इक्कीसवीं सदी के प्रेमचंद: रामदरश मिश्र
डॉ. आरती स्मितबीसवीं सदी ने युगनायक प्रेमचंद के साथ जो पड़ाव पूरे किए, उसकी अगली कड़ी को लेकर चलते हुए जो क़दम बढ़ाए थे, वह कड़ी बीसवीं सदी से लेकर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक क़लम चलाते हिंदी साहित्य के चिरयुवा मनीषी डॉ. रामदरश मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में जुड़ती दिखाई देती है। मिश्र जी की कहानियों, विशेषकर लंबी कहानियों, जिनका कलेवर लघु उपन्यास-सा है, में ऐसी ही अनकही, अनदेखी पारिवारिक, सामाजिक विसंगत स्थितियाँ और प्रेमचंद की विरासत को आगे बढ़ाते हुए मनोविज्ञान से संबद्ध विविध रूप दिखाई देते हैं। मिश्र जी से मिलकर सादा जीवन उच्च विचार, आचरण की सहजता-सरलता में सच के साथ खड़े होने और टिके रहने की दृढ़ता, विडंबनाओं-प्रवंचनाओं, विसंगतियों का पर्दाफ़ाश करने का अदम्य साहस मूर्त रूप में एक साथ दिख जाता है।
यों तो कथाकार अमरकांत सहित अनेकानेक कथाकारों ने पारिवारिक/सामाजिक रूप में शोषित, दलित और स्त्री को केंद्र में रखकर समाज को झकझोरने का काम किया है, ऐसे-ऐसे विषय सामने खड़े किए कि समाज को चिंतन के लिए मजबूर होना पड़ा। उनके ही समकालीन और अब तक अपने बाद की चार पीढ़ियों को दिशा देते मिश्र जी के कृतित्व की बात करें तो कविता, ग़ज़ल, मुक्तक की बात हो या कहानी, उपन्यास, आत्मकथा सहित अन्य गद्य विधाओं की, उनकी भाषा उनके व्यक्तित्व का मुखर रूप बनी, सादगी का परिधान ओढ़े जीवन के उन अनदेखे, अनछुए विद्रूप सामाजिक पहलुओं, मानव मन के कई तहों को खोलने, खँगालने और उनके बीच कथानक बुनने, उन्हें सँवारने का काम करती है या कहें कि सशक्त माध्यम बनती है।
मिश्र जी के भीतर गाँव बसता है और शहर के भीतर वे उसी गाँव में बसते हैं। गाँव को जीना, भरपूर जीना उनमें दिखा और इसीलिए गाँव के भीतर कई तहों में छिपी, किन्तु सक्रिय बुराइयाँ/विसंगतियाँ उनकी दृष्टि से बच न सकीं, जिन्हें उजागर करने का काम जोखिम भरा रहा होगा, क्योंकि गाँव ऐसे लोगों से भरा पड़ा था . . . और अब भी एक सीमा तक है ही। उनकी लंबी कहानियों से गुज़रें तो पाएँगे कि गाँव के वातावरण में घुली-मिली मानसिक/व्यावहारिक विषाक्तता को जितना उन्होंने अनावृत्त किया, जितनी तहों को तोड़ा, जिन-जिन रूपों को अनावृत्त किया, ऐसा प्रतीत होता है, बचपन से युवावस्था तक गाँव से जुड़ी स्मृतियाँ उनकी क़लम का साथ पाकर कहानियों में ढलती गईं और कथावाचक/सूत्रधार एवं सशक्त सहयोगी नायक स्वयं लेखक ही हैं जिन्होंने मुख्य नायक/नायिका के साथ क़दम-दर-क़दम चलते हुए कहानी को गति दी है और इसके लिए अपनी स्मृतियों, संवादों और एकालापों को सहयोगी बनाया है। एकालाप के दौरान प्रश्न भी खड़े किए और उत्तर भी दिए, जैसा कि अक्सर व्यक्ति किसी विषय पर चिंतन करता हुआ स्वयं समस्या और समाधान सोचता है। किन्तु, कहीं-कहीं प्रश्न अनुत्तरित छोड़ दिए गए हैं ताकि संवेदनशील पाठक उन पर मनन कर सकें और समाधान ढूँढ़ें। लंबी कहानियों की बात करें तो ग्रामीण स्त्री–जीवन से जुड़ी विसंगतियों के विविध पहलुओं की ओर ध्यान खींचा गया है। यहाँ लेखक साक्षी भी है और भोक्ता भी। सारी कथाएँ उनके भीतर ज़िन्दा होती हैं, उनकी करुणा से जीवन-रस पाती हैं और उनके भीतर उमड़ते-घुमड़ते दर्द के बादल से बरसती बूँदों को स्याही बनाकर क़लम के रस्ते उतर आती हैं काग़ज़ पर। हर कहानी पाठक को अपने भीतर उतारती है, गहरे धँसाती है, परपीड़ा से छटपटाते लेखक की बार–बार भीगती-बरसती आँखें दिखलाती है, फिर एक प्रश्न खड़ा करती है—कब तक ये मुद्दे प्रासंगिक रहेंगे? कब उन्मूलन होगा? तंद्रा में डूबी चेतना कब सजग होगी और कब हमारा समाज जाति-वर्ण के दलदल से बाहर निकलेगा, कब स्त्रियाँ देह से परे अपने होने के सच को बेख़ौफ़ महसूस कर सकेंगी? कब दोपाए जानवर अपनी पैशाचिक वृत्तियों को त्यागने का संकल्प लेंगे? . . . संभ्रांत समाज के ऐसे कई घिनौने चेहरे हैं जो पिछली एक सदी से भी अधिक समय से बहुरूपिया बनकर हमारे बीच रचे-पचे हैं। ग़ौर करने वाली बात है, समस्याएँ जीवन की मूलभूत ज़रूरतों से पैदा होती हैं, होनी भी चाहिएँ, जिस पर मिलकर विचार किया जा सके, जैसे कि रोज़गार, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि-आदि। किन्तु वे समस्याएँ जो कभी परंपरा के नाम पर, कभी जातिगत दंभ के कारण तो कभी अमानवीय लोलुपता के कारण कोढ़ जैसी बीमारी बना दी गईं और जो लंबे समय से लाइलाज दिखती रहीं, उनका इलाज प्रेमचंद की क़लम से होते हुए परवर्ती पीढ़ी के रचनाकारों द्वारा होता रहा है और मिश्र जी ने भी इस दिशा में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसा लगता है मानो इन्होंने गाँव की छिपाई जा रही बुराइयों को उजागर करने की शपथ ले रखी हो और तमाम घटनाएँ उनके स्मृति-पटल से बाहर निकलने, मूर्त रूप धरने को कसमसा रही हों।
मिश्र जी की लंबी कहानियों में से कुछ एक की चर्चा करने से पूर्व उन कहानियों में मौज़ूद समान बिंदुओं पर एक बार उल्लेख करना ज़रूरी जान पड़ता है। जैसे कि:
1. कहानियाँ यथार्थपरक हैं। हर कहानी ‘कहन’ की विशेषता लिए है। यहाँ लेखक केवल क़िस्सागो ही नहीं, कहानी को गति देने वाला सशक्त पात्र भी है जो कथानायक/नायिका के सबसे क़रीब है या कहीं-कहीं भोक्ता की-सी स्थिति में है। कथानायक/नायिका परिस्थितियों से लोहा लेने वाले जीवट व्यक्तित्व हैं। उनके भीतर और बाहर संघर्ष चलता रहता है, मगर वे हार नहीं मानते और प्रतिकार करते हैं।
2. देशकाल/वातावरण की दृष्टि से देखें तो कथावस्तु परिवार से जनमती है और प्रायः गाँव से जुड़कर आगे की राह तय करती हुई अपने अंतिम रूप को ग्रहण करती है। ग्रामीण वातावरण में जनमीं अधिकांश नायिका-नायकप्रधान कहानियाँ नायिका-नायक की मृत्यु के साथ समापन की ओर बढ़ती हैं। जीवन की साँझ में अपनी ही ज़मीन पर लौटना गाँव के प्रति लगाव को दर्शाता है।
3. कहानी युवा कथावाचक की बाल्यावस्था से जुड़ी स्मृति और उसके वर्तमान में गुँथी साथ-साथ विचरती है।
4. कहानी चरित्र और घटना का सुंदर संतुलित रूप लिए चलती है, जिसमें लेखक की मनोवैज्ञानिक दृष्टि, संवेदनशील कवि ह्रुदय, नाटकीयता और कलात्मक तत्त्वों का सहज समावेश है। कोई भी तत्त्व सायास थोपा गया प्रतीत नहीं होता है। संवाद, एकालाप, चिंतन और उससे उपजे प्रश्न कहानी के प्रवाह को, उसकी रोचकता को बढ़ाते हुए ऊँचाई देने में समर्थ हैं।
5. स्त्री किसी जाति-वर्ण की हो, उसकी देह के प्रति पुरुष की कामुक वृत्तियों का क़हर युगों से देखता-सुनता समाज अंधा-गूँगा-बहरा हो जाता है, उसके लिए यह और ऐसी अमानवीय घटनाएँ स्वाभाविक घटनाओं–सी हैं। सच्चे प्रेम का विरोध भी युगों से होता रहा है—विशेषकर गाँवों में। और इस विरोध और प्रतिरोध की लपट में झुलसती ज़िंदगियाँ भी युगों से चीत्कार कर रही हैं, जबकि कंबल ओढ़कर घी पीने वाली लोकोक्ति आज भी व्यभिचार के क्षेत्र में सार्थकता पा रही है। मिश्र जी की क़लम ने इन सरोकारों को तो सामने किया ही, स्त्री मन और स्त्री देह की भूख की स्वाभाविकता को विज्ञान की दृष्टि से उचित ठहराया है और समाज को इस मुद्दे पर विचार करने को झकझोरा है कि स्त्री की देह की भूख कलंक का विषय क्यों बने? क्यों पुरुष उसे भोग्या से अधिक मानने को तैयार नहीं और क्यों अकेली स्त्री पर गाँववालों की भूखी गिद्ध दृष्टि टिक जाती है जबकि प्रेम करनेवाला दंड पाता है या स्त्री के दैहिक सौंदर्य का लोलुप प्रेमी भी स्त्री को वश में करते ही देहभोक्ता से अधिक कुछ नहीं होता।
6. परिवार के मुखिया के मरते ही घर की स्नेहिल मज़बूत डोर का कमज़ोर पड़ना, बुज़ुर्गों को बोझ समझना और बालक/बालिका को घर का सबसे फ़ालतू सामान, जिससे जल्द से जल्द मुक्त हुआ जा सके। ख़ून के रिश्तों में स्वार्थ की दरकन कई कहानियों में मुखर है।
