरकार, ज़मींदार, अफ़सर और पूँजीपतियों के विरुद्ध उन्होंने आंदोलन छेड़ा था और 1922 तक यह आंदोलन चला था। बाद में सरकार के दमन चक्र में सब के सब जेल में ठूँस दिए गए और 4332 एकड़ ज़मीन ज़ब्त कर ली गई। आज़ादी के बाद मात्र 634 एकड़ ज़मीन लौटाई गई। वे लड़े नहीं, कुछ नहीं कहा, बस इतना कहा, “ये ज़मीन सरकार की है क्या? ज़मीन तो परमेश्वर की है।”

एक बार एक नक्सली एक ताना भगत के घर ज़बरदस्ती घुस गया। वह एक महीने तक पूरे परिवार को सताता रहा, ताकि वे लोग डरकर सब कुछ छोड़ कर भाग जाएँ। वे लोग सहते रहे, मगर किसी ने हिंसा का जवाब हिंसा से नहीं दिया और न ही डरकर घर छोड़ा। ताना भगत के इस व्यवहार ने उस नक्सली युवक का मन बदल दिया। उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ, उसने अपने आपको अपराध की दुनिया से बाहर निकलने और सामान्य जीवन जीने के लिए माफ़ीनामा और आवेदन भरा। आज वह नौकरी करता है। उसने गाँधी को नहीं देखा, पर ताना भगत पर गाँधी के प्रभाव मात्र से बदलने पर विवश हो गया। 

इन उल्लेखों से मेरा अभिप्राय बस इतना है कि गाँधी आज भी ग्रामीण समाज में किसी न किसी रूप में मौजूद हैं। आदिवासी समाज, चाहे ग्रामीण हो या पहाड़ी, बिना गाँधी को देखे, उनके नाम मात्र से उनके लिए समर्पित था। राजमहल की पहाड़ी पर रहते पहाड़िया समुदाय के तत्कालीन सरदार बड़कु पहाड़िया ने जब सुना कि ‘गंडी महात्मा आज़ादी दिलाएगा’ वे अपने युवकों की टोली बनाकर अपने तरीक़े से असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। गाँधी उन्हें जान भी नहीं पाए और वे भी जीवन के अंतिम क्षण तक गाँधी के दर्शन को तरसते रहे। यह थे गाँधी! यह था उनका वृहत्तर समाज, जो उन्हें मसीहा मानता था, मगर राजनीति की ऊँचाई पर बैठे उनके तथाकथित अपने ही उन्हें समझ नहीं पाए। 

सार रूप में यही कि गाँधी को जिसने समझा, उसने अपने भीतर सत्याग्रह घटित होता अनुभव किया है। पूरा का पूरा गाँधी अपने भीतर समा पाना असम्भव प्रतीत होता है, किन्तु यदि व्यक्ति उनके सर्वधर्म समभाव और समतामूलक समाज की परिकल्पना पर पुनर्विचार करके आचरण में उतार ले तो देश में बदलाव आने से कोई नहीं रोक सकता। समय है रुककर स्वयं से पूछने की, “क्या शिक्षित समाज इसके लिए तैयार है? 

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