वह अलबेला साथी
डॉ. आरती स्मित
अक्सर यादों के परिंदे उस समय अपने पंख अधिक फड़फड़ाने लगते हैं जब कोई साथी/परिचित/सगा-संबंधी साथ छोड़कर समय की अँधेरी सुरंग में समा जाता है, जहाँ से न तो उसकी वापसी की कोई उम्मीद बँधती है, न हमारे ये क़दम वह दूरी नाप पाने में समर्थ होते हैं और न ही कोई दूरसंचार व्यवस्था काम देती है। इस बिंदु पर विज्ञान हारा हुआ और आध्यात्मजयी प्रतीत होता है किन्तु उस मार्ग से यात्रा करने वालों की संख्या नगण्य है। ऐसे में स्मृति का वह कोमल हिस्सा सक्रिय होते हुए अपने भीतर सँजोए उन पलों को मुक्त कर देता है और वे पल नाचते-गाते हुए अतीत को वर्तमान बना देते हैं।
सुरेंद्रपाल जी द्वारा उसी सुरंग में प्रवेश कर जाने की सूचना मेरे लिए धमाके की गूँज लेकर आई, जिसकी अनुगूँज बाद के कई दिनों तक बनी रही। यक़ीन कर पाना इसलिए कठिन रहा क्योंकि उनके विदेह होने के चार माह पूर्व से उनके जीवन-मृत्यु के बीच की रस्साकशी की जानकारी नहीं मिली थी। उससे पूर्व वे गीताजी सहित विश्व भ्रमण करते सोशल मीडिया पर दिखते रहे थे। हर पल कुछ न कुछ नया करते रहने के जोश से भरा एक ख़ुशमिज़ाज इंसान, जिसे ख़ाली बैठना कभी पसंद नहीं रहा हो, मगर जो भीतर से उतना ही गंभीर हो।
साहित्य, कला, संस्कृति, समाज, इतिहास, पुरातत्व, कलात्मक गृह निर्माण से लेकर देश की राजनीतिक हवाओं पर दृष्टि टिकाए, सामाजिक न्याय, साझी संस्कृति तथा समसामयिक मुद्दों पर लगातार क़लम चलाते, वक्तव्य देते, और ‘देस हरियाणा’ के लिए सलाहकार की भूमिका निभाते सुरेंद्रपाल जी उतने ही प्रेम से किचन गार्डन को सँवारते, गीत-संगीत का आयोजन करते, खाते-खिलाते, क़हक़हे लगाते हुए जीवन बुनते रहते। देश-विदेश की यात्रा के शौक़ीन पाल दम्पति द्वारा नाला धमेर में निर्मित मड हाउस पुरातन एवं आधुनिक कलात्मक साज़ सज्जा का उत्कृष्ट नमूना है और उनके सपनों का मूर्त रूप भी। मड हाउस के बहाने केयर टेकर के परिवार की देखभाल, उसकी आर्थिक मदद करने, ऊँच-नीच, जाति-धर्म से परे इंसानियत को सर्वोच्च स्थान देते हुए अतिथियों की आवभगत में मगन रहनेवाला यह इंसान कैंसर की अंतिम अवस्था में पहुँचने तक घूमता-झूमता-गाता रहा और शरीर की सूचना उस तक पहुँची ही नहीं—कैसे सम्भव है! अब भी यक़ीन नहीं होता। लगता है, अभी फ़ोन पर बोल पड़ेंगे—“तो आरती जी, क्या चल रहा है? बिटिया आए तो उसको भी लेकर आइएगा। फ़ार्म हाउस लेखकों-कलाकारों के लिए मन मोहने वाली जगह है। उसको अच्छा लगेगा—इस बार तो आप रुक नहीं पाईं, फिर आइए और आराम से लेखन का काम कीजिए। केयर टेकर है ही . . .”