कहा जा सकता है कि परिवार और समाज की बहुविध त्रासद स्थितियों पर उनकी क़लम बेहद सशक्त नज़र आती है। स्त्री, गाँव और दलित सरोकारों से अलग एक सरोकार, एक स्थिति जिससे कभी न कभी हम सब गुज़रे हैं और उस त्रासदी को झेला है। वह है—नौकरी में तबादले या नई नौकरी मिलने के बाद अजनबी शहर में मकान ढूँढ़ना। मनचाहा मकान और भला मकान मालिक अपने बजट में मिल जाए तो परम सौभाग्य की बात होती है, किन्तु ये तीनों चीज़ें साथ नहीं मिलतीं। इनमें से दो चीज़ें भी आसानी से साथ नहीं मिलती। मिश्र जी ने किराएदार की परेशानी को बेहद संवेदनशील रूप दिया है। तो यह कहना स्वीकार्य होगा कि जीवन का आँखों देखा हाल सुनाती मिश्र जी की कहानियाँ जीवन के उन पड़ावों की तरफ़ ध्यान खींचती हैं जिन पर आम तौर पर गंभीर दृष्टि नहीं डाली जाती या जिन्हें इस योग्य समझा ही नहीं जाता कि उन्हें हाशिए से उठाकर प्रमुख सरोकारों में जगह मिले। यहाँ फिर यह कहना आवश्यक हो जाता है कि लेखक शहरी परिवेश में बसकर भी गाँव में बसा रहा और इसलिए उलीच पाया उन विडंबनाओं, प्रवंचनाओं, विद्रूपताओं तथा विसंगतियों को—और सच को मुखर करने, यथार्थ के साथ तनकर खड़े होने के लिए जिस आत्मबल की आवश्यकता होती है, इन लंबी कहानियों से गुज़रते हुए सहज अनुमान लगाया जा सकता है वे कितने आत्मबली हैं और किस प्रकार प्रेमचंद की जाग्रत चेतना का विकसित प्रतिरूप नज़र आते हैं।
मिश्र जी ने अपनी पुस्तक ‘आख़िरी चिट्ठी’ की भूमिका में स्वयं स्वीकार किया है—“लंबे आकार की कहानियों में मेरे आसपास के लोगों की जीवन-यात्रा के कुछ व्यापक और कुछ संश्लिष्ट यथार्थ कथाएँ हैं। घटना में घटना, प्रसंग में प्रसंग, चरित्र में चरित्र, सवाल में सवाल धँसे हुए हैं; अतः इनमें छोटे या मध्यम आकार की कहानियों की सी तीव्र गति नहीं है, वस्तु और कथन की संक्षिप्ति नहीं है। एक तरह से इनका चरित्र कुछ-कुछ औपन्यासिक है, यद्यपि ये छोटे उपन्यास नहीं हैं।”
अब एक-एक कर, कथा-यात्रा पर निकलें तो सबसे पहला पड़ाव ‘अकेला मकान’ का आता है। ‘अकेला मकान’ स्वाभिमानी, परोपकारी स्त्री-चरित्र एवं उसके जीवन की विडंबना एवं संघर्ष की कथा है जो स्त्री-व्यथा के कई धूसर रंगों में सनी होकर भी पति के प्रति मूक प्रेम और समर्पण के केसर रंग तथा स्वार्थी पति एवं व्यभिचारी ग्रामीण के व्यवहार के काले रंग से बने जीवन का करुण चित्र उकेरती है। कथानायिका जगरानी कुछ समय तक माँ न बन पाने के कारण, पति के दूसरे विवाह को स्वीकारने से बेहतर अपनी विधवा बूढ़ी माँ के साथ अपने खेत में श्रम कर, जीवनयापन करना समझती है। तन-मन झुलसता रहता है, किन्तु आत्मगौरव की दीप्ति उसे झुकने/कमज़ोर पड़ने नहीं देती। सुरेश अपने बालपन की स्मृतियों के खाँचे में फ़िट बैठी अपनी मुँहबोली फूआ ‘जगरानी’ की उदासी/हँसी, हँसी में छिपी व्यथा को ज्यों-ज्यों समझता जाता है, त्यों-त्यों उसे जगरानी के पति और अपने सगे फुफेरे भाई सोहन और सगी बुआ के स्वार्थी स्वभाव से खिन्नता होती जाती है। हद तब होती है जब जगरानी देवी के मरने के बाद, कभी उसकी चिंता न करनेवाला और उसके भोलेपन का लाभ उठाकर धन ऐंठने वाला पति सोहन उसकी आख़िरी इच्छा का अनादर करते हुए उसकी ज़मीन उस व्यभिचारी जगमोहन को बेच देता है, जिसने तांत्रिक के साथ प्रपंच करके जगरानी देवी को डायन घोषित करवाया था। सोहन पर सुरेश का तंज़ देखें:
“ठीक कह रहे हैं सोहन भैया। बीबी का खेत तो अपना ही खेत होता है न। आपने बीबी के लिए चाहे कुछ न किया हो, लेकिन बीबी आख़िर बीबी है। उसका तो सबकुछ अपना ही है। जाइए, जिसे चाहिए बेचिए। आपका चरित्र यही रहा है।”
पुरुषप्रधान समाज, विशेषकर ग्रामीण समाज में स्त्री-पुरुष की स्थिति और उनकी प्रकृति का स्पष्ट चित्रण मिलता है। ‘अकेले व्यक्ति से घर घर नहीं होता, उजाड़ मकान होता है’। इस भाव को बालक सुरेश और उसकी माँ के संवाद से समझा जा सकता है। बानगी देखें:
सुरेश: लोग फूआ को बुलाया क्यों करते हैं माँ? और ये क्यों दिन भर चक्कर काटती रहती हैं? क्यों नहीं अपने घर पर रहकर कुछ करती-धरती हैं, जैसे और लोग करते हैं?
माँ: फूआ का घर कहाँ है?
सुरेश: वाह, है क्यों नहीं? मैंने देखा है। गाँव से बाहर, पच्छिमी किनारे पर बरगद के पास किसका घर है? क्या वह फूआ का घर नहीं है?
माँ: हाँ, है तो फूआ का ही, लेकिन घर उसी को तो नहीं कहते हैं।
सुरेश: तब किसे कहते हैं?
माँ: अभी तुम नहीं समझोगे। बड़े होगे तो ख़ुद समझ जाओगे।
मात्र मकान होना ‘घर होना’ नहीं होता, इसका एहसास युवक सुरेश को होता है। उसकी अनुभूति —“अँधेरे सन्नाटे में डूबा हुआ घर। घर में अँधेरा। . . . घर भी क्या, एक कमरा है। बाक़ी सब कुछ गिरा हुआ। एक अजीब सी अनुभूति होती है इस कमरे को देखकर। कमरे के चारों ओर टूटे हुए मकानों का उजाड़; इस उजाड़ के चारों ओर एक ख़ालीपन; और उस ख़ालीपन के कुछ दूर बाद गाँव। वृत्त में वृत्त।”
घर के अर्थ को जिस अनुभूति की आँच पर पकाकर लेखक ने सादगी से परोस दिया, हर शब्द आम जन के भीतर एक मुकम्मल बिंब बनाने में सफल हो गया-सा दिखता है। बिना किसी लाग-लपेट के, बिना कोई भूमिका बाँधे, सुरेश में परकाया प्रवेश की स्थिति में लेखक अनुभूति को शब्द देते जाते हैं और अनुभूति विस्तार पाती जाती है। यह विस्तार अन्य कहानियों में भी इसी प्रक्रिया से गुज़रने के परिणामस्वरूप नज़र आती है। लेखक के शब्द विवाहित सुरेश के चिंतन को रूपायित करते हैं—“समय-बोध के साथ समझता गया कि घर का मतलब मकान नहीं होता है। कुछ और यानी किसी और का अपना हो जाना। वैसे तो बचपन में व्यक्ति अपनों के बीच ही होता है। लेकिन यह कितनी विचित्र बात है कि अपने धीरे-धीरे अपर्याप्त लगने लगते हैं, धीरे-धीरे दूर होने लगते हैं और एक पराया व्यक्ति निहायत अपना हो जाता है। घर का अर्थ है—अपनेपन का साक्षात्कार। यह अपनापन बदलता या विकसित होता रहता है।” . . . “घर दीवारों का घेरा नहीं है। घर वह है जिसकी दीवारों पर गुनगुनी धूप की पंक्तियाँ लिखी होती हैं जिसके अवकाश में धारोष्ण दूध की तरह स्पर्श की उष्मा तैरती रहती है।”
एक व्यक्ति/स्त्री का अकेलापन उसके मकान में प्रतिबिंबित होता है। इसकी बानगी:
फूआ का घर क्या है? जब से मैंने होश सँभाला, फूआ को अकेले ही देखा। और घर, उसमें क्या था? गिरे हुए मकान में गिरने-पड़ने से रुका-रुका एक कमरा, जिसमें घर के कुछ पुराने टूटे-फूटे सामान, कुछ कपड़े-लत्ते बिखरे-बिखरे पड़े होते। उसमें हमेशा मुझे एक सीलन सी अनुभव होती। बचपन में तो उस घर की इस हालत के प्रति सचेत नहीं हो सका, किन्तु ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, इस घर की अपनी यह निजी पहचान मेरे भीतर उतरती गई। और जब मुझे यह मालूम हुआ कि यह घर केवल घर नहीं, फूआ की भीतरी ज़िन्दगी का प्रतिरूप है, तब से यह पहचान अधिक संक्रांत हो गई।
स्त्री स्वाभिमान का जीता-जागता उदाहरण यहाँ मिलता है जब पति को परमेश्वर बनाकर उसके हर व्यवहार को सहने-स्वीकारने की ग़ुलाम प्रवृत्ति को सिरे से नकारकर स्त्री आत्मगौरव जगाए और बनाए रखने का आग़ाज़ मिश्र जी की कथानायिका जगरानी करती है। मेरी आँखों के सामने अपनी बूढ़ी माँ के साथ अनाज की कुटाई-पिसाई कर, जीवनयापन करनेवाली महल्ले की खरोनिया बुआ का दृश्य उभर आता है जिसे अपने बचपन से बड़े होने तक जगरानी की सी ज़िन्दगी जीते देखा था . . . उसी स्वाभिमान और आत्मगौरव की रक्षा के दृढ़ संकल्प के साथ। वैवाहिक सम्बन्ध की निरर्थकता को केवल शिक्षित स्त्रियाँ ही नहीं, ग़रीब अनपढ़ स्त्रियाँ भी महसूस करती और नकारने का साहस रखती हैं, चाहे वह एक छोटे से शहर की मुस्लिम महिला खरोनिया हो, या लेखक की ग्रामीण पात्र जगरानी। जगरानी का जवाब ही खरोनिया और उस जैसी आत्मबली स्त्रियों का जवाब है।
माँ: आख़िर तेरा घर तो वही है न?
