गणित

डॉ. आरती स्मित (अंक: 248, मार्च प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

कुछ सरसराता हुआ महसूस हुआ तो नींद में ही उसका हाथ उठकर चेहरे से जा लगा। हाथ से गाल पर सुगबुगाते कीड़े को हटाते हाथ अँधेरे में मोबाइल टटोलने लगे। मोबाइल का टॉर्च जला तो बिस्तर पर दो तिलचट्टे आराम से चलते नज़र आए। “लगता है, एक मादा, एक नर है। आगे-आगे माँ, पीछे-पीछे बच्चा। जब तक माँ की ज़रूरत है, तभी तक पीछे-पीछे डोलेगा। उसके बाद . . .” एक लंबी साँस खींचकर छोड़ते हुए वह ख़ामोश हो गई। उसने उन्हें बिस्तर से हटाने के लिए हाथ बढ़ाया, फिर बढ़े हाथ रोककर उन्हें जाता देखती रही। मोबाइल पर समय दमक रहा था। “3:40ए.एम. क्या करूँ, लेट जाऊँ?” ख़ुद से संवाद करने की मजबूरी कब बुदबुदाहट की शक्ल में बदल गई, उसे ठीक-ठीक याद न आया। उसने कभी सोचा नहीं। ध्यान ही नहीं गया इस तरफ़। वह वैसे ही बैठी रही। तिलचट्टे रेंगते हुए बिस्तर से विदा हो चुके थे। 

“ब्रह्म मुहूर्त है। इस समय सोना ठीक नहीं। नहीं तो फिर अटपटे-से या डरावने सपने आएँगे और नींद में ही मेरा बीपी बढ़ जाएगा,” वह फिर बुदबुदाई। 

बिस्तर से नीचे पैर उतारने लगी तो बाएँ पैर ने बग़ावत कर दिया। नसों की कनकनी भीतर तक बेध गई। “आह!” का अस्फुट स्वर उभरा और बंद कमरे में पसरे अँधेरे में गुम हो गया। 

“आज छोटा कबूतर सोया नहीं! वह ठीक तो है?” चिंता की लहर उसके चेहरे पर दौड़ गई। इकसठ की होने के बावजूद झुर्रियों ने उस चेहरे पर क़ब्ज़ा नहीं जमाया था। उसकी पहले से छोटी हो गईं बड़ी-बड़ी और गहरी आँखें अब भी खिड़की की जाली के बाहर बालकनी की रेलिंग से लगी, लोहे की उस दो इंच चौड़ी पट्टी पर टिकी थीं, जहाँ वह सोया करता था। और उसे देखकर उसने जाना था, पक्षी बैठे-बैठे सोया करते हैं। उसे बापू से जुड़ा प्रसंग याद आ गया जब मुंबई में वक़ालत की प्रैक्टिस के दौरान, ख़ाली समय में में वे कुर्सी पर बैठे-बैठे छोटी नींद लेकर शरीर-दिमाग़ को आराम देते थे और बाद में तो इसका अभ्यास ही शुरू कर दिया था। उसने सिर घुमाकर नज़रें ऊपर उठाईं तो माथे पर चिंता की रेखा खिंच गई। बालकनी में बँधी ऊँची डोर पर आज कबूतरी भी नहीं थी। “हे प्रभु! दोनों ठीक हों,” वह फिर बुदबुदाई। हाथ अपने-आप प्रणाम की मुद्रा में जुड़ गए, पलकें मुँद गईं। बिस्तर के सिराहने से लगी यह खिड़की उसके अकेलेपन को हरने की दवा थी। वह यों ही खिड़की से बाहर बालकनी, रेलिंग और उससे बाहर गली के ऊपरी हिस्से की शून्यता में विचरते कबूतरों, मैनाओं को निहारती रहती थी। 

अपने खिचड़ी हो रहे बालों में उँगलियाँ फिराकर उसे सहलाती-सुलझाती हुई वह बिस्तर से नीचे उतरी। स्लिपर पैर में घुसाते हुए भी दर्द ने मुँह चिढ़ाया मगर उसने परवाह न की। स्लिपर का ऊपरी हिस्सा पैरों को ढँक चुका तो वह डाइनिंग हॉल की तरफ़ बढ़ी। उसके कमरे से लगकर ही डाइनिंग हॉल था और उसी हॉल में खुली रसोई थी और रसोई से जुड़ा दरवाज़ा था जो इस फ़्लैट में दाख़िल होने के लिए मुख्य द्वार के रूप में था। यानी दरवाज़ा खुलते ही रसोई के दर्शन होते जहाँ स्लैब से लगा छुटकू-सा वाश बेशिन था और उसके बाद ग़ुस्लख़ाना। ग़ुस्लख़ाने की एक दीवार आदि के कमरे की दीवार में बदल जाया करती थी। वह अपने कमरे से सीधा आदि का कमरा देख पाती थी। आदि-आदित्य कश्यप, उसका बेटा पिछले पाँच-छह वर्षों से अपने सपने, अपने अमीर बनने के सपने को साकार करने में दिन-रात लगा रहता। उसे लगा, वह अपने कमरे के मुहाने पर खड़ी वर्षों से इंतज़ार कर रही है कि कभी तो आदि आगे बढ़कर आएगा और उससे ढेर सारी बातें करेगा, जैसे बचपन में किया करता था। 

कमरे का दरवाज़ा खोलते ही उसकी नज़र सामने के बंद दरवाज़े पर टिक गई। वह कुछ पल खड़ी बंद दरवाज़े को निहारती रही, फिर सधे क़दमों से वाश बेसिन की तरफ़ बढ़ गई। 