घड़ी की सूई ज़रा पीछे घुमा दूँ तो वर्ष 2022 का पट खुलता है। मशहूर चित्रकार एवं ड्रॉप डेड के संस्थापक आबिद सूरती जी के आमंत्रण पर ‘आग़ाज़-ए-दोस्ती’ की सौहार्द यात्रा पर जाने का सुयोग बना। इसी यात्रा में एक दाढ़ी वाले इंसान से मुलाक़ात हुई। कार्यक्रम की व्यस्तता के दौरान संक्षिप्त संवाद ही हुआ। कुछ था जो उन्हें भीड़ से अलग करता था और वह था—बात करने का उनका अनोखा अंदाज़, चीज़ों को देखने का उनका नज़रिया।
कार्यक्रम की व्यस्तता में समय का पता न चला। शेष समय अमृतसर भ्रमण के नाम हुआ। तेज़ धूप और रात की अधूरी नींद के बाद, दूसरे दिन भी, दिन भर की व्यस्तता के बाद सबके साथ वापसी का मेरा निर्णय मेरे लिए ग़लत साबित हुआ। आबिद साहब की सलाह मानकर वहीं अतिथिगृह में रुकने हेतु सहमत न होने का पछतावा हावी रहा। युवा साथी की सलाह मानने की भूल की सज़ा यह हुई कि बस में रात भर भी उनके गाने-बजाने, शोर-शराबे के कारण नींद नहीं हुई और माइग्रेन के तेज़ अटैक ने मुझे बेहाल कर दिया। उस वक़्त सुरेंद्रपाल जी ने एक्यूप्रेशर, एक्यूपंचर आदि के द्वारा थोड़ी राहत प्रदान की।
बाद के दिनों में हम फ़ेसबुक मित्र बने। किन्तु तब भी उनको समझ पाई, कहना ग़लत होगा। उनसे वास्तविक परिचय तो तब हुआ जब वे अधिकारपूर्वक बोलकर घर आए। मेट्रो स्टेशन से आवास तक उन्हें साथ लेकर आते हुए भी औपचारिकता हमारे बीच बड़ी जगह घेरे रही। घर पर बेटी से मिले। हमने साथ लंच किया। उसके बाद शुरू हुआ संवाद और संवाद के इस प्रवाह में समय ने कब औपचारिकता की पोटली चुरा ली, हमें पता ही न चला। हम अपने-अपने परिवार और बच्चों के वर्तमान और भविष्य पर बात करते रहे, जिनमें हम स्वयं भी घुले हुए थे। शाम चाय की चुस्की के साथ अचानक वे मुस्कुराए, फिर बोले—“मैं तो मेट्रो से लेकर यहाँ आपके घर आने तक आपको बेहद रिज़र्व और एटीट्यूड वाली लेडी समझता रहा। घर न आता तो समझ ही न पाता कि आपके भीतर एक बच्ची है, एकदम सहज। बेटी भी आप जैसी ही है।” उन्होंने यात्रा वृत्तांत की अपनी पुस्तक ‘वाइटिगोंग’ भेंट दी। उनकी वापसी के समय विदा करने नीचे उतरी तो बात करती हुई मेट्रो तक चली गई। उन्हें विदा कर, लौटते हुए ऐसा लगा मानो घर के किसी बड़े को विदा करके आ रही हूँ। अब हमारे बीच गहन गंभीर औपचारिकता के लिए जगह न बची थी।
सुरेंद्रपाल जी जब दिल्ली आते, प्रायः सूचित भी करते। गीता जी भी दिल्ली आईं, मुझे सूचना मिली, मगर किसी न किसी कारणवश मेरा मिलने जाना या बुलाना सम्भव न हो सका। सुयोग न बना, कहना उचित होगा। २०२३ आरंभ से लेकर अगस्त तक पारिवारिक व्यस्तता चरम पर रही। आग़ाज़-ए-दोस्ती यात्रा में चलने के लिए उन्होंने बार-बार कहा, समझाया कि फिर वैसा नहीं होगा, लेकिन मैं अपने शरीर के प्रतिकूल वातावरण और यात्रा के लिए मानसिक तौर पर तैयार न हो सकी। उन्होंने पूरी बात समझी और मान गए। पहले बेटी, फिर बेटे को बाहर भेजने के बाद दिल्ली से बाहर साहित्यिक कार्यक्रमों में जाने के लिए भी कुछ समय निकाल पाई। इसी दौरान उन्होंने अपने फ़ार्म हाउस पर होनेवाली त्रिदिवसीय कार्यशाला में बतौर वक़्ता शिरकत करने की पेशकश की। मैंने स्पष्ट किया कि “मैं राजनीतिक मुद्दों पर नहीं लिखती, मेरे लिए गाँधी का व्यक्तित्व-कृतित्व उस महामानव का है जिन्हें जानकर प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को बेहतर बना सकता है और एक उत्कृष्ट मानव बन सकता है। हालाँकि देश और राष्ट्र के सरोकार पर क़लम चलती रही है, मगर आपकी कार्यशाला में रखे विषय के अनुरूप अभी कुछ लिखा नहीं है।”