जगरानी: जहाँ सौत आती है, वहाँ घर होता है माई? तुम्हें बुरा लगा हो तो मैं कहीं और चली जाऊँ–रन में, वन में, नदी-नाले में, कुएँ में, लेकिन मैं जीते जी सौत का मुँह नहीं देखूँगी। सौत की सेवकाई नहीं करूँगी।
एक अन्य प्रसंग स्त्री की दृढ़ता का सुंदर उदाहरण पेश करता है:
जगरानी की उदास पलकें फड़फड़ाईं, होंठों पर हलकी मुस्कान आई, चेहरे पर एक निश्चय का भाव उभरा और उठ खड़ी हुई। “भउजी, कह देना अपनी ननद से, मैं मर जाऊँगी लेकिन उनके दरवाज़े पर घुटने टेकने कभी नहीं जाऊँगी। और मैं मरूँगी नहीं, जीने के लिए पैदा हुई हूँ।”
स्त्री दृढ़ता का ऐसा ही रूप ‘आख़िरी चिट्ठी’ की प्रभा में दिखता है जब बीडीओ पति अपनी माँ के कहने में आकर उसके साथ बुरा सुलूक करता है, उसकी कविता की डायरी फाड़ देता है, उसके बनाए चित्र तहस-नहस कर देना चाहता है, तब वह दृढ़तापूर्वक कहती है, चित्र फाड़े जाने के बाद फिर बनाएगी, फिर फाड़ा जाएगा, फिर बनाएगी . . .।
और ऐसा ही रूप ‘अधूरी कहानी’ की सुहागी भौजी का उभरता है जब वह कलपू की वासना का शिकार बनने के लिए तैयार नहीं होती। उसके ही शब्द—“मैंने मन ही मन ठान लिया। अब और बेस्सा नहीं बनूँगी। अब तक जो बन लिया, सो बन लिया। मेरे भीतर एक ब्राह्मण औरत का तेज धकधका उठा। और मैं सारे डर-भय से परे हो गई।”
सुहागी भौजी अनायास प्रेमचंद के सेवा सदन की नायिका सुमन की याद ताज़ा कर देती है। समय और संघर्ष स्त्री को दृढ़ बनाते हैं।
अंतर्भाव का एक और सुंदर चित्रण ‘अकेला मकान’ में देखें:
फूआ गा रही थी, मुझे पता नहीं चल रहा था कि उनके गाने में उल्लास है या विषाद! लेकिन जो भी हो रहा हो, वह बहुत गहरा दर्द जगा रहा था। जैसे वह हँसना चाहती हों लेकिन भीतर से रो रही हों।
अंतर्भावों के बदलते जाने, पीड़ा, क्षोभ, वितृष्णा, क्रोध, करुणा, उल्लास आदि मनोभावों का संयोजन अलग-अलग प्रसंगों में दिख पड़ता है। एक बार फिर ‘गबन’ की जालपा याद आ जाती है। प्रेमचंद के समान ही मिश्र जी की कहानियों में देशकाल-वातावरण और मनोविज्ञान का सुंदर संयोजन दीख पड़ता है।
सम्बन्ध का ताना-बाना भी तो मन के धागे से बुना जाता है। ‘ईदगाह’ में बालक हामिद अपनी बूढ़ी दादी की चिंता करता है। मिश्र जी ने बालक सुरेश को पड़ोस की बुआ के साथ आत्मीय डोर बाँधकर यह दिखा दिया कि केवल रक्त सम्बन्ध ही प्रभावशाली नहीं होते, बल्कि रक्त सम्बन्धों में तो स्वार्थवश खोट आ जाता है किन्तु आत्मीय सम्बन्धों में नहीं। बालक सुरेश अपनी जगरानी फूआ की उदासी सह नहीं पाता, विकल हो जाता है। स्नेह की यह मज़बूत डोर जगरानी को सबल बनाती है। वह अपनी बालसुलभ समझ के अनुसार समझाता है:
“मैं जानता हूँ, माँ अब तुम्हारे साथ नहीं रही (मर गई) इसलिए न उदास हो? लेकिन तुम्हारे साथ मैं जो हूँ।”
यह ‘साथ होने’ की निश्छल भावना किस क़दर टूटे-बिखरे, भीतर ही भीतर सुलगते–काँपते हृदय को लंबे हाहाकार से बाहर निकाल लाता है—इसका जीवंत प्रमाण ‘अकेला मकान’ सहित अन्य कहानियों में भी सहज उपलब्ध है। ‘एक अधूरी कहानी’ की ये पंक्तियाँ देखें, जब युवा हो चुका नरेश कहता है:
“भउजी, यह तुम क्या कह रही हो? तुम्हारा यह नन्हा देवर तुम्हारे जाने के बाद कितने दिनों तक रोता रहा, कितनी रातों सो नहीं सका, तुम्हें क्या मालूम?”
भउजी ने मेरी ओर देखा, उनकी पलकें लपलपाईं और एकाएक बरस पड़ीं। वे धीरे-धीरे बरसने लगीं।
आत्मीय स्नेह की उपज दो युवा मन को प्रेम के ख़ास रूप में बाँधते हैं, वहाँ ऊँच-नीच का वर्णगत और वर्गगत भेद भी मिट जाता है। ‘वसंत का एक दिन’ का नायक ‘ब्राह्मण जयराम’ और नायिका ‘मल्लाहन फुलवा’ का प्रेम भी ऐसा ही है।
जयराम चकित होता है: “न जाने वह कौन सा तार है, जो एकाएक हम दोनों के बीच जुड़ गया।”
जवाब फुलवा देती है: “वह तार दरद का है, जय बाबू! जो दरद आपका है, वही दरद मेरा है। आपको देखते ही मुझे लगा, मैं अकेली नहीं हूँ, कोई मेरे जैसा भी है।”
आत्मीयता की यही भूख ‘कर्मभूमि’ के नायक अमरकांत में दिखती है। इसी डोर से वह और सकीना बँध जाते हैं। प्रेमचंद की परंपरा को आगे ले जाते हुए मिश्र जी बालक और वयस्क स्त्री तथा बालिका और किशोर के वात्सल्यमय सम्बन्ध पर विशेष प्रकाश डाला है। यह एक अनूठा प्रयोग भी है। यहाँ प्रेम शृंगारिक नहीं वात्सल्य रस से भरा है। बच्चे की बात सुनकर जगरानी फूट-फूटकर रो लेती है। भीतर जमा सारा ग़ुबार बह निकलता है। वह शांत होती हुई कहती है:
“नहीं, अब उदास नहीं रहूँगी मेरे बेटे! फिर हँसूँगी, गाऊँगी। रो-रोकर तो मैं हार ही जाऊँगी और वे जीत जाएँगे। नहीं, मैं झूठ को जीतने नहीं दूँगी। तुमने मुझे जगा दिया बेटे!”
‘आखिरी चिट्ठी’ की नायिका प्रभा पत्र में लिखती है:
“भइया . . . ओह, अब तो तुम्हें भइया लिखते हुए हाथ काँप जाते हैं, क्योंकि यह शब्द अब मेरे लिए बहुत वीभत्स और कुरूप हो गया है। . . . लगता है, तुम्हें पत्र लिखते हुए यह शब्द अपना अर्थ पा लेता है।”
यहाँ एकबारगी पति को उसके किए की सज़ा देने को संकल्पित ’गोदान’ की मीनाक्षी याद आती है तो पिता उम्र के पति से अधिक हमउम्र सौतेले बेटे से आत्मिक स्नेह-सम्बन्ध से जुड़ी ‘निर्मला’ की निर्मला भी। थोपे गए सम्बन्ध कभी नहीं फलते।
जगरानी पीड़ामुक्त होकर गुनगुनाने लगती है तो बालक सुरेश को प्रकृति भी अनुकूल जान पड़ती है। बाह्य एवं अंत: प्रकृति के तादात्म्य का सुंदर दृष्टांत उपस्थित है:
हवा का झोंका आया। उमस टूट पड़ी और बादलों में एक हलचल मच गई। रिमझिम-रिमझिम पानी बरसने लगा। मैं बाहर से भीतर तक आर्द्रता से भर गया।
‘एक अधूरी कहानी’ भी उसी रचनाशैली का निर्वाह करती हुई आगे बढ़ती है। प्रमुख पात्र भी कथानायिका सुहागी भउजी और पड़ोसी नन्हे देवर नरेश हैं जिनकी आत्मा में लेखक का वास है। ऐसा लगता है मानो गाँव में बीते बचपन की स्मृतियाँ कुछ इस गहराई से भीतर उतर आई हैं, कुछ इस तरह जज़्ब हुई हैं कि समय-समय पर आत्मीय संबंधों से जुड़ी एक-एक स्त्री पात्र स्मृति का दरवाज़ा खटखटाकर न सिर्फ़ बाहर निकली बल्कि उनकी क़लम पर दबाव भी बनाया कि वह उनके जीवन की त्रासदी को समाज के सामने लाकर अपना दायित्व पूरा करे।
गाँव के प्राकृतिक सुरम्य वातावरण में कितनी दूषित मानसिकता और कुत्सित आचरण पलते हैं; तथाकथित उच्चवर्णी पुरुष कितना ढीठ और निर्लज्ज हो सकता है; और एक अकेली स्त्री अपने ही घर-परिवार में मर्यादित संबंधों द्वारा किए जा रहे अमर्यादित, अनैतिक कर्मों को ढोने और कलंकित होने को विवश होती है और इन घिनौनी स्थितियों से उबरने के लिए ग़लत निर्णय ले लेती है। स्त्री की दैहिक भूख के औचित्य को नकारने और पुरुष की दैहिक भूख को उचित माननेवाले समाज पर लेखक का तंज़ सराहनीय है। लेखक ने स्वयं से बार-बार प्रश्न करते हुए मानो समाज के चेहरे पर प्रश्न टाँग दिया है।
इस कहानी की नायिका बुज़ुर्ग स्त्री सुहागी जवानी भर पीड़ा के विविध आयामों से गुज़रती है। नरेश से आत्मिक जुड़ाव उसे जलते जीवन की शुष्कता से बचाए रखता है। अतीत और वर्तमान में विचरती सुहागी भउजी दशकों बाद इस नन्हे देवर को आपबीती सुनाने और अपने गाँव की माटी को शीश नवाने की इच्छा लिए आती है, जहाँ से घर/ गाँव के पुरुषों द्वारा उकसाई कामाग्नि की आग में जलती हुई, बाहर भागकर अपना जीवन राख कर चुकी है। पुरुष क़दम-क़दम कैसे जाल बिछाते हैं, कैसे देह की बोली लगाते हैं; कैसे प्रेम के नाम पर कामुकता का पोषण करते हैं और प्रेम को तड़पती स्त्री कैसे बार-बार अपनी ही नज़रों में गिरती हुई शरीर और मन से बिखर जाती है और हत्यारिन बन जाती हैं; पुरुष का चारित्रिक पतन नहीं होता, केवल स्त्री का होता है। समाज की इन विसंगतियों को लेखक की क़लम ने साहसपूर्वक उलीचते हुए ख़ुद को स्त्री पक्ष के खड़ा रखा है। कहानी के मूल बिंदु तक पाठक को लाते लेखक की अभिव्यक्ति:
एक लंबी कहानी बीच में ही टूट गई। जिस कहानी को सुनने को मैं वर्षों से तड़प रहा था, वह संयोग से आज सुनने को मिली भी तो आधे पर ख़त्म हो गई। कितने वर्षों की अनकही व्यथा लिए भउजी चली गई। उन वर्षों में उनकी ज़िन्दगी ने क्या-क्या ज़हर पिया, नारी जीवन ने अपनी आबरू की रक्षा के लिए किन-किन पत्थरों से सिर टकराया, किन-किन घाटियों से यातना की धारा बही, यह सब जानने को शेष रह गया। लेकिन जितना कुछ जाना, क्या वह अगली कहानी को जताने के लिए पर्याप्त नहीं है?