‘इंसान के बच्चे ज़रूरत के समय भी माँ के पीछे कहाँ घूमते हैं। वे ज़रूरतें उन्हें अपना अधिकार लगती हैं—जन्मसिद्ध अधिकार, जिनकी आपूर्ति माँ-बाप का कर्त्तव्य है और जिनके किए जाने का उनकी नज़रों में कोई मोल नहीं होता। एक कड़वा प्रश्न लिए घूमते हैं, जब परवरिश नहीं कर सकते तो जन्म क्यों दिया? . . . सच ही तो है, जन्म दिया है तो त्याग की माला मत जपो कि अपने करियर पर फ़ोकस नहीं हो सकी। आया के भरोसे न छोड़ा जाए, यह स्त्री का, एक माँ का निजी निर्णय या परिवार का निर्णय होता है। फिर बच्चे को सुनाने का, एहसान जताने का क्या अर्थ है! मगर जब बच्चे में समझ बनती है, वह तब भी नहीं समझता तो तकलीफ़ होती है।’ बुदबुदाहट सोच का जामा पहने उसके दिल-ओ-दिमाग़ में विचरती रही। 

‘आदि भी कहाँ समझ पाया कि उसकी जानलेवा बीमारी और देखभाल के लिए एक तरफ़ धन की ज़रूरत थी तो दूसरी तरफ़ देखभाल की। नया शहर, अनजाने लोग! पुरानी पहचान की गठरी तो वहीं फेंक आई थी। उसे छोड़कर न आठ घंटे की नौकरी कर पाना सम्भव था, न पूरी तरह बैठे रहना। कैसे बिताए वे दिन, ओह! आज भी सोचकर सिहरन होती है। ईश्वर ही साथ थे . . . हैं, वरना . . .’ उसे अपने चेहरे पर दो गरम बूँदों की ढुलकन का एहसास हुआ तो चेहरा दोबारा धोया और चुपचाप दबे पाँव अपने कमरे की ओर बढ़ चली। 

‘प्रार्थना में भी जी नहीं लग रहा। मन उचाट है। पिछले बीस वर्षों के संघर्षों ने अलग-अलग रूप लेकर भीतर-बाहर से खोखला कर दिया है। आज हथेलियाँ रीति हैं। रेखाएँ ग़ायब। भीतर-बाहर रेत ही रेत।’ सोच में डूबी वह मोबाइल देखने लगी। ‘भोर के 4:20 हुए। अभी बालकनी से आसमान में चमकता भोर का तारा दिखेगा और मुस्कुराता चाँद भी। शुक्ल पक्ष की रात यों भी सुहानी लगती है।’ 

उसने हौले से दरवाज़ा खोला और बाहर निकल आई। बड़े दिनों बाद इस बेला की अनुभूति सुखद लगी। दूर कहीं किसी चिड़िया की मधुर आवाज़ कानों में रस घोल गई। हवा की छुअन ने मन गुदगुदाया तो भूले-बिसरे पल याद आने लगे। कितनी देर खड़ी पल-पल को जीती रही, ज़रा भी भान न हुआ। ‘क्षितिज पर फैली लालिमा, उषा की दस्तक इस बालकनी से कहाँ मिल पाती है! आँगन की बात ही कुछ और थी। माँ तड़के जगा देती तो वह आँगन में चक्कर लगा-लगाकर सोने जा रहे तारों से बात करती तो कभी आँगन से पूरब दिशा में उषा के रथ पर सवार सूरज के आने की सूचना क्षितिज पर फैली लालिमा दे जाती तो वह हुलसकर उसी दिशा में मुँह किए देर तक खड़ी रहती। माँ भजन गुनगुनाती हुई सुबह के काम निबटाती रहती। कहती, “सूरज देवता के आने से पहले बिस्तर छोड़कर और घर-आँगन झाड़-बुहार लेने से वो परसन्न होते हैं। असीसते हैं। बुद्धि और बल बढ़ाते हैं।” माँ का विश्वास वक़्त के साथ कितना टूटा, कितना बना रहा, यह तो कभी पूछा नहीं, मगर अपनी गिरती सेहत के कारण माँ का ब्रह्म बेला में उठकर आँगन में प्रकृति को महसूसना धीरे-धीरे बंद क्या हुआ, उनके चेहरे की नैसर्गिक आभा और भजन के वे बोल भी चले गए। माँ गुनगुनाना भूलती चली गई। आज तो उसी घर-आँगन में ख़ुद को भी अजनबी की तरह पाती है। तारे अब भी सजते हैं, उषा अब भी दस्तक देती है, मगर कोई उसका स्वागत नहीं करता, न सुबह-सुबह आँगन को प्यार से सँवारता है। पिछली बार गई थी तो कितना उदास लगा आँगन! माँ का कमरे में अकेले रिरियाना और केयर टेकर का मनमानी करना . . . ओह!’ 

