मुझमें है माँ
डॉ. आरती स्मित(प्रेषक: अंजु हुड्डा)
उम्र के चौवालीसवें पड़ाव पर
मुझमें, दिखने लगी है माँ
उसकी सारी आदतें,
सहज चिंताएँ और संवेदनाएँ
मुझमें चस्पाँ होने लगी हैं
माँ धीरे-धीरे
विस्तार पाने लगी है मुझमें
मेरे अंग-प्रत्यंगों, हाव-भावों/
अचेत होती चेतना में से
झाँकती है माँ
माँ जज़्ब हो चुकी है मुझमें
पूरी तरह।
सूखे आँसू /फीकी मुस्कान
अगाध ममत्व और
घर की ख़ुशहाली का दायित्व-बोध
माँ की विदेह उपस्थिति है
माँ मेरा कंठ हो गई है
मुझसे निकलते हैं
माँ के स्वर।
मेरे भरे-भरे चेहरे पर
धीरे-धीरे उगने लगा है
माँ का झुर्रीदार पिचका चेहरा!
काश!
मुझे मिल जाए
माँ की आत्मिक आभा भी!!
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