प्रश्न थमता नहीं। प्रश्न पर प्रश्न उठ खड़ा उठ होता है। लेखक के मन: प्रदेश में उठ खड़ा प्रश्नों का टीला उन्हें झकझोरता है, उसके द्वंद्व को उभारता है, उससे पूछता है। अंतर्द्वंद्व की बानगी देखें:
“क्यों नारी की यातना में इतना रस लेना चाहते हो? क्या शेष कहानी भी भउजी की ज़िन्दगी के अपमान, उपेक्षा और तकलीफ़ की कहानी नहीं होगी? जवाब भी लेखक को ही देना है और वे ईमानदारी से देते हैं:
“मैं रस नहीं लेना चाहता, मैं इस कहानी में उन बिंदुओं की तलाश कर रहा था जो सारी गलाजत के बीच कहीं नारी के महान प्रकाश कणों से दीप्त होते हैं और उसकी प्रतिभा को वह चमक देते हैं, जो पुरुष के लिए दुर्लभ होती है। समाज इन बिंदुओं की उपेक्षा करता है और नारी की प्रतिभा को गंदगी से भरी एक प्रतिमा मानकर उस पर थूकता है और थूकने में ही अपने को गौरवान्वित समझने लगता है।”
संध्याकाल में स्टेशन (देशकाल/वातावरण) का वर्णन कहानी को व्यंग्य के छींटे से और धारदार बनाता है। यों भी सहज भाषा और सरस काव्यात्मक शैली में विसंगत स्थितियों पर चोट करने का लेखक का अंदाज़ अनूठा है। बानगी देखें:
“चुनाव के समय को छोड़कर कोई विशिष्ट पुरुष इस स्टेशन पर नहीं उतरता, कोई चहल-पहल नहीं होती।”
“यों तो यह स्टेशन सन्नाटे में ही डूबा रहता है, किन्तु जाड़े की शाम में तो इसे भयानक उदासी और सूनापन घेर लेता है। घंटा टनटनाता है, गाड़ी हहराती हुई आती है, इक्के-दुक्के लोग उतरते-चढ़ते हैं, गाड़ी चली जाती है और फिर पूरा परिवेश जैसे सन्नाटे का एक मोटा सा लिहाफ़ ओढ़ लेता है। . . . हाँ विदा होती हुई बेटी की करुण ध्वनियाँ परदेस जाते लोगों के परिवारों की सिसकियाँ अवश्य गूँजती हैं, जिनसे पास के ताल के जल-पाँखियों के केंकार मिल जाते हैं। हाँ यही हमारा स्टेशन है। मैं रोज़ इस सन्नाटे और ध्वनियों से गुज़रता हूँ।”
भाव और भाषा का चमत्कार इन पंक्तियों में भी:
“एक अजीब सी सीलन भरी, ग़रीबी भरी गंध इस परिवार को डँस रही थी।”
“ग़रीबी और गंदगी की मिली-जुली सड़ाँध से यह परिवार गाँव में बदबू फैलाने लगा।”
वर्तमान में अतीत की तलाश और अतीत में गोते लगाते हुए वर्तमान के किनारे लग जाना मानव चेतना का स्वभाव है। चेतना वर्तमान में होकर भी वर्तमान में नहीं टिकती। फिर, जब अतीत ही वर्तमान बन जाए तब कुछ ऐसी ही स्थिति बनती है जिसका लेखक ने वर्णन किया है:
अब मैंने सुहागी भउजी का चेहरा देखा। उस चेहरे में वर्षों पहले के सुहागी भउजी के चेहरे को खोजना चाहा। भउजी का चेहरा ऐसा संक्रांत चेहरा था, जिसकी रेखाओं को एकाएक पढ़ पाना सम्भव नहीं था। कितने बीते वर्षों की रेखाएँ उभरी थीं। आँखों में घनीभूत उदासी भरी थी। बुढ़ापे का साया पूरे मुखमंडल पर बिछा था, जिसके भीतर से असीम व्यथा की अनुभूति फूट रही थी।
स्त्री विमर्श पर बड़ी-बड़ी बातें हुईं। बड़े झंडे खड़े किए गए। किन्तु जिस सादगी के साथ प्रेमचंद ने स्त्री अस्मिता को प्रमुखता दी और उससे जुड़े विविध आयामों पर प्रकाश डाला, वही सादगी मिश्र जी में नज़र आती है। स्त्री अस्मिता, उसकी महत्ता, उसके वुजूद को प्रमुखता देते हुए वे विमर्श को ऊँचाई देते हैं। पुरुषप्रधान समाज की दोगली मानसिकता पर व्यंग्य और स्त्री अस्मिता को मायने देती पंक्तियाँ देखें:
“नहीं भउजी, नहीं, तुम एक औरत हो। औरत को लोग न जाने क्यों और बहुत कुछ समझते हैं, औरत नहीं समझते। और जब वह औरत देह की भूख में परेशान होकर कुछ कर गुज़रती है तब लोग उसे बदनाम करते हैं, उसे छिनाल कहते हैं, वेश्या कहते हैं और एक बार जो औरत बदनाम हुई, वह उबर नहीं पाती। मरद चाहे जो करता रहे, वह हमेशा गंगाजल की तरह पवित्र रहता है।”
गाँव से शहर तक पुरुष समाज के बहुरूपिये चेहरे से जूझती-टकराती, टूटती-बिखरती, दृढ़ निर्णय लेती सुहागी गाँव में अपने प्रिय देवर से सारा सच इसलिए कहना चाहती है क्योंकि उसके शब्दों में:
“मैं यह नहीं चाहती कि मरद जाति मेरे जरिए औरत जाति पर थूकती रहे। मैं चाहती हूँ कि वह अपना चेहरा भी देखे और मुझे विश्वास है कि वह तुम्हीं हो जो मुझे समझ सकते हो और अपनी जातिवालों तक उनके असली चेहरों के प्रति मेरी नफ़रत पहुँचा सकते हो। और तो कोई सुन ही नहीं सकता, और सुने भी तो समझ नहीं सकता।”
एक सुंदर विवाहिता ब्राह्मणी युवती, जिसका पति अपने रसिया पिता के पास छोड़कर परदेस जा बसे और उसकी खोज-ख़बर भी न ले। घर की समृद्धि परिवार के मुखिया के रास-रंग में नष्ट हो जाए; दीनता लीलने लगे, ऐसी स्थिति में युवा स्त्री मन पर क्या बीतती है, यह एक संवेदनशील मन ही समझ सकता है। लेखक की संवेदना उस पीड़ा को महसूस ही नहीं करती, ख़ुद को घिरा हुआ भी पाती है। उनकी संवेदना विस्तार पाती हुई नरेश के बालसुलभ प्रश्नों की राह से बह निकलती है। पंक्तियाँ देखें:
सुहागी भउजी एक गुनगुनाता हुआ अस्तित्व थीं। लेकिन उस गुनगुनाहट में कैसी एक वेदना थी। उस मातृत्व में कैसी एक नारी सुलभ ज्वाला थी, इसे मैं १० वर्ष का बच्चा क्या समझता? जब वे फ़ुरसत में होतीं तो उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में एक अजीब सूनापन उभर आता। वे देर तक एक ही ओर देखती रह जातीं और मैं उन्हें देखता हुआ बैठा रह जाता।
नौकरी के लिए कई-कई साल के लिए बाहर के देशों में भटकते पुरुष ही दैहिक-मानसिक संत्रास के शिकार नहीं होते, उससे कहीं अधिक घरों में बंद स्त्रियाँ झेलती हैं जो सधवा होती हुईं भी विधवा-सा जीवन जीती हैं या परिवार के पुरुष की हवस का शिकार होती हैं। इस क्रूर सच का ख़ुलासा करने के साथ ही लेखक ने कुछ प्रश्न उठाए हैं जिन पर विचार करना और सही-सही उत्तर देना पुरुष समाज का दायित्व होना चाहिए। सुहागी की मनःस्थिति समझने की प्रक्रिया में लेखक के सामने दरिद्र मज़दूर समाज का कड़वा सच प्रकट हो जाता है और उस सच की व्याप्ति में सुहागी जैसी युवा स्त्रियों की पीड़ा भी, जो समाज द्वारा अनदेखी कर दी जाती है। पंक्तियाँ देखे:
मेरे सामने अपने गाँव की उस भयानक ग़रीबी का बोध उभर आया, जिसकी लपेट में लोग अपने बाल-बच्चों को छोड़कर दस-दस, पंद्रह-पंद्रह साल तक परदेस के काले पानी की सजा (सज़ा) भोगते हैं। कैसा अनुभव करते होंगे वे लोग? उनकी प्यार की तड़प, उनकी यौन-बुभुक्षा! लेकिन सच तो यह है कि अपने ही घर में पड़ी औरतें उनसे भी अधिक यंत्रणाप्रद काले पानी की सजा (सज़ा) भोगती हैं। पुरुष तो बाहर बहुत कुछ कर लेते हैं। वे अपनी भूख-प्यास मिटाने का साधन ढूँढ़ लेते हैं, किन्तु स्त्रियाँ घरों में घुटती हैं और उन्हें किसी से हँसकर बोलने का अधिकार भी नहीं होता। नैतिकता केवल उन्हीं के हिस्से में डाली गई है। जो अभाव वे झेलती हैं, वे तो झेलती ही हैं, परोक्ष या अदृश्य भय भी उन्हें सालता है। ‘पता नहीं, वे कैसे होंगे’? से लेकर ‘पता नहीं मुझे याद भी करते हैं या नहीं? पता नहीं, कोई सौत तो लेकर नहीं बैठ गए हैं?’ तक का दर्द उन्हें तोड़ता है। . . . नारी के शरीर धर्म को इतना अनैतिक, इतना उपेक्षणीय क्यों मान लिया गया है? अभाव को मन की सीमा तक क्यों सीमित कर दिया गया है? पुरुष के सारे वेद-शास्त्र, क़ायदे-क़ानून, थाना-कचहरी नारी के भोग-धर्म के ख़िलाफ़ क्यों उँगली उठाए घूमते हैं? पुरुष के शरीर धर्म को को तो कोई भी लांछित नहीं करता?
समाज स्त्री की एक ग़लती पर ‘पतित’, ‘कुलटा’ आदि-आदि विशेषणों से विभूषित करता है। भीतर से टूटी–हारी स्त्री एक के बाद दूसरी ग़लती करती है, मगर फिर भी उसके भीतर आत्माभिमान पूरी तरह मरता नहीं। सुहागी जेठ के बहकावे में आकर सम्बन्ध स्थापित कर लेती है और फिर लोक-लाज में भोग्या बनी-बनी अपनी ही नज़रों से गिरने और गिरते जाने के क्रम में विवेकहीन होकर अपनी देह के प्रति लोलुप सुनार सुंदर के प्रेम प्रस्ताव और वादे पर विश्वास कर भाग तो जाती है, किन्तु यथार्थ की कड़वाहट उसे तोड़ती जाती है . . .
सुंदर: मेरी भी मति मारी गई थी कि अपना घर-दुआर छोड़कर तुम्हें ले भागा।
सुहागी: तो अभी क्या बिगड़ा है, घर लौट जाओ। तुम लोगों का क्या बिगड़ता है? दो-चार दिन भला-बुरा सुन लोगे, फिर ठीक हो जाएगा। बरबाद तो मैं हुई। अब तो जहाँ से छूटी हूँ, वहाँ जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
इन तनावपूर्ण स्थितियों के बीच एक बदमाश कलपू की हवस को पूरा करने के बदले उसकी हत्या कर जेल जाना बेहतर समझती हुई कठोर निर्णय लेती है।
मिश्र जी ने अदालत में पुलिस और वकील द्वारा स्त्री से किए जाने वाले वाहियात सवालों और रिश्वत लेकर झूठ को सच साबित करने की बेहयाई पर भी तंज़ कसा है जिन्हें न्यायाधीश भी चुपचाप सुनते रहते हैं। स्त्री की विवशता से आकुल लेखक का मन क्षोभ से भरा है। दरोगा की वाचिक हिंसा का नमूना:
“वह कब से तुम्हारे पीछे पड़ा था? उस दिन तुम्हारे साथ क्या कर रहा था, क्या–क्या पकड़ा था? तुम किस पोजीशन में थी और वह किस पोजीशन में था?”