वह अपना भविष्य सोचकर काँप गई। ‘जब बीसवीं सदी के सपूतों का यह हाल है, जब हर घर-आँगन में संवेदना बहती थी; भाईचारा घना था और माँ-बाप बोझ नहीं, मालिक हुआ करते थे—आज की बात ही क्या! वक़्त तेज़ी से बदल रहा है। बच्चों से अपेक्षा करना ख़ुद को धोखा देने के सिवा कुछ नहीं। मुझे इस बदलाव को जल्द से जल्द सहजता से स्वीकार कर लेना चाहिए। हाँ, यही ठीक रहेगा मेरे लिए . . . और आदि के लिए भी।’ उसने फेफड़े में एक लंबी साँस भरी और आसमान पर एक भरपूर निगाह डालती हुई कमरे में वापस जाने को पलटी। “सोचों में डूबी थी तो पाँव के दर्द का एहसास खो गया था, अब फिर से . . . ओह!” बुदबुदाना जारी रहा। उसने कमरे में घुसते ही ख़ुद को बिस्तर के हवाले कर दिया। लेटी तो नींद आ गई। 

“अरे, सात बज गए! आज तो सारा रुटीन गड़बड़ हो गया। काश! एक कप गरमागरम चाय मिल जाती तो स्फूर्ति लौट आती,” वह बुदबुदाई। होंठ अनायास हँसने लगे . . . व्यंग्य मुद्रा में। मन ने ताना मारा, ’किससे उम्मीद कर रही हो? बोलकर देखो ज़रा, सुबह-सुबह धुल जाओगी . . . बिना साबुन-पानी के . . .’

‘क्यों, मैं बीमार होती हूँ तो बच्चे ही तो करते हैं सब . . .’ 

‘सब? और कब? जब हिल-डुल नहीं सकती थी, तब न! क्या सारे काम वैसे होते थे, जैसा तुम चाहती थी? क्या तुम हर ऐसे समय में उनके चेहरे पर बिछी रुखाई से भयभीत नहीं रहती थी? और क्या अब भी सिमटी नहीं रहती हो?’ 

‘वह . . . वह . . .’ अपने मन को समझाना उसे कठिन लगने लगा तो हौले से उठ बैठी। आदि के कमरे से छनकर आती रोशनी से डाइनिंग हॉल रोशन देखकर वह चौंकी। “आदि जाग गया? इतनी जल्दी? देखूँ, उसे कुछ चाहिए तो नहीं। अब जाग गया है तो चाय बना ही लूँ।” अपनी ही सोच पर वह मुस्कुराई, फिर मन को प्यार से समझाया, “जो सहज रूप में होना नहीं है, उसकी चाह क्यों करनी है? उसे समय ही कब मिलता है! देर रात तक काम में डूबा रहता है। मैं शायद उसकी दोस्त न बन सकी, माँ तो हूँ ही। वह क्या करेगा, वह जाने। प्रिया की जॉब इतनी दूर है कि दोनों शादी कर भी लें कितने दिन साथ रहेंगे और क्या दंपती का सुख और सम्बन्ध समझेंगे, ईश्वर ही जाने। वैसे, आदि का तो रिमोट वर्क है, वह तो उसके साथ रह ही सकता है . . . मुझे छोड़कर।” ‘मुझे छोड़कर’ सोचने के साथ ही माँ के अकेलेपन का, उसके अवसाद में डूबते जाने और देह-दिमाग़ से कमज़ोर होते जाने की घटना दृश्य बनकर सामने तैरने लगी। उसने ख़ुद को फटकारा, 
 “बुड्ढों की तरह क्या ऊल-जलूल सोचने लगी है। एक बार आदि का घर बस जाए तो मैं भी यात्रा पर निकलूँ। वह जो चाहे करे, मैं सम्बन्ध को जटिल क्यों बनाऊँ? अब शांत हो जाओ, बुरे ख़्यालों में मत उलझाओ।” मन को थपकी देकर शांत किया और रसोई की तरफ़ बढ़ चली। 

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चावल के दाने पाकर कबूतर थिरक रहे थे। वह चाय की घूँट भरती हुई उनसे बतियाती रही। आदि अपने कमरे में चाय की घूँट भरता हुआ लैपटॉप पर कुछ देख रहा था। उसने चाहा, चाय की कुछ घूँट साथ-साथ भर लें, फिर ठिठक गई। ‘आजकल वह खाते-पीते हुए भी लैपटॉप पर अपने काम में डूबा रहता है। उसे यही पसंद है, फिर क्यों उसे अपनी उपस्थिति का भान कराना? उसे भान होता भी कहाँ है! मेरे होने, न होने का आदि पर असर नहीं होता या वह दबाव महसूस करता है। और, यह उसके चेहरे पर आ जाता है। आदि को असहज देखकर बातचीत का सिरा ढूँढ़ती रह जाती हूँ। कई बार सिरा नहीं मिलता और दोनों के बीच गहरी ख़ामोशी पसर जाती है . . . पसरती जाती है . . . लैपटॉप पर उभरती आवाज़ उस ख़ामोशी को और गहरा बनाती जाती है। मैं ज़बरन उसे गले लगाकर, असीसकर कमरे से बाहर निकल आती हूँ . . . एक सन्नाटा देर तक घेरे रहता है और मैं . . .’ 
 
“जानती हो, आदि अब बड़ा हो गया है। कुछ ज़्यादा ही बड़ा। शादी करने वाला है। सगाई हो गई, प्रिया को ही छुट्टी नहीं मिल रही है, नहीं तो आज के आज ब्याह कर ले आऊँ उसे। आए और अपना घर सँभाले। मेरा आदि पुराने पतियों की तरह नहीं होगा और न ही प्रिया दक़ियानूसी ख़्यालों की है कि परिवार में रहने के लिए जॉब छोड़ दे। और परिवार में है ही कौन? आदि और मैं! आदि समझदार तो बचपन से ही है, तभी तो कहता है, ‘मेरे सपनों को सच होने का हक़ है तो क्या उसके सपनों को नहीं है?’ . . . जानती हो, कई बार जी में आया कि पूछूँ, क्या हम दो लोग उसके सपनों की राह में उलझन पैदा करेंगे? मगर नहीं पूछा। शायद शादी के बाद सपने अपने नहीं रह जाते, उसके कंधे पर कई सपनों का बोझ बढ़ जाता है। . . . लेकिन बोझ तले दबने वाले कंधे हमारी पीढ़ी के थे, अब के नहीं। होते तो कुकुरमुत्ते की तरह वृद्धाश्रम न उग आए होते . . .”

बोलते-बोलते वह अचानक चुप हो गई। अतीत रील की तरह घूमता नज़र आया। दृश्य स्पष्ट होने लगे। कुछ आवाज़ें भी . . . उसके दोनों हाथ उठकर कानों को बंद करने लगे मानो शोर सुनने की क्षमता ही ध्वस्त कर देगा। उसने ख़ुद को संयत किया। फिर बतियाने लगी। 

“जानती हो, आदि को वो लम्हे तो याद हैं, जब वह अकेला रहा, वो नहीं जब उसे गोद में ले-लेकर रात-रात भर जगी बैठी रही। याद भी कैसे हो, कितना तो छोटा था तब! और छोटे में बीमार भी अधिक रहा। कितनी अजीब बात है न! जब बीस-बीस घंटे परिवार के नाम रहे, आँखें नींद पूरी होने की मोहलत माँगती थीं, तब उन गहरी काली पड़ रही आँखों, थके दिमाग़ और चूर हो रही देह की फ़िक्र न मैंने की और न ही उस परिवार ने। आज देह-दिल और दिमाग़ सब हर्जाना वसूलना चाहते हैं, सज़ा तो दे ही रहे हैं,” वह मुस्कुराई। 

“और जानती हो आदि की ख़ूबी? बिना अनुभूति के ‘थैंक यू’ कहने का हुनर है उसके पास। . . . और अकारण उसके कमरे में जाने पर अपनी नापसंदगी को भी बख़ूबी छिपाना जानता है। लैपटॉप की आवाज़ कम करके सवाल करती आँखें चेहरे पर टिका देता है . . . उस सवाल का जवाब देते नहीं बनता कि उससे क्या काम है या उस कमरे में क्या काम है। उस समय घर को कमरों में बँटा पाती हूँ और अपने होने के मायने तलाशने पड़ते हैं। कमबख़्त वे भी हाथ नहीं आते। तुम समझ रही हो न?” 

उसकी बात सुनकर कबूतरी ने चोंच हिलाकर हामी भरी और फिर उसके साथ-साथ कमरे में आ गई और बेपरवाह इधर-उधर फुदकती रही। 

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“आदि! बेटे, दवा ले लेना,” काम निपटाकर, ग़ुस्लख़ाने जाते हुए उसने उसके कमरे के बाहर ठिठककर आवाज़ दी। 

“दवा! दवा! दवा! एक ही बात हर रोज़ बोलना ज़रूरी है? कान ख़राब नहीं है और न ही मेमोरी। क्यों बिला वजह ग़ुस्सा दिलाती रहती हो?” 

“वह तो यों ही . . .” 

“तुम्हारी ही वजह से तो दिमाग़ . . . तुम अपने काम से काम रखो। मैं छोटा बच्चा नहीं हूँ,” कुछ शब्दों को चबाते हुए उसने आग उगली। 

बेटे की बात सुनकर उसके पैर जम गए। कान भोथरा गए। होंठ खुले, मगर निःशब्दता की स्थिति में फिर बंद हो गए। मन डंक मारने लगा, “मेरा काम? सुबह से क्या अपने लिए मरती रहती हूँ? इकसठ की हो गई, अब भी . . .! मैंने कब जी ज़िन्दगी? इन पथरीली दीवारों के बीच दफ़न होने से बेहतर है, कहीं निकल जाऊँ। शायद तब, आदि मशीनी व्यवहार न करे; शायद तब उसे माँ से मिलने की फ़ुरसत निकल आए; शायद तब . . .” 

ग़ुस्लख़ाने में टोंटी से पानी गिरने की आवाज़ देर तक आती रही। कपड़े धुलने की भी। आदि लैपटॉप पर व्यस्त काम में व्यस्त रहा और रसोई साफ़-सुथरी होकर शांत। ग़ुस्लख़ाने में कपड़ों की पट-पट और पानी के हर-हर के बीच खारी बूँदें टप-टप टपकती रहीं . . . बिना शोर मचाए . . . बिना अपनी उपस्थिति दर्ज़ किए . . . मन पिछले कई वर्षों की उलझी गाँठें सुलझाने लगा। वह सिर पर जल्दी-जल्दी पानी उड़ेलने लगी। 

‘अब तक घर-परिवार की बेहतरी के लिए कमाया, अब अपने लिए चार पैसे जोड़ने होंगे। . . . और जोड़ने के लिए कुछ अधिक काम करना होगा और अधिक काम करने के लिए ऊर्जा बनाए रखनी होगी और ऊर्जा बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि . . .’ 

अपनी सोच को हवा में झूलता छोड़, वह तैयार होने लगी। बड़े दिनों बाद जींस और शर्ट निकाली, गले में स्कार्फ़ डाला, पर्स उठाया और मुख्य दरवाज़े से बाहर निकलते हुए क्षण भर को रुककर आवाज़ लगाई, “आदि खाना चूल्हे पर रखा है। जब भूख लगे, खा लेना। मैं बाहर जा रही हूँ। देर हो सकती है।” उत्तर की प्रतीक्षा किए बग़ैर वह चल पड़ी। अपने आपको उबारने का उसका यह अनूठा नुस्ख़ा था-ख़ुद को बेहतर एहसास कराना। 

‘बड़ी मुश्किल से ख़ुद से प्यार करना सीखा है। किसी के किए की सज़ा ख़ुद को क्यों दूँ? मैं आदि से नाराज़ नहीं, बस कभी-कभी अकेली हो जाती हूँ। . . . नहीं! ख़ुद को अकेलेपन की अनुभूति से घिरने नहीं दूँगी। यह बड़ी घातक बीमारी है, रिश्तों की बची-खुची गर्माहट लील लेने वाली। चलूँ, ज़रा पार्क में सुस्ता लूँ। एकांत में मन सही दिशा में सोचेगा।’ 

उसके क़दम चौक से दाहिनी ओर मुड़ गए। इस समय वाहनों की उगली धूल फाँकती बेचैन सड़क भी ज़रा सुस्ताती नज़र आई। गाड़ियों की चिल्ल-पों से राहत पाती सड़क किनारे बने बड़े पार्क के भीतर अपनी ही धुन में चलती वह भीतरी दुनिया में विचरती रही। 

‘क्या हो गया मुझे? सुबह से कैसी ऊट-पटाँग बातें सोच रही हूँ। क्या वाक़ई घरेलू काम के बोझ के कारण? . . . या घर के कमरों में फैलते जा रहे शोर के भीतर समाए सन्नाटे और सन्नाटों से उपजे दिमाग़ी शोर के कारण . . . या आस-पड़ोस में घट रही घटनाएँ डरा रही हैं। किससे डर रही हूँ? हालात से? मगर क्यों? जब अब तक पैरों को काँपने की इजाज़त नहीं दी तो अब भी क्यों दूँ? आदि और प्रिया अपना घर बसा लें, ख़ुश रहें, बस मुझे और क्या चाहिए। आज नहीं तो कल एक बड़ा निर्णय लेना ही है तो आज ही क्यों नहीं! . . . मैनेजर से बात करूँ।’ 

उसने बेंच पर बैग रखकर ख़ुद को भी आराम की अवस्था में ला छोड़ा। मोबाइल पर घंटी बजते ही कॉल ले ली गई। फोन मि. खन्ना ने ही उठाया था। मि. खन्ना ने ‘रिटायरमेंट’ के बाद ‘आस्था’ की व्यवस्था सँभाल ली तो व्यवस्थापकों को बड़ी राहत मिली थी। पिछले दस वर्षों से तो वहीं उन्हें देख रही है—ख़ुशदिल इंसान! 

उसने मन की बात कह दी तो मि. खन्ना का ठहाका गूँजा, “आ जाइए, आपका तो इस जगह से पुराना रिश्ता है . . .” 

“लेकिन अभी इतने रुपये कहाँ हैं मि. खन्ना?” वह मुस्कुराई। “और अभी अचानक आदि से क्या कहूँ कि उसकी शादी के तुरंत बाद मैं किराए का मकान छोड़कर वृद्धाश्रम जाऊँगी? कैसे कह पाऊँगी, यही सोच रही हूँ।” 

“देखिए मैडम कहना तो पड़ेगा। आज आप नहीं कहेंगी तो कल विदेश जाते हुए बेटा ही आपसे कह देगा। . . . वैसे विदेश क्या, इसी देश में, इसी राज्य में भी क्या कहूँ, इसी शहर में रहते बेटे-बहू की विधवा माँ तो किसी घर के दोनों बुज़ुर्ग ‘आस्था’ को अपना आशियाना मानने पर मजबूर हुए हैं। और कुछ ऐसे भी हैं जो समय रहते, समझदारी से काम लेते हुए यहाँ आ गए। अजीब दौर से गुज़र रहे हैं हम।” मि. खन्ना की आवाज़ में नमी उतर आई तो वे झटके से चुप हो गए। 

“मि. खन्ना! ऐसा नहीं है कि बहू के आ जाने से घर टूटते हैं। अब कामकाजी युवा दंपती की दिनचर्या बुज़ुर्गों से अलग तो होगी ही। खान-पान भी। बुज़ुर्ग थक चुके होते हैं तो बहू के आते ही रसोई से छुट्टी; बाक़ी बातों से छुट्टी चाहने लगते हैं। दूसरी तरफ़ कामकाजी लड़की बहू बनते ही परिवार की ज़िम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं होती है। उनके सोने-जागने का समय भी तो अलग ही होता है। और ये छोटी-छोटी बातें ही घर की दीवारों के कान और ज़बान तेज़ कर देती हैं। बस, इतनी सी बात है।” 

“आप नई पीढ़ी को इतना समझती हैं, फिर ‘आस्था’ क्यों आना चाहती हैं?” 

“शरीर से थकने लगी हूँ, ऐसा कहना एक हद तक तो ठीक ही होगा, मगर सिर्फ़ यही बात नहीं। अब घरेलू ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर समाज के लिए अधिक से अधिक समय ख़र्च करना चाहती हूँ, जब तक कर सकती हूँ। साठ पार कर चुकी। पक्की नौकरी में होती तो रिटायर हो चुकी होती। मगर अब भी घर-बाहर दोनों जगह साँसें बँधी हैं। इन बंधनों से भी रिटायरमेंट ज़रूरी होती है ताकि बची साँसें बेफ़िक्री की हों।” 

बातचीत के बीच सन्नाटा कुछ पल चहलक़दमी करता रहा। फिर मि. खन्ना की सधी आवाज़ सुनाई दी . . . “मैं आदि को बता देता हूँ कि आप यहाँ एक कमरा बुक करवाना चाहती हैं।” 

“अरे, मगर अभी . . .” उसकी बात अधूरी रह गई। फोन कट चुका था। “मि. खन्ना! अभी नहीं! अभी वह वक़्त नहीं आया है . . .” उसकी बुदबुदाहट हवा में तैरने लगी। 

उसने पार्क की उस लकड़ी की कुरसी के सिरे से सिर टिकाकर शरीर ढीला छोड़ दिया; नज़र धूप से दमकते बादल के टुकड़ों पर जा टिकी। कुछ क्षण आँखें वहीं टँगी रहीं। वह मुस्कुराई। ‘बादल कब कहाँ टिकते हैं! उन्हें तो . . . मगर आसमान! वह तो नाराज़ नहीं होता और न ही उनसे कोई आस लगाता है। जब वे उड़ते-फिरते आ जाते हैं, स्नेह से उन्हें भर देता है। मेरे लिए भी यही सही है कि मैं आदि से कोई अपेक्षा न रखूँ। न आज और न भविष्य में। कल की कल देखी जाएगी। माँ हूँ, लेनदार नहीं। जब तक पास है, तब तक क्यों न ममता लुटाऊँ! वह व्यस्त है, रहे व्यस्त। अभी तो हम साथ-साथ हैं . . .’ उसकी आँखों में मुस्कान उतर आई। 

आकाश की धवलता देर तक उसके भीतर अपना घर बनाती रही। उसने कलाई पर नज़र डाली। ‘ओह! 4:30 बज गए। समय का पता ही नहीं चला। पता नहीं, उसने खाना खाया भी कि नहीं।’ उसने सोच को झटका दिया। बैग में से बोतल निकालकर पानी की दो घूँट भरी। फिर बोतल रखने लगी। ‘अरे, आदि का मिस्डकॉल?’ वह चौंकी। फोन आकर कट गया। आदि तो बिला वजह कॉल करता नहीं, क्या बात होगी? . . . हे प्रभु! सब ठीक हो!” ईश्वर को याद करते हुए उसने जल्दी-जल्दी फोन मिलाया। 

“माँ! कहाँ रह गई?” 

“क्या हुआ?” 

“कुछ नहीं! आर यू ओके?” 

“मुझे क्या हुआ है?” 

फोन पर बेटे को जवाब देते-देते अचानक उसे लगा, नदी किनारा तोड़कर ही दम लेगी। अब यहाँ से चलना चाहिए। कहीं बूँदें ढुलक गईं तो पार्क में सब पूछने लगेंगे। 

“माँ! सॉरी! बॉस का ग़ुस्सा तुम पर निकाल दिया . . . सॉरी!” आदि की आवाज़ काँप उठी। 

“आदि . . .!” 

“कितनी देर में आ रही हो?” 

“जल्द ही! बस, निकल रही हूँ,” वह तड़प उठी। रास्ता लंबा नहीं था, मगर आदि के काँपते स्वर ने उसे बेचैन कर दिया। सोच के आवेग को झेलती हुई वह ऑटो पर सवार हुई। मन आगे-आगे उड़कर जाता रहा। 

♦    ♦    ♦

“प्रिया! तुम कब आई?” 

“कल . . . यहाँ थोड़ी देर पहले,” फ़्लैट का दरवाज़ा खोलकर, पैरों पर झुकते हुए उसने कहा। 

“मम्मी ने आपके और आदि के लिए कुछ बनाकर भेजा है। वही लेकर आई थी। मगर आदि तो . . . सब ठीक तो है न?” उसने असमंजस में पड़ते हुए कहा। 

“आदि ने कुछ कहा क्या?” 

“नहीं माँ! वह तो मुझसे बात ही नहीं कर रहा। एक फोन आने के बाद से परेशान-सा चक्कर लगा रहा है।” 

“किसका फोन?” प्रिया से पूछती-पूछती वह आदि के कमरे की ओर बढ़ी। 

“आदि! किसका फोन आया था?” 

“‘आस्था’ के मैनेजर का . . . तो तुम मुझे छोड़कर ‘आस्था’ जाना चाहती हो? जाओ, जाओ . . . नहीं नहीं, तुम क्यों जाओगी, मैं ही किसी पीजी में चला जाता हूँ, फिर रहना चैन से . . .” 

“क्या पागलपन है? अभी तो फोन पर जल्दी आने कह रहे थे और अब कुछ से कुछ बोले जा रहे हो।” 

“मैं तुम्हारी केयर नहीं कर पाता हूँ। उस पर से काम का बोझ ही बढ़ा रहा हूँ, इसलिए तो ‘आस्था’ में शिफ़्ट होना चाहती हो।” 

“आदि! वो बात नहीं है।” 

“तो क्या बात है?” 

“आराम से बात करते हैं न! प्रिया मिलने आई है। क्या सोचेगी?” 

“अच्छा है न, वह भी पहले से जान ले, तुम्हारे दिमाग़ में क्या पक रहा है?” 

“अच्छा, तुमने खाना खाया या नहीं?” 

“खाऊँ, न खाऊँ तुम्हें क्या? अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई और तुम मुझे छोड़ने का मन बनाने लगी . . .” आदि बोलता रहा, “पहले तो तुम्हें मेरी बात बुरी नहीं लगती थी, अब . . . अब सगाई होते ही मैं ग़ैर हो गया! अब तुमसे भी सँभलकर बात करनी पड़ेगी? ऑफ़िस की तरह? . . . जॉब माय फुट!” 

“आदि! . . . मैं . . . प्रिया, आदि को समझाओ न! ऐसी कोई बात नहीं।” 

“नहीं माँ! आदि को नहीं, आपको समझना होगा, हम अभी इतने बड़े नहीं हुए कि शादी होते ही घर का मुखिया बन सकें। हम दोनों नया मकान लेने की कोशिश में लगे हैं ताकि आपको इस तंग किराए के मकान से मुक्ति मिले। आदि का सपना है, घर लेने के बाद ही वह सेहरा बाँधे।” 

“मगर आदि ने तो कहा, तुम्हें छुट्टी नहीं मिल रही है,” वह हैरान हुई। 

“सही तो कहा। माँ, जॉब के साथ मकान का काम भी मैं ही देखूँगी तो छुट्टी कैसे मिलेगी? लेकिन घर तो आपसे ही बनेगा।” 

वह क्षण भर को चुप हुई, फिर भर्राए स्वर फूटे, “अगर फिर भी आप ‘आस्था’ जाना चाहती हैं तो हम उस मकान की डील कैंसिल कर देते हैं।” 

“प्रिया!” 

आगे वह बोल न सकी। वहीं, पड़ी कुरसी पर धप्प से बैठ गई। मन को संयत करती हुई बोली, “तुम दोनों कब तक मेरी चिंता करोगे? तुम्हारा अपना संसार होगा। अपनी व्यस्तताएँ होंगी। न चाहते हुए भी आदि को मैं डिस्टर्ब कर ही देती हूँ। मैं नहीं चाहती, मेरी वजह से तुम दोनों . . .” 

“माँ! अगर मैंने सगाई न की होती, शादी का मन न बनाता, क्या तब भी तुम मुझे छोड़कर चली जाती?” 

उसे कोई जवाब न सूझा। वह ख़ाली दीवार घूरने लगी। मन शून्य में टँगा रहा। प्रिया पास में सिर झुकाए कुछ देर खड़ी रही, फिर चुप्पी तोड़ी, “इसका तो यही मतलब हुआ कि माँ मेरी वजह से घर छोड़ना चाह रही हैं।” 

अब उसने सीधा सवाल किया, “माँ! कहीं आपको ये तो नहीं लग रहा, मैं जान-बूझकर घर से दूर जॉब कर रही हूँ?” 

“शादी करके जब साथ ही न रहो तो फिर क्या . . .” 

“आदि का तो रिमोट वर्क है। कहीं से भी कर सकता है,” उसने झटके से कहा और अचानक चौंकती हुई पूछ बैठी, “आपने कहीं इसी ख़्याल से तो ‘आस्था’ में कमरा बुक करने का निर्णय नहीं लिया?” 

वह प्रिया का चेहरा देखती रही। आदि के चेहरे पर भी प्रश्नवाचक चिह्न उभर आया। 

“अब समझी। माँ को लगता है, शादी के बाद तुम मेरे साथ रहोगे और वे अकेली यहाँ . . . क्यों माँ, यही बात है या कुछ और?” उसने मुस्कुराते हुए कहा। 

“शट अप प्रिया! क्या बेकार की बात कह रही हो!” 

“तुम माँ को कहने दो न! तब तक मैं ख़ुद ही चाय बना लूँ। आज तो तुम दोनों कुछ खाने–पीने को पूछोगे नहीं,” हँसती हुई वह कमरे से निकल गई। 

“हाँ, माँ! अब बोलो।” 

वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे कहे, प्रिया जो कह रही है, वही सच है। उसका गला ख़ुश्क होने लगा और शून्य में टँगी आँखें गीली। आदि जैसे प्रिया का इशारा समझ चुका था। उसने माँ को पकड़कर कुरसी पर बिठाया और ख़ुद सामने पड़े स्टूल पर बैठ गया। उसने माँ की तरफ़ देखा तो सकपका गया। माँ की आँखें दूर से आती हहराती नदी की चोट खाई शिला–सी लग रही थीं। होंठ भींचे हुए। चेहरा वीरान जंगल में उभरते अजीब-ओ-ग़रीब शोर से भरा था। उसे लगा, नहीं वह उसकी माँ नहीं! उसकी माँ तो रोते को भी हँसाने का जादू जानती है। फूलों-पत्तों से भी घंटों बात करती हुई खिलखिला सकती है, फिर उसकी माँ का अक्स लिए यह कौन है जिसके चेहरे पर इतना सूनापन! इतनी अनिश्चितता! ‘तो क्या सचमुच मैंने माँ की तरफ़ ध्यान देना छोड़ दिया? मैं इतना व्यस्त हो गया कि . . . ओह!’ उसे अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने शादी नहीं की तो क्या, बत्तीस वर्ष कम नहीं होते। माँ थकने लगी है। सचमुच! 

चाय की ट्रे लिए प्रिया आई और तिपाए टूल पर ट्रे रखती हुई बोली, “आप दोनों ने तो व्रत रखा है, मुझे बता दो, नमकीन कहाँ है, मैं अपने लिए ले आऊँ।” 

“किसी का व्रत नहीं है। ज़ोरों की भूख लगी है। तुम क्या लाई हो, वह भी निकालो। मम्मी ने ज़रूर मठरी भेजी होगी।” 

आदि भी कमरे में क़ैद भारी हवा को हल्का करने की कोशिश करने लगा, मगर वह अब तक बेजान मूरत-सी अदृश्य सन्नाटे में खोई रही। 

“माँ, चाय लो,” आदि ने कंधा थपकाया। 

उसने चाय का कप उठाया। अचानक उसे लगा, जैसे वह अपने घर में ही मेहमान हो गई है। मन ने ताना मारा, “तुम यही तो चाहती थी न कि कोई चाय बनाकर पिलाए! तो अब ख़ुश क्यों नहीं हो?” उसके पास कोई जवाब नहीं था। वह चुपचाप घूँट भरती रही—रोज़ की तरह। 

♦    ♦    ♦

“माँ, ग्रीन टी पियोगी?” आदि ने दरवाज़े के पास आकर पूछा। 

“मैं बना देती हूँ।” 

“बना रहा हूँ न! उसमें करना ही क्या है? तुम तब तक इसको पढ़ो। प्रिया भी बस पहुँचने वाली होगी,” कहता हुआ आदि एक काग़ज़ उसकी गोद में रखकर मुड़ गया। 

‘पिछले एक सप्ताह से इसे हुआ क्या है? और अब यह काग़ज़!’ वह हैरान-सी कभी रसोई में खटपट करते आदि को तो कभी उस काग़ज़ को देखती। आख़िरकार उसने काग़ज़ उठाकर पढ़ना शुरू किया। आँखों में समुद्र हाहाकार मचाने लगा। रेतीली धरती धँसने लगी। गालों पर चुपचाप धारा बहती रही, उसने बह जाने दिया। इस काग़ज़ ने उसकी आशंकाओं को रेत के महल की तरह ढहा दिया। 

‘नए मकान का एग्रीमेंट पेपर मेरे नाम!’ उसे याद आया, हिमाचल से लौटने के बाद एक बार यों ही उसने आदि से कहा था, “कभी अपना भी ऐसा ही घर होगा।” वह अपना सपना भूल गई, आदि ने याद रखा और प्रिया ने भी इस सपने को पूरा करने में उसका साथ दिया। 

चाय की ट्रे स्टडी टेबल पर रखकर आदि ने माँ की तरफ़ कप बढ़ाया और ख़ुद वहीं कुरसी पर बैठ गया चाय की घूँट भरती हुई वह कुछ देर सोच में गुम रही। फिर, धीरे से वह एग्रीमेंट पेपर आदि की तरफ़ बढ़ा दिया। 

“मुझे नहीं, प्रिया को देना।” अंतिम घूँट भरता हुआ आदि बोला और झटके से उठ खड़ा हुआ। 

उसने हाथ आगे बढ़ाकर बेटे की कलाई थाम ली और पास बिठाते हुए बोली, “मैं ख़ुशनसीब हूँ कि तुम दोनों को मेरा इतना ख़्याल है। तुम दोनों का घर ही मेरा घर है तो इसके लिए काग़ज़ी कार्रवाई की कोई ज़रूरत नहीं। मुझे किसी भी बंधन में न बाँधो। जहाँ तुम दोनों इकट्ठे रह सको, वहीं फ़्लैट लो और अपनी पसंद और सुविधा के अनुसार उसे सेट करो। अब मुझे राजमाता ही रहने दो,” वह मुस्कुराई। 

“लेकिन माँ?” आदि परेशान हुआ। 

“लो, प्रिया भी आ गई। अब वही तुमको समझाएगी,” कमरे में घुसती प्रिया को देख, आदि चैन की साँस लेता हुआ बोला। 

“समझदारी से काम लो। बैंक से लोन लेने में भी आसानी रहेगी। तुम दोनों जॉइंट सिग्नेचर करो। लोन का दबाव भी दोनों पर होगा और घर के प्रति ज़िम्मेदारी और अधिकार भी बराबर का महसूस होगा। जो ग़लती मैंने की, प्रिया को नहीं करने दूँगी।” 

“मैं समझी नहीं।” 

“प्रिया! आदि को मैंने जन्म दिया है। क्या इसलिए मुझे सिर्फ़ आदि की भलाई सोचनी चाहिए?” 

“लेकिन हम अलग कहाँ है?” 

“आदि! तुम दोनों कभी अलग न हो, यही मेरी प्रार्थना रहेगी। . . . और अभी साथ भी तो नहीं हो। दोनों अपनी-अपनी लड़ाई अकेले लड़ रहे हो। साथ तो तब होगे, जब एक छत के नीचे रहोगे, जीवन की मीठी-कड़वी अनुभूतियों से गुज़रोगे। अभी ऑफ़िस के सिवा क्या सूझता है तुम्हें?” उसने मीठा उलाहना दिया, फिर बोली, “और प्रिया को भी नई गृहस्थी की शुरूआत के लिए तुम्हारा साथ तो चाहिए ही।” 

“माँ! सुबह-सुबह ये क्या सब्जेक्ट लेकर बैठ गई?” 

“क्योंकि तुमसे बात कर पाने के लिए बड़ी हिम्मत जुटानी पड़ती है। प्रिया के सामने समझाने की कोशिश कर रही हूँ। न समझना चाहो तो . . .” 

“माँ! अपना घर हो जाने पर आप यहाँ छोड़ देंगी न?” प्रिया ने बात का रुख़ मोड़ना चाहा। “मेरा मतलब, फिर वरिष्ठ आवास . . .” 

“हाँ! यह मकान छोड़ दूँगी। जो ज़रूरी समझो, ले जाना। आदि के बचपन की भी कुछ चीज़ें सँभालकर रखी हुई हैं। वैसे भी घर सामान से नहीं, प्यार और सम्मान से बनता है। सामान से मकान के भीतर सुविधाएँ मिलती हैं। तुम लोग नए सिरे से घर बसा लो, अपनी ज़िम्मेदारी सँभाल लो तो मैं भी निश्चिंत होकर अपने दूसरे अधूरे कामों में समय दूँगी। लौटूँगी वहीं, जहाँ तुम रहोगे। . . . जब तक वह घर इस घर की कमी महसूस नहीं होने देगा, तब तक तो ज़रूर . . . इतना वादा दे सकती हूँ। जाने वक़्त कितना वक़्त दे!” 

उसने बीच से ही बात का सिरा पकड़ते हुए कहा। प्रिया और आदि माँ का चेहरा देखते रहे जो अब निश्चिंतता से भरा था। वह शांत थी। 

बड़े दिनों बाद उसे चाय की अंतिम घूँट सुकून देती लगी . . . 

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