“बिलकुल अनौपचारिक वातावरण पाएँगी। आप आ जाइए। आपको अच्छा लगेगा और आप जब तक चाहें, रुकिए और अपना लेखन-कार्य कीजिए।”
अब उनकी बात टाल न सकी। उन्होंने टिकट बनाकर भेज दिया। नियत दिन मैं गई। किसी कारणवश रुकना हो न सका। मगर, वे पाँच दिन गीता जी एवं सुरेंद्रपाल जी के पारस्परिक सम्बन्ध, सहजता, खुलापन, मैत्रीभाव एवं आतिथ्य के लिए सदैव प्रस्तुत रहने की प्रवृत्ति को समझने के लिए पर्याप्त रहे। हालाँकि इस दौरान सुरेंद्रपाल जी से संवाद न के बराबर रहा, लेकिन गीताजी को जानकर उन्हें अधिक जान पाई। पंचकुला वाले मकान में या कहूँ घर की हवा में उन दोनों के साथ मैं भी घुल-मिल-सी गई थी। उन्होंने मुझे लेखकीय वातावरण देने में कमी न की, किन्तु रुकना-रहना न हो सका तो एक दिन बाद ही वापसी हो गई। इन चंद दिनों में स्मृति में सँजोए पलों में वे पल भी हैं जिनमें पंचकुला की सुबह भी शामिल है और सुरेंद्रपाल जी के हाथ की चाय भी। और हाँ, उस सुबह चाय के लिए हमारा टहलते हुए अदरक वाले तक पहुँच बनाना भी। फ़ार्म हाउस पर वातावरण आनंदमय बनाने में पाल दम्पति ने कसर न छोड़ी थी। मैं चूँकि पहले पहुँची थी तो गीताजी के साथ आगे का दोस्ताना सफ़र तय हुआ जो उन्हें समझने में सहयोगी रहा। फ़ार्म हाउस का सौंदर्य, आसपास बिखरी प्रकृति और पहर-दर-पहर बदलता उसका रूप मुझे मुग्ध करने के लिए पर्याप्त रहा। सुरेंद्रपाल जी कार्यक्रम की व्यवस्था में व्यस्त होते हुए भी सजग रहे कि मैं उस परिवेश में ख़ुद को सहज अनुभव करूँ। नींद सहज रूप में न होने के बावज़ूद तीन दिन-रात उत्सव की तरह बीत गए। जंगल से घिरे इस फ़ार्म हाउस की छत से सूर्यास्त और अद्भुत सूर्योदय का जो रूप इन नेत्रों ने देखा और अपने भीतर बसा लिया वह शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। नाला धमेर में अवस्थित उनके फ़ार्म हाउस के उस नैसर्गिक परिवेश को, उस शांत-एकांत वातावरण को पूरे मनोयोग से जिया जा सकता यदि मैं वहाँ बाद में नितांत अकेले ठहरने का मन बना पाती।
फ़रवरी-मार्च में जब मड हाउस के उद्यान में फूल खिलने लगे तब भी उनका आमंत्रण आया, “इस सीज़न में घूम जाइए।” नहीं जा पाई। इसके बाद फ़ेसबुक पर ही उनकी यात्रा सहित अन्य गतिविधियों की सूचना मिलती रही। वक़्त इतनी जल्दी करवट लेगा, किसने सोचा था! गीताजी-सुरेंद्रपाल जी के सपनों का वह बसेरा-–वह फ़ार्म हाउस उन्हें बहुत याद करेगा।
“सुरेंद्रपाल जी! जब-जब वहाँ खींची गई तस्वीरों पर निगाह ठहरती है, आप मुस्कुराने लगते हैं। आपका स्नेहिल आमंत्रण याद आता है— याद आते हैं आप। आपसे एक शिकायत है, आपने वादा किया था कि मुझे एक्यूपंचर सिखाएँगे। मुझे सिखाए बिना कैसे चले गए? जाते हुए विदाई भी न माँगी! कभी गीताजी से मिलूँगी तो इसके लिए आपकी शिकायत करूँगी। सामने गर्वोन्नत पहाड़ी से और उस दिन नीले आसमान के सीने से चिपके, धूप से जगमगाते सफ़ेद बादलों से पूछूँगी कि उन्हें आप दोनों की प्रेमिल जोड़ी याद है न! खीरे के उस लतर से भी पूछूँगी कि उसे वह दिन, वह पल याद है न जब आपने मेरे लिए उसमें से ककड़ी-खीरा तोड़ा था और कहा था, “चखिए हमारे उगाए हुए ककड़ी-खीरे का स्वाद!”
कितनी ही छोटी-छोटी बातें लहर बनकर उमगने लगीं हैं! उन्हें अपनी स्मृति के ख़ज़ाने में सँजोकर छोड़ देती हूँ। जानती हूँ, कभी गीताजी से मिलूँगी, उन्हें देखूँगी तो उनमें आप दिखेंगे; प्रकृति और फ़ार्म हाउस के उन सब हिस्सों से मिलूँगी, जिनसे आपने मिलवाया था तो वे सब आपकी चर्चा करेंगे ही . . .।”