इसी प्रकार, दलाल वकील भी मोटी रक़म डकारकर गुंडा कलपू को समाज का प्रतिष्ठित व्यक्तित्व सिद्ध करते हुए एक झूठे गवाह को खड़ा कर सुहागी को चरित्रहीन साबित करने में कोर-कसर नहीं छोड़ता। ख़ुद हत्या का जुर्म क़ुबूल कर फाँसी की गुहार करनेवाली स्त्री किस मानसिक यंत्रणा से गुज़रती है, यह सुहागी के साथ घटित पूरे प्रकरण से स्पष्ट हो जाता है। कोट का काला रंग वकील के भीतर उतरकर जम चुका है कि उसे अपना पेशा भ्रष्ट करते हुए भी लाज नहीं आती। बेशर्मी और झूठ उसके दल्ले रूप को ही उजागर करती है। सब्र चुकता है। स्त्री चीखती है:
“हुजुर, मुझे फाँसी दे दीजिए, शेर-चीते के सामने डाल दीजिए। लेकिन इस काले कोट वाले जानवर के पास से मुझे हटाइए। इससे मुझे बदबू आ रही है।”
यह प्रसंग ऐसी ही यंत्रणा झेलती जेल में बंद कई महिला क़ैदियों के जीवन की वह कड़वी सच्चाई है, जो जेल के बाहर की संभ्रांत दुनिया में घटित हुई थी। जेल के बाहर भोगे घिनौने सच को जेल के भीतर महसूस कर तड़पती और बाहरी सड़ाँध से नजात पाकर ख़ुश होतीं वे जेल को अपने लिए ज़्यादा सुरक्षित मानने लगती हैं। याद आती हैं तिहाड़ से लेकर कैथु, मंडी, कंडा आदि जेलों में क़ैदियों के हितार्थ काम करनेवाली समाजसेवी सरोज वशिष्ठ, जिनसे महिला क़ैदियों के ऐसे सच सुनने को मिले थे।
मिश्र जी यथार्थ को चिह्नित करते हुए हर अन्याय के विरुद्ध सख़्ती से खड़े नज़र आते हैं। समाज का हर शोषित पात्र उनका अपना है जिसकी पीड़ा उन्हें सालती है। दोपाए भेड़ियों की दुनिया की अपेक्षा जेल का सुरक्षित लगना सभ्य समाज के मुँह पर करारा तमाचा भी है किन्तु तब, जब इसका एहसास हो। सुहागी द्वारा जेल में अपने आपको निश्चिंत बताना और यह कहना कि:
जेल जाकर मैं निश्चिंत हो गई। कोई चिंता नहीं—न खाने की, न पीने की, न मकान की, न नौकरी की। और आसपास घूमते कलपू जैसे शरीफ भेड़ियों से और तरह-तरह की कानाफूसी करती आँखों से बच गई। . . . अजीब बात थी कि यहाँ डर नहीं लगता था जैसा कि बाहर लगता था।
इस उद्धरण के बाद आज़ाद भारत के सभ्य समाज के नक़ाब को नोचने के लिए किसी हाथ की ज़रूरत नहीं पड़ती। नेताओं की शह पर फलता-फूलता गुंडा राज, गुंडों को शराफ़त का पुतला सिद्ध करने में लगी दल्ली पुलिस और दलाल वकील और केवल जिरह के आधार पर निर्णय सुनाने वाला हमारा क़ानून और इनकी पोल खोलती निर्भीक क़लम पूरे समाज पर प्रश्नचिह्न लगाती है—इक्कीसवीं सदी में भी, जबकि आज़ाद भारत ने अमृत महोत्सव मना लिया, पूरा विश्व जी-20 सम्मेलन को सफल मान चुका, चाँद पर फ़तह पा ली, मगर स्त्री? क्या स्त्री भयमुक्त हो सकी है अब भी? क्या वे रात-बे-रात कहीं भी भयमुक्त विचर सकती हैं? नहीं! तो किससे भय है और क्यों? स्त्री समाज के कई ज़ख़्म हरे होने लगते हैं। ‘अधूरी कहानी’ कई मुद्दों को उजागर करने और सभ्य समाज का काला चिट्ठा खोलनेवाला दस्तावेज़ बन जाती है।
‘आखिरी चिट्ठी’ पति की मृत्यु के बाद बेटे-बहुओं की उपेक्षा सहती महज़ एक माँ और उसकी फूल-सी कोमल बेटी की कहानी नहीं है, बीसवीं सदी के अंत से खुलकर पनपते और इक्कीसवीं सदी में संवेदना को तार-तार कर देने वाले हर उस घर-परिवार की कहानी है, जहाँ परिवार के बुज़ुर्ग में से किसी एक के जाने के बाद दूसरे का जीवन यातनागृह बन जाता है। बेटियों के लिए मायके का अर्थ गौण हो जाता है। यह कहानी माता-पिता की मृत्यु के बाद अपने ही भाई-भावज से मिले असह्य मानसिक पीड़ा भोगती ऐसी लड़की की व्यथा-कथा है जो ससुराल जाकर भी व्यथा का विस्तार ही पाती है।
कथानायिका बालिका प्रभा पिता की मृत्यु के बाद ख़ुद को जीवन के कटु सत्य के समीप पाती है। उसका अपना कहने को केवल पड़ोस का किशोर लड़का विनोद है, जिसे वह बड़ा भाई, दोस्त—सब कुछ मानती है और अपनी और माँ की हालत पत्र द्वारा साझा करती है। पारिवारिक मित्रता की डोर मज़बूत होने के कारण विनोद के माता-पिता उसके सुख-दुःख के प्रति संवेदनशील होते हैं, किन्तु सगे भाई-भावज के लिए वह सिवाय बोझ के कुछ नहीं होती जिसे एक भोंड़ी शक्ल वाले अफ़सर से ब्याहकर वे मानो गंगा नहा लेते हैं। जीवन की गाड़ी समतल सड़क नहीं पाती। सास, ननद और पति के बरताव से पल-पल टूटती प्रभा की दर्दभरी चिट्ठी विनोद को सहमा देती है। वर्षों से अप्रिय घटनाओं से भरी चिट्ठी तुरत खोलते-पढ़ते हुए वह अजीब भय से घिरने लगता है कि जाने इस बार कौन-सी बुरी घटना घटित हुई हो। बरस-दर-बरस बीतने, बड़े और व्यस्त होते जाने के कारण चिट्ठियों की आवाजाही तो बंद नहीं होती, मगर कुछ समय तक वे इंतज़ार में पड़ी रहती हैं। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह हर समय नकारात्मक स्थिति या सूचना को स्वीकार नहीं पाता और उससे बचने की कोशिश करता है ताकि संघर्षरत अपने जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और जिजीविषा बनाए और बचाए रख सके। कहानी प्रभा की ‘आख़िरी चिट्ठी’ से शुरू होती है और अतीत के गोते लगाते विनोद के माध्यम से लेखक की संवेदना झरती हुई, समाज से रक्त सम्बन्ध की सार्थकता पर प्रश्न दागती रहती है।
आख़िरी चिट्ठी बिना खोले चिट्ठियों के ढेर में रखकर भूल जाने के बाद, जब सप्ताह भर बाद उसे पिता से भरी जवानी में एक नन्ही परी की माँ बनी और इसलिए कोसी जाती हुई प्रभा की मृत्यु का समाचार मिलता है तो ख़ुद को कटघरे में खड़ा महसूस करता है जहाँ उसका आत्म सवाल दागता है:
सही बात क्यों नहीं कहते? क्या चिट्ठी की याद भूलने के पीछे उपेक्षा का भाव नहीं रहा? क्या तुमने यह नहीं सोचा कि आख़िर एक ही बात का रोना रोज़-रोज़ कौन सुने? लोगों ने प्रभा की उपेक्षा की तो तुम्हें बुरा लगा, परन्तु तुमने तो उसकी चिट्ठी की ही उपेक्षा कर दी!
अप्रिय घटना की सूचना की आशंका किस क़दर मानव मन को डराती है, इस मनोदशा का सुंदर चित्रण इन पंक्तियों में देखें:
हर बार चिट्ठी पाकर थोड़ी देर के लिए उसे मेज़ पर रख देता था। उसे खोलने में अजीब दहशत सी होती थी। पता नहीं, इसमें कौन सी नई अप्रिय सूचना हो! वैसे भी उसकी चिट्ठियाँ उसकी जीवन-यातना की परतें खोलती जाती थीं। कोई नई घटनात्मक सूचना न भी हो तो क्या भीतर स्थित दर्द के खुलते आयाम कम भयावह थे? हर बार चिट्ठी काफ़ी देर तक कटे हुए पंख की तरह फड़फड़ाती थी। फिर मैं आहिस्ता-आहिस्ता उसे यों खोलता था, जैसे उसमें कोई भयानक कीड़ा बंद हो और खुलते ही कूदकर मेरे चेहरे पर डंक मार देगा।
महानगर की बात छोड़ें, छोटे-छोटे शहरों में भी सामाजिक-पारिवारिक स्तर पर संबंधों में संवेदना का मर जाना और उसके लिए दैव दोष देना, निज संबंधों की लाश ढोना और ढोते-ढोते राख हो जाना; राख होते-होते भी जीवन की साँसों को अपने रंग में रँगने की चाहत प्रभा के बाहरी-भीतरी संसार में दिख जाता है। वृद्ध विमर्श की बानगी नीचे संवाद में देखें जब विनोद की माँ प्रभा के पितृहीन होने की ख़बर पाकर ईश्वर को अन्यायी कहती है तब पिता तर्क देते हैं:
पिता: ये राम का न्याय कहाँ है; ये न्याय-अन्याय तो आदमी ने ख़ुद बना लिए हैं। बुज़ुर्गों के प्रति यह उपेक्षा भाव पहले कहाँ था? अब देखो, कमाई-धमाई में डूबे लड़के माँ-बाप के बेकार होते ही उन्हें बोझ समझने लगते हैं। यह राम का न्याय नहीं है। नई शिक्षा, नए रहन-सहन और नई व्यापारिक मनोवृत्ति का न्याय है।”
माँ: यह क्या हुआ? माँ नहीं हुई, जैसे कोई सामान हो गई! धिक्कार है ऐसे बेटों को।”
उपेक्षा की बानगी प्रभा की चिट्ठी में भी मिल जाती है:
तीनों भाइयों की एक-एक बारी पूरी हो गई। अब बड़े भैया उन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहते और वे नहीं रख रहे हैं, इसलिए बाक़ी भाइयों को भी बहाना मिल गया। सच तो यह है कि हम लोग ख़ुद उनके साथ नहीं रहना चाहते। तीनों भाइयों के यहाँ बारी-बारी से उपेक्षा और अपमान का जो नरक हमने भोगा है, उसके बाद फिर उसी नरक में जाने की इच्छा नहीं होती।
विवाह से पूर्व और पश्चात् सगे संबंधों की राख से विलग जीवन का जो फीनिक्स राग शेष है, उसका कारण उसकी बेटी है जिसे प्रभा अपने दुर्भाग्य की थाती नहीं सौंपना चाहती, मगर विवश है। यही विवशता उसकी आख़िरी चिट्ठी में समाहित है:
मैं अपनी बेटी और अपनी कहानी छोड़े जा रही हूँ। दोनों एक ही हैं। . . . मेरी बेटी के माध्यम से फिर मेरी कहानी की पुनरावृत्ति होगी। दोनों को शायद कोई नहीं स्वीकारेगा। . . . . . . जिस अकेलेपन और संबंधहीनता के जंगल में बेटी को छोड़े जा रही हूँ, उसमें उसकी और गति ही क्या हो सकती है? . . . संबंधों की बेड़ी जकड़ने के लिए है। इनके संबंधों की जकड़न में वह मेरी या मुझ जैसी लड़कियों की कहानियों की पुनरावृत्ति ही करेगी। संबंधों की ये बेड़ियाँ न होतीं तो शायद तुमसे एक बार साहस करके कहती कि मेरी थाती को सँभालना और मेरी कहानी की पुनरावृत्ति से इसे बचाना। . . . संबंधों के भयावह यथार्थ को मैं जानती हूँ। ये न सुरक्षा देते हैं, न मुक्त करते हैं। उम्मीद के पूरे बोझ से आदमी पर लादे होते हैं।
इस कटु यथार्थ को उसी कटुता के साथ लेखक ने प्रकट होने दिया है। हालाँकि कहानी का अंत वे उसी फीनिक्स राग से करते हैं:
प्रभा की बेटी एक विद्रोह की कविता है; उसके प्यार और आग भरे हृदय से फूटी हुई एक मूर्त कविता! वह घूरे पर नहीं फेंकी जा सकती। नहीं, वह अवरोध पाकर उठेगी, वह अपनी ही लपटों की झालर में अपनी रक्षा करेगी। प्रभा ने एक नई शुरूआत की है, जिसमें ख़ुद तो होम हो गई, किन्तु होम होकर उसने जो ताप और दीप्ति दी है, वह नहीं मरेगी।
कुछ कहानियाँ अलग-अलग सवालों का ज़ख़ीरा उठाए हैं। इनमें से ‘वसंत का एक दिन’ का देशकाल /वातावरण तो गाँव ही है और गाँव की वे बुराइयाँ भी, जिनकी पहले की कहानियों में चर्चा हुई। इस कहानी में एक ओर व्यभिचारिता के पाँव कुछ बढ़े हुए हैं तो दूसरी ओर पवित्र प्रेम को नेस्तनाबूद किया जाता है। यह कहानी भी फ़्लैश बैक में चलती है और वर्तमान में अतीत की घुसपैठ कर गाँव की पोल खोलने के साथ ही मूँछ पर ताव देने वालों के नक़ाब उतारती रहती है। दो बड़े सवालों को लेकर चलती यह कहानी पहले रेखांकित सरोकारों में अंशत: शामिल हो चुकी है। एक ओर तो भाई की सम्पत्ति हड़प लेने की कूटनीति और भतीजे जयराम के साथ इस हद तक दुर्व्यवहार कि वह संवेदनशून्य और विक्षिप्त-सा हो जाए, दूसरी ओर ऊँच-नीच के वर्णगत भेदभाव की कटार से उसी अभागे ब्राह्मण कुमार जयराम के मल्लाहन विधवा युवती फुलवा के प्रति पवित्र प्रेम के दमन का मुद्दा, जिसकी सत्यता का उजास दंभी समाज द्वारा सह नहीं पाना और बचपन से स्नेह को तरसते जयराम को अधमरा कर गाँव से निकाल देना; एक ओर छुपछुपकर तथाकथित उच्चवर्णी पुरुषों का चमार टोली में जाना और डरा-धमकाकर देह-सम्बन्ध बनाना; दलित लड़कियों की शिक्षा पर तंज़ कसना और उन पर भेड़िए-सी दृष्टि रखना; ऊँची नाक वाले इन्हीं परिवारों के बच्चों द्वारा सम्बन्धियों संग स्वेच्छया खेत में कुकर्म करना, दूसरी ओर एक चमार कोदई के घर जयराम को भोजन करता देखकर उसी स्वार्थी चाचा का कुपित होना और उसे नराधम समझना—ये ग्रामीण सभ्य समाज या किसी भी ऐसी मानसिकता वाले समाज में फैले ऐसे लाइलाज रोग हैं जिनके कीड़े बिलबिलाते नहीं दिखते, मगर प्रायः हर घर में मौज़ूद रहते हैं।
कई ऐसे प्रसंग हैं जो प्रेमचंद की याद दिला जाते हैं। जाने कितनी ही बार मिश्र जी में प्रेमचंद प्रतिबिंबित दिखते हैं—वे ही मुद्दे जो सौ साल पहले ज्वलंत थे, आज भी प्रासंगिक हैं। वातावरण बदला ज़रूर है, मगर भीतरी सड़ाँध अभी गई नहीं है। हवा आज पहले से अधिक भारी हो चली है क्योंकि आज विकास के तमाम द्वार खोजते-खोलते हुए एक ओर जहाँ चाँद पर पाँव टिका लिए गए, वहीं दूसरी ओर आज भी युवतियों /कामकाजी महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा अपने कार्यस्थलों में शोषण से बच नहीं पा रहा है। आज भी कई गाँवों में बड़ी नाक वालों के बिगड़े शहज़ादों द्वारा दलित बेटी लूटी और जलाई जाती है; आज भी दलित स्त्री की चिता को ऊँचे वर्ण वाले अपने श्मशान में जलाने से रोकते हैं। इक्कीसवीं सदी का यह कड़वा सच चीख-चीखकर समाज का असली चेहरा देखने को कहता है। दलित स्त्रियों का देह-भोग करने का प्रसंग रमणिका गुप्ता की ‘बहू जुठाई’ की याद दिला जाता है। चमार टोली के लोगों द्वारा कुकर्मी युवक की पिटाई कर ज़बरन उसके मुँह में जूठा भात खिलाने का प्रसंग ‘गोदान’ की सिलिया और मातादीन के प्रेम सम्बन्ध, देह सम्बन्ध और सिलिया को पत्नी न स्वीकारने पर मातादीन के मुँह में हड्डी डालने के प्रसंग की याद दिला जाता है।
जयराम के भीतर आत्मीय स्नेह की वही भूख दिखाई देती है जो ‘कर्मभूमि’ के नायक अमरकांत में दिखाई देती है। माँ-बाप की छत्रछाया उठ जाने के बाद परिवार में ही बच्चे के साथ होनेवाले दुर्व्यवहार के दुष्प्रभाव का एक चित्र प्रस्तुत करती ये पंक्तियाँ और जयराम जैसे सैंकड़ों बच्चों के दुर्भाग्य का लेखा-जोखा बताती हैं:
वह उगते हुए फूल सा होनहार था; सुंदर था, स्वस्थ था, लेकिन चाचा-चाची के व्यवहार ने उससे उसका सब कुछ छीन लिया। इतनी कठोर घृणा और पीड़ा ने उसे सुन्न बना दिया। धीरे-धीरे उसके लिए फटकार और लांछन का कोई अर्थ नहीं रह गया। वे केवल शब्द रह गए थे। मार का मतलब टकराना रह गया था।
उसे आज भी चाचा-चाची के गरम-गरम थप्पड़ अपनी कनपटियों पर जलते हुए गुड़ की तरह मालूम पड़ते हैं। काश, वह अनाथ ही रहा होता तो उसके आठ बीघे खेत तो उसके साथ रहे होते, सनाथ होकर वह सब कुछ गँवा बैठा। अभी भी उसके पेट में बचपन की भूख की कड़वाहट खौल रही है। हमदर्द चाचा परिवार और गाँववालों की घिन भरी नज़रें और लांछन भरी फटकार की तेज धार उसके कान के परदे को कर्र-कर्र चीर रही है।
रक्त एवं वैवाहिक सम्बन्ध के जिस खोखलेपन को अब तक मिश्र जी की अनेक कहानियों में पाया और संग-संग याद आते रहे प्रेमचंद और अपनों से सताए उनके पात्र। जयराम की व्यंग्यात्मक उक्ति भी सम्बन्ध के उसी खोखलेपन को दर्शाती है। बानगी देखें:
“चाचा नामक चीज भी ऊँचे दरजे की होती है। वाह रे चाचा, तुमने खूब मेरे पिताजी के प्यार का बदला चुकाया।”
“पिताजी के मरते ही चाचाजी को उसकी आँखों में सपनों की जगह कंकड़-पत्थर दिखाई पड़ने लगे। ‘पढ़ेंगे ससुर डिपटी कमिसनर होंगे।’ और थप्पड़ मारकर किसी काम के लिए भेज देते।”
मिश्र जी की हर कहानी ‘कहन’ के गुण से तो भरपूर है ही। यथार्थपरक कथानक, संघर्षरत किन्तु स्वाभिमानी अजेय पात्र, भाव एवं संवेदना से भरे उनके संवाद, चिंतन, एकालाप अतीत एवं वर्तमान में आवाजाही करते कथानक के विस्तार को स्वाभाविक गति तो देते ही हैं, मनोभावों का सुंदर निरूपण, उससे प्रकृति का तादात्म्य, कवि सुलभ हृदय से फूटे शब्दों एवं अर्थों के अलंकरण, सहज भाषा, सहज, कहीं-कहीं वक्र शैली सहित कहानी के सशक्त प्रमुख पात्र कथावाचक वर्तमान से अतीत और फिर अतीत से वर्तमान लौटने, फिर-फिर जाने की शैली कहानी के प्रवाह को बनाए रखने में पूरी तरह समर्थ दिखती है। अपने उद्देश्य को क़लम ने स्वयं तय किया हो, ऐसा नहीं लगता। स्मृति के खंडहरों से मुक्त हुईं कथावस्तुएँ अपना उद्देश्य साथ लेकर आई हुई प्रतीत होती हैं। उसे रोचक बनाने में कलापक्ष के समस्त तत्त्वों के सुंदर संतुलित संयोजन से हर कहानी जीवंत होती हुई भी रिपोर्ताज नहीं लगती। उनमें जीवन–बयार बहती है; नैसर्गिक स्नेह की धारा कँटीले जंगलों के बीच नरम पगडंडी बनाए चलती है। मनोविज्ञान के समस्त तत्त्व इन भावों में समाए हैं। ऊपर, कहानियों की यात्रा करते हुए हमने इन तत्त्वों की भरपूर उपस्थिति महसूस की है। प्रकृति से कवि रामदरश मिश्र समस्याओं के रूखेपन से पूर्ण शिशिर के बीच वसंत का आगमन कराकर प्रकृति की नरमी और अद्भुत सौंदर्य का बहुरंगी गुलाल उड़ाए चलते हैं। बिंब ऐसा कि कहानी का अंश, विशेषकर गीत की सरसता से मन भिगो दे, आह्लादित कर दे। जीवन के विविध पक्षों की पड़ताल करने में उनका जवाब नहीं। उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास सहित मानवीकरण अलंकार की बानगी देखें:
“पलाश फूल गए थे, वनखंडी में जैसे आग लग गई हो। फागुनी हवा सूखे पत्तों को लुटाती, जलते फूलों को अपनी साँस से दहकाती, फ़सलों को गुदगुदाती सर्राटे भर रही थी।”
“एक बुदबुदाहट गाँव में रेंगी, लेकिन कोई हलचल नहीं हुई।”
वाद्ययंत्र सारंगी (कुकुही) का मानवीकरण क्या कम अनूठा है! बानगी देखें:
“. . . कुकुही को छुआ, वह सिहरी, फिर सिसकने लगी। फिर उमड़-घुमड़कर रोने लगी।”
आत्मीय सम्बन्ध केवल जीते-जागते प्राणियों से ही स्थापित नहीं होता, परिवेश से भी होता है और जब कोई चीज़, जिसमें अपनेपन की सौंधी सुगंध बसी हो, उसके छिन जाने के बाद भी वह अपनी ही लगती है। यही आत्मीयता, यही लगाव जयराम का अपने खेतों से है। उसके लिए यह महज़ ज़मीन का टुकड़ा नहीं है जिसे चाचा ने धोखे से हड़प लिया, बल्कि इसमें उसे पिता के स्पर्श की गर्माहट और अपने बचपन की भूली-बिसरी यादें सिमटी हुई मिलती हैं, इसलिए उसे सामने पाकर वह भावुक हो जाता है। गाँव के स्वार्थी लोग उसे अपने नहीं लगते, मगर ये खेत उसके अपने हैं तभी तो माटी बुलाती है, बार-बार बुलाती है, ख़ासकर वसंत ऋतु में और वह भी हर वर्ष ऐसे ही एक दिन खिंचा चला आता है और इन खेतों, उन जगहों, जहाँ पहली और आख़िरी बार फुलवा से मिला था और नेह की पाँख खुली थी, से मिलकर लौट जाता है। बरस-दर-बरस बीतता जाता है।
और ऐसे ही वसंत के एक दिन वह फिर गाँव लौटा। और:
उसने फिर सामने फैले लहलहाते खेतों को हसरत भरी नज़र से देखा, जो अब पराए हो गए थे। वह धीरे-धीरे उठा, खेत के पास गया। कुछ क्षण मौन देखता रहा, फिर झुककर खेत से एक मुट्ठी मिट्टी उठा ली, सिर पर लगाई और फफककर रो पड़ा। गेहूँ की एक बाली तोड़कर अपने गालों पर फेरता रहा। धीरे-धीरे अपनी जगह पर लेट आया। कुकुही फिर काँपी और रो पड़ी—फु-फु-फु-रे-ए-ए . . .
बैल हाँकने के बाद वह मुसकराया—“उसका खेत! वाह रे जयराम, अभी अपने खेत से मोह नहीं छूटा।”
उसका चार बीघे का चक सामने समुद्र की तरह उमड़ रहा था और वह उसके बीच खड़ा होकर भी जैसे अजनबी था। . . . . . .
वह धीरे-धीरे अपने खेत के विस्तार की ओर सरकने लगा। तरह-तरह की फ़सलें, सोने का रंग पकड़ते गेहूँ, पीले-पीले फूलों से लदी सरसों, नीले, पीले, सफ़ेद, लाल रंगों से दमकती मटर, तितली के समान नीले फूलोंवाली तीसी और एक किनारे पर पीले फूलों व छीमियों से लदी रहर और उसके बाद दूसरे के खेतों में रहर के जंगल का लंबा सिलसिला।
गाँव की ज़मीन ने वर्णगत/जातिगत भेद से ख़ुद को अभिशप्त कर लिया है। छुआछूत का कोढ़ रिवाज़ बनकर चतुर्थ वर्ण के मन पर इस हद तक काई जमा चुका है कि वे ख़ुद को निम्नतर/ निम्नतम/अस्पृश्य समझने लगे हैं और इस समझ के कारण शोषक के पौ बारह होते हैं। इस कहानी में जब ब्राह्मण कुमार जयराम दलित कोदई से पानी पिलाने कहता है तब कोदई की प्रतिक्रिया देखें:
“पानी मैं पिलाऊँ? अरे बाबू ई का कहते हैं? हम अछूत हैं, हमारे हाथ का पानी पीएँगे आप?”
मिश्र जी यहीं नहीं रुकते, गाँधी के हरिजनोत्थान अभियान में साथ-साथ चलते और इस अभियान को प्रेमचंद के बाद अपनी क़लम में उतार, आगे बढ़ते जाते हैं। सामाजिक कुपरंपरा के विरुद्ध खुलकर संग्राम की बानगी है यह प्रसंग। जयराम समझाता है:
“अछूत तुम नहीं हो, ये गाँव वाले हैं। तुम लोग पवित्र हो। पानी पिलाओ, बहुत प्यास लगी है।”
“बाबू मेरा हियाव नहीं कर रहा है।”
कोदई हिम्मत नहीं जुटा पाता तो जयराम झट आगे बढ़कर अपने लोटे में कोदई के घड़े से पानी लेकर, गटागट पीकर तृप्ति का आभास देता है। कुछ हरिजन स्त्री-पुरुष हैरानी से देखते रह जाते हैं।
ठीक ऐसी ही घटना बापू ने घटित की थी और हरिजन समाज चकित रह गया था।
शिक्षा किसी भी स्थान-काल की जड़ हुई चेतना को झकझोरती है और उसके बदलाव को रचती है। दलित बस्ती के किशोर/युवा शहर में पढ़ने लगे तो नई चेतना की चिनगारी अपने गाँव लेकर लौटे। जड़ समाज की जड़ता टूटी। गूँगे शोषित समाज का स्वर फूटा। वह क्रमशः मुखर होने लगा; अपनी अस्मिता की गरिमा पहचानने और उसकी रक्षा का दायित्व समझने लगा। कोदई गाँव वालों से सताए जयराम से गाँव वालों के बारे में कहते हुए डरता नहीं:
“ये सब नंबरी हैं। दूसरों का छीन-झपटकर अपना घर भरना ही इनका काम रह गया है। . . . ये लोग जो करम-धरम को लेकर इतना लेक्चर झाड़ते हैं, लेकिन खुद केतना अधरम करते हैं, इसे काहे नहीं देखते? आपने मल्लाह की लड़की से सादी करनी चाही तो इन लोगों को गाँव की इज्जत खतरे में लगी और जब पुरोहित के लड़के को चमारों ने बाँधकर मारा और उसके मुँह में हाँड़ी का जूठा भात डाल दिया, तब इनकी इज्जत नहीं गई? ससुरु चमरौटी में आए थे घाटि करने। जब मास्टर राजकिशोर की बेटी दूसरे गाँव के पासी के साथ भागी जा रही, तब इज्जत नहीं गई? जब सभापति का लड़का नेताजी की लड़की के साथ पकड़ा गया, तब इज्जत नहीं गई?”
दलित वर्ग में जागृति की जो लहर ‘गोदान’ में दिखी थी, उसकी अगली कड़ी इस और इस जैसी अन्य कहानियों में दिखती है। लेखक पर गाँधी और अंबेडकर के अभियान का सद्प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। उनका जन्म ही उस विशेष कालखंड में हुआ जब भारत राष्ट्र के रूप में जागने की प्रक्रिया में था और यह जागरण सामाजिक बदलाव की क्रांति के मार्ग से चलकर आया था, जब बापू के देशव्यापी आंदोलनों में दो प्रमुख अभियान दलितोत्थान, और इसके लिए खादी और चरखा से जुड़े अभियान तथा हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाना था ताकि हर एक वर्ण/वर्ग एकजुट हो सके। साहित्य के स्तर पर प्रेमचंद हिंदी की तरफ़ अपेक्षाकृत अधिक समर्पित भाव से झुकने के लिए दृढ़संकल्पित हो रहे थे और बदलते समाज को साहित्य में रच रहे थे और साहित्य को माध्यम बनाकर समाज में संभावित बदलाव की कोशिश भी कर रहे थे। जनचेतना जगाने के लिए प्रेमचंद ने जो काम किए, जो रचा, उसकी बयार उसी परिवेश में जनमे और पले-बढ़े मिश्र जी को भीतर से संवेदनशील कैसे न बनाती! उनकी समतामूलक दृष्टि भी उन्हें गाँधी, अंबेडकर और प्रेमचंद से जोड़ती और उनकी अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत करती है। मानवता को महत्त्व देनेवाले और प्राणिमात्र से प्रेम करनेवाले इस लेखक के लिए परंपरा के नाम पर चली आ रही ग़लीज़ प्रवृत्तियों को नकारना, जागरण का स्वागत करना, उस जागरण के पीछे के संघर्ष को दिखाना स्वाभाविक ही है और उनका यही स्वभाव उन्हें युगचेता बनाता है।
शिक्षा ने दलित बस्ती को जगाया है। गाँव के तथाकथित प्रभुओं के ख़िलाफ़ खड़े होने की सज़ा भी उन्होंने भुगती, मगर अब सामने खड़े होने, ललकारने का साहस जगा तो डर कम हुआ। कोदई गाँव में आए इसी बदलाव की चर्चा जयराम से करता है:
“हरिजनों की तो जान साँसत में है, बबुआ! पुरोहित के बेटे की पिटाई हुई तो हरिजनों पर आफत आ गई। बड़ी जाति के लोगों को यह देखकर अचरज होगा कि घाटि करने के जुरुम में चमार उन्हें पीट सकते हैं। अब तक तो वे हमारी बहू-बेटियों से खेलवाड़ करने का हक समझते रहे हैं, लेकिन अब नहीं सहा जाएगा। हमारी टोली के कुछ लड़के भी शहर में पढ़ने लगे हैं। और उन लोगों ने ही चमरौटी में आग पैदा की है। बड़ी जाति के लोगों ने उन्हें मारा भी, उनके घर चोरियाँ भी करवाईं; क्या-क्या नहीं किया।
अब हरिजन टोली वह नहीं रही। हमें इन बड़े आदमियों की फिक्र नहीं है। हमारे पास क्या है जो लेंगे? हमारे पास मेहनत है, उसके लिए ये लोग सौ चक्कर काटते हैं। इन्हें अब मजूरे नहीं मिलते। हम लोगों के बच्चे सहर निकल गए हैं। इहाँ तो मजूरों का अकाल पड़ता जा रहा है। एही लिए ये बाबू लोग हम लोगों को गाली भी देते हैं और चिरौरी भी करते हैं। अब हमलोगों ने भी ठान लिया है, जिएँगे तो आदमी की तरह जिएँगे, नहीं तो मर जाएँगे।”
आज़ादी के सात दशक बाद भी गाँवों से छूतछात की मानसिकता पूरी तरह गई नहीं है और छू देने से ऊँची जाति वाले भ्रष्ट हो जाएँगे, ये कुविचार ऊँची जात की स्त्रियों के दिमाग़ में ठूँस-ठूँसकर भर दिया गया क्योंकि ये कुनियम बनानेवाले भी जानते थे कि परंपरा की रक्षा और शुचिता के नाम पर घर की स्त्रियाँ न तो स्वयं दहलीज़ लाँघकर उस ओर बढ़ेंगी और न उनके क़दम घर की दहलीज़ चढ़ने देंगी। विकास के इस दौर में भी दलित बच्चों के साथ शिक्षक का दोहरा व्यवहार, भेदभाव, पानी का घड़ा छू देने या उस घड़े से बिना पूछे पानी पी लेने पर जानलेवा मार की घटना अब तक ख़त्म नहीं हुई है। दबाई गई घटनाएँ घुटकर भी चीखती-चिल्लाती रहती है और संवेदनशील मन उनकी कराह भरी चीत्कार सुन ही लेता है। गाँव की इसी मानसिकता का ख़ुलासा मिश्र जी ने कोदई के व्यंग्यात्मक शब्दों में किया है:
“इसकूल में भी सबसे किनारे बैठाई जाती है। बाबुओं की लड़कियाँ अपने साथ नहीं बैठातीं और उनके भाई लोग बेटी का गोड़ धोकर पीकर के लिए तैयार रहते हैं। छिप-छिपकर इशारे करते हैं, पइसा दिखाते हैं। लेकिन गोमती बहुत तेज है। एकाध की मरम्मत भी कर चुकी है।”
गाँव की दशा और दिशा दोनों में इन सौ वर्षों में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आ सका है, इसका प्रमाण पिछले कुछ वर्षों में घटित घटनाओं से मिल जाता है। व्याभिचार ने विकास के रास्ते चुन लिए हैं। एक ओर ग़रीब कोदई ऊँची जात वाले भेड़िए से बचाने की चिंता में बेटी की प्रतिभा का गला घोंट, उसे किसी के संग बाँध देने की सोचता है:
“लेकिन इन जानवरों के बीच कब तक वह अपनी लाज बचाएगी? सोचता हूँ इसकी सादी कर दूँ।”
दूसरी ओर, गाँव के प्रतिष्ठित परिवारों के कुकृत्य पर एक प्रसंग द्वारा लेखक ने व्यंग्य साधा है:
वह सघन खेत के काफी बीच में पहुँच गया। एकाएक दो व्यक्ति खेत में से उठकर भड़भड़ाकर भागे। जयराम ने देखा—एक लड़का, एक लड़की। उसने पहचान लिया कि लड़के महोदय और कोई नहीं उसके चचेरे भाई हैं – चाचाजी की शान और इज्जत; और लड़की सभापति जी की लड़की है। गाँव के दोनों इज्जतदारों की इज्जत अरहर के खेत में पनप रही है।
पवित्र रिश्ते की आड़ में घिनौना कृत्य करते युवाओं को लेखक जयराम के माध्यम से आड़े हाथ लेते हैं:
“क्या दुनिया है! कैसा झूठ है—चारों ओर राज्य करता हुआ! सत्य मार खाने के लिए बना हुआ है क्या? दोनों इज्जतदारों ने ही उसे मारा था और वे ही उसके देश निकाले और फुलवा की मौत के जिम्मेदार हैं। अब ये साले अपने-अपने घरों में चलनेवाले घिनौने व्यापारों को नहीं देखते। . . . कहनेवालों को ही दोषी ठहरा देंगे। सब कुछ ठीक है, भाई–बहन का व्याभिचार भी ठीक है, यदि वह अँधेरे में चलता रहे . . .।”
इस प्रसंग से एक छोटे शहर में घटित यथार्थ घटना आँखों के सामने तैर गई।
पवित्र प्रेम को छिपने-छिपाने की ज़रूरत नहीं होती। उसका उजास न छिप सकता है, न सुगंध क़ैद हो सकती है। दर्दीला मन नैसर्गिक स्नेह की छाँह पाकर बस टिक जाना चाहता है। जयराम और फुलवा का दर्द परस्पर घुल-मिलकर एकसार हो जाता है, फिर वर्णभेद की उन्हें परवाह नहीं रहती। देह से ऊपर उठा प्रेम आत्मिक और दैविक होता है जिसमें वासना की गंध लेशमात्र नहीं होती तो किसी प्रकार का भय भी नहीं होता। दोनों पहली बार मिलते हैं और थोड़ी बातचीत के बाद ही एक अपनापन, एक प्यारा बंधन महसूस करने लगते हैं। प्रेम की गहन अनुभूति से उपजा फुलवा का नारीसुलभ व्यवहार स्त्री लज्जा का सुंदर उदाहरण है और रूपक अलंकार का भी:
“उसके गाल पलाश के फूल बन गए। वह दूसरी ओर मुँह करके दाहिने पैर के अँगूठे से ज़मीन कुरेदने लगी।”
और उसके शब्द अन्यमनस्क भावों का बिंब प्रस्तुत करते हैं:
“जिस दिन आपसे भेंट हुई उस दिन से न जाने मुझे क्या हो गया! उसी दिन से लगता है कि मेरे भीतर जमी हुई कोई सतह टूट गई और एक धारा नीचे से ऊपर आना चाहती है।”
निश्छल प्रेम पाने को आकुल पुरुष मन भी कुछ ऐसे ही भावों से गुज़रता है। जयराम भी मन की गति समझना चाहता है:
“यही बात तो मेरे साथ भी हुई; फूलवा! न जाने वह कौन सा तार है, जो एकाएक हम दोनों के बीच जुड़ गया।”
वह स्वीकारता है:
“फुलवा, हम लोगों का अभाग्य ही हम लोगों के प्रेम का सबसे बड़ा आधार है। मैंने वेद-शास्त्र नहीं पढ़े हैं, लेकिन जिन्दगी जीते-जीते इतना सीख गया हूँ कि प्रेम बिना आदमी आदमी नहीं रह जाता। जिन्दगी टूट जाती है। और वह प्रेम जो आदमी को बल दे, टूटने से उबारे, पवित्र होता है फुलवा! चाहे वह कहीं से मिले।”
‘कर्मभूमि’ के अमरकांत और सकीना के बीच यही तार नज़र आता है। कर्मभूमि के अमरकांत के मनोभाव, निश्छल आत्मिक नेह की उसकी भूख जयराम में रूपायित होती है:
“तुम्हीं क्या, सभी समझते हैं कि मैं अपनी ही दुनिया में खोया रहता हूँ। लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि मेरी कोई दुनिया है भी कि नहीं। अपनेपन की भूख बहुत भयानक होती है लड़की! इस कुकुही की टेर में उसी भूख को भूलता फिरता हूँ।”
निश्छल निःस्वार्थ प्रेम मन को सबल बनाता है। ब्राह्मण जयराम मल्लाहन फुलवा से अपने पवित्र प्रेम को मुखरता से स्वीकारता है और प्रतिक्रिया में चाचा द्वारा मारने हेतु हाथ उठाने पर वह हाथ पकड़कर ज़ोर से डपटता है:
“खबरदार! बाँह तोड़कर रख दूँगा। अब मैं वह पत्थर नहीं हूँ, जो चुपचाप आपकी लात-गारी सहता आया है। अब मुझे भी दर्द होने लगा है। आप छिप-छिपकर चमरौटी जाना छोड़िए तब मुझे सीख दीजिएगा।”
लेखक की कहानियाँ प्रश्नों के सुगबुगाते अंबार सौंप जाती है। उत्तर पाठक को देने हैं . . . समाज के छिपे कोढ़ को जड़ से मिटाकर . . .।
इन समस्याओं से हटकर एक में समाई अनेक समस्याओं से रू-ब-रू कराती कहानी ‘पराया शहर’ किराएदार द्वारा मकान ढूँढ़ने की समस्या की जटिलता पर प्रकाश डालती है। यह कहानी हर उस आम जन की कहानी प्रतीत होती है, जो तबादले या नई नौकरी के दौरान बार-बार शहर बदलने, उस परिवेश को जज़्ब करने और उसमें घुल-मिल जाने से पूर्व नए शहर जाकर फिर उसी प्रक्रिया से गुज़रने को विवश होते हैं। अजनबी शहर में प्रायः हर किराएदार कभी न कभी त्रासदी की इस स्थिति से गुज़रता ही है और जब तक ढंग का मकान नहीं मिल जाता, ज़िन्दगी से सुकून कहीं खो सा जाता है, ख़ासकर जब परिवार साथ हो और बच्चे छोटे हों। उस कारुणिक दशा की सहज अनुभूति इस कहानी से गुज़रते हुए होती है। अजनबी शहर में, अजनबी चेहरों के बीच ख़ुद का होना खोने लगता है। ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य साथ न दे, डॉक्टर भी न मिले, न पोषक आहार और अकेलापन निगलने लगे तो क्या हो सकता है, इसकी बानगी:
“जुलाई का भारी-भारी दिन सरकता-सरकता किस तरह घड़ी की छोटी सूई की तरह थोड़ा आगे बढ़ जाता है, जैसे उसके ऊपर एक बड़ी चट्टान झुकी हुई है—अब गिरे तब गिरे।
नामहीन आकृतियाँ ही आकृतियाँ! उसे एहसान मानना चाहिए उस मिस्त्री का कि वह आता है और पत्थर की नोक घुसेड़कर उसके दर्द को नया मोड़ देता है। यह क्या कि चौबीस घंटे एक सा दर्द झेलते रहो।
शायद शहर है। शायद . . . शायद क्योंकि वह अभी तक शहर के भूगोल से परिचित नहीं है। दिशाओं की पहचान नहीं है। चिमनियाँ ढेर की ढेर, लेकिन किसी का नाम नहीं जानता। उसके लिए तो ये बस चिमनियाँ हैं, जिनमें से एक धुआँ निकलता रहता है। ये बस कोठियाँ हैं, जिनमें एक से लोग रहते हैं। बीच का सन्नाटा हाँ, उसे वह पहचानता है। वह अपने और शहर के बीच बिछे सन्नाटे को कब से पहचान रहा है।”
नौकरी के कारण उत्पन्न हुई विस्थापन–सी स्थिति भी क्या कम कष्टकर होती है! कैरियर बनाने के लिए मूल से कटकर भटकाव की प्रक्रिया कब-कहाँ जाकर रुके, इसका भी निश्चित पता नहीं होता। एक शहर से पहचान बनने से पहले दूसरे शहर के लिए निकलना तबादले वाली नौकरी का अभिशाप तो है ही, कई बार स्वेच्छया बेहतर नौकरी या प्रमोशन के चक्कर में भटकाव चुन लिया जाता है और फिर अकेलेपन के डंक को झेलते हुए अपने मूल की याद में उतरा जाता है, जहाँ लौटने के रास्ते बंद न होकर भी बंद से ही होते हैं। बुख़ार में पीड़ित, अकेलेपन को ओढ़ता-बिछाता पंकज अपने आप से सवाल-जवाब करता है:
“घर? हाँ घर। कहाँ है घर उसका? उसका घर तो एक दूसरे प्रदेश के गाँव में है, सैंकड़ों मील दूर। लेकिन उस घर से छूटे उसे कितने वर्ष हो गए? वहाँ उसके अपने खेत हैं, बारी है, मकान है, बड़ा परिवार है। लेकिन उस घर से टूटे उसे कितने दिन हो गए? वहाँ जाता है तो एक अजनबी की तरह। अब वह घर घर नहीं लगता। उसे लगता है कि वह लौटकर अब वहाँ नहीं जा सकेगा। उसके बाल-बच्चे अब इस शहर से दूसरे शहर घूमेंगे और उनकी अपनी कोई ज़मीन नहीं होगी। चलो अच्छा होगा कि उन्हें किसी ज़मीन से लगाव और उससे उखड़ने का दुःख तो नहीं होगा। वह तो ज़मीन से लगकर भी उखड़ा हुआ है।”
परिवार को अर्द्धपरिचित शहर में छोड़कर फिर नए शहर में नई छाँव की तलाश करता थका-हारा मन और बीमार तन लिए युवा प्रोफ़ेसर पंकज उस घर और उस शहर को सोच के केंद्र में रखता है:
“एक अजीब सी सीलन है उस शहर में। एक सीलन भरी गंध उसे निगलती रहती, जैसे जाड़े की जमी हुई बदली उसमें फँस गई हो! बड़ी मुश्किल से वहाँ एक मकान मिला था कि छूट गया। और अब नए शहर में फिर एक मकान की तलाश। तलाश ही तलाश, लेकिन अभी उस मकान से सम्बन्ध टूटा कहाँ है! अभी उसकी पत्नी दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ उसी मकान में रह रही है।”
कहानी दर्द और उलझनों में लिपटी हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ती जाती है। नन्हे बच्चों की सहमी तस्वीर उनकी मनःस्थिति बयान करती हैं। गर्भवती बीमार पत्नी के पास उसके आ जाने से पुराने शहर के उस मकान में जीवन का फिर संचार होता है, सहमे बच्चे कमरे से बाहर खेलने निकलते हैं। लेखक ने वक़्त की नब्ज़ पकड़, वातावरण का सजीव चित्रण किया है:
दो बीमारों के मिलने से कमरे का अफाट एकाकीपन हिलने लगा। कई दिन का ठहरा हुआ बीमार सन्नाटा दरकने लगा।
इसी प्रकार, “नए शहर में जाने की ख़ुशी बच्चों की आँखों में चमक रही थी, किन्तु पति-पत्नी की आँखों में उभर रहा था एक अजनबी शहर, जिसमें कुछ भी अपना नहीं है—बस वीरान गहराइयाँ यहाँ से वहाँ तक . . . पेचदार गलियाँ, अपरिचित मोड़, अनजाने चौरस्ते और एक अनदेखा मकान!”
नए शहर पहुँचकर समस्या ख़त्म नहीं होती। कठिनाइयों के कई मोड़ों से गुज़रती हुई कुछ दिनों की राहत देती हुई फिर अनिश्चितता के रेगिस्तान में ला खड़ा करती है। पंकज बुख़ार से तड़प रहा है, गर्भवती पत्नी कराहती हुई सो गई है या दर्द दबाए गुमसुम पड़ी है, उसे नहीं पता! मालूम है तो इतना कि इस अजनबी शहर में मिले मकान को अगले दिन ख़ाली करना है और उसे पता नहीं है कि इस हालत में वह परिवार लेकर “कहाँ जाएगा कल?” उसे लगता है मानो “सामने एक रेगिस्तान है जिसमें रास्ते नहीं हैं। रास्ते दीखते भी हैं तो हवा मिटा जाती है। ओह! बड़ी उमस है। ये बादल कई दिनों से आकाश में कसे हैं, न बरसते हैं, न छँटते हैं। कहाँ जाएगा कल?”
कहानी ख़त्म हो जाती है, सवाल ठहरा रहता है दहलाता रहता है, डराता रहता है हर किराएदार को इस अनिश्चित कल से।
लंबी कहानियों का सिलसिला यहीं नहीं थमता। जीवन की बहुरंगी धूप-छाँव को कहानी की माला में पिरोने में समर्थ डॉ. रामदरश मिश्र की लंबी कहानियों की शृंखला में ‘निर्णयों के बीच’ एवं ‘आज का दिन’ अपने भीतर उतरने और मोती ढूँढ़ने को आमंत्रित करती लंबी कहानियाँ हैं। उनकी विस्तृत चर्चा फिर कभी। यहाँ जिन कहानियों को खँगालने की कोशिश की गई, वह कोशिश कितनी सार्थक रही, इसका निर्णय भी सुधी पाठक ही करें